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५० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७१८ तद्युक्तानां क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च प्रशंसासंस्तवौ सम्यग्दृष्टेरतिचार इति ।
प्रवाह-प्रशंसा-संस्तवयोः कः प्रति विशेष इति ।
अत्रोच्यते-ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोद्भावनं भावतः प्रशंसा संस्तवस्तु सोपधं निरुपधं भूताभूतगुणवचनम् ।
दिगम्बरसम्प्रदाये तु विचिकित्सायाऽर्थः ग्लानिः । साधूनां धूलिमलीमसं बाह्य शरीरं दृष्ट्वा रोगादियुक्त वा दृष्ट्वा तेषां पात्मिकगुणेषु अपि ग्लानिः विचिकित्सानामकः अतिचारः ।
अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः देशस्य भंगोह्यतिचार उक्तः, भङ्गो ह्यनाचार इह व्रतानाम् ॥ ७-१८ ॥
* सूत्रार्थ-शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा तथा अन्यदृष्टि संस्तव ये पांच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं ।। ७-१८ ।।
ॐ विवेचनामृत उक्त व्रतों को स्वीकार करने के बाद, उसमें दूषण अर्थात् अतिचार नहीं लगे उसकी सावधानी रखनी चाहिए। इसलिए कौनसे-कौनसे अतिचार लगने सम्भव हैं ? यह साधक को अवश्य जानना चाहिए। इस हेतु से अब ग्रन्थकार स्वयं सम्यग्दर्शन में, बारह व्रतों में तथा संलेखना में सम्भवित मुख्य-मुख्य अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन प्रारम्भ करते हैं
___ सम्यग्दृष्टि के पांच अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि की संस्तवना।
अतिचार के अर्थ-स्वीकार किये हुए व्रतों-गुणों में मलिनता उत्पन्न हो या धीरे-धीरे वे ह्रास अवस्था को प्राप्त हों, ऐसे दोषों को 'अतिचार' कहते हैं ।
अतिचार, स्खलना, दूषण इत्यादि शब्दों का एक अर्थ है जिससे व्रतों में दूषण लगे, वह अतिचार है। चारित्र का मुख्य आधार 'सम्यक्त्व' है।
इसकी विशुद्धता पर चारित्र की शुद्धि अवलम्बित है। इसलिए सम्यक्त्व-समकित की शुद्धि में जिससे बाधा पहुंचती हो या सम्भव हो ऐसे अतिचार (दोष) मुख्यतया पाँच बताए हैं
(१) शङ्का-सम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा श्रीपरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त कथित अतिसूक्ष्म, प्रतीन्द्रिय तथा केवलज्ञान या प्रागमप्रमाण से ग्राह्य पदार्थों अतिचार कहते हैं।