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सप्तमोऽध्यायः
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श्रोजेनसिद्धान्त-पागमशास्त्रों में शंका-संशय और तत्पूर्वक परीक्षा, इसके लिए पूर्णतया स्थान है तो भो यहाँ शंका-संशय को अतिचार कहा है। जिसका कारण यह है कि तर्कवाद की कसौटो पर कसने योग्य पदार्थों को तर्क को दृष्टि से यत्न नहीं करने से, वह श्रद्धागम्य वस्तुओं को यथार्थ बुद्धिगम्य नहीं कर सकता तथा यथार्थ बुद्धिगम्य किये बिना किसी भी समय वह विकार भाव को प्राप्त हो जाए, ऐसा जो शंका दोष वह प्रतिचार रूप से त्याज्य है। अर्थात अपनी मतिमन्दता से श्रीजैनसिद्धान्त-पागमोक्त पदार्थों को नहीं समझ सकने से अमूक वस्तु अमुक स्वरूप से होगी कि नहीं ? इत्यादि शंका रखनी या संशय रखना। इस शंका के दो भेद हैं -एक सर्व शंका और दूसरी देश शंका।
उसमें १. सर्व शंका-मूल वस्तु को ही शंका वह सर्व शंका है जैसे-धर्म होगा कि नहीं ?, सर्वज्ञ होगा कि नहीं ?, तथा जोव-यात्मा होगा कि नहीं? एवं जिनधर्म भी सच्चा-सत्य होगा कि नहीं ? इत्यादि।
२. देशशंका-उसमें मूल वस्तु की शंका नहीं हो, किन्तु वस्तु-पदार्थ अमुक रूप में होगा कि नहीं? इस तरह वस्तु-पदार्थ के देश को शंका वह देश शंका है। जैसे -जीव-आत्मा तो है, किन्तु वह देह-शरीर प्रमाण होगा कि नहीं ? वह देह-शरीर प्रमाण है कि लोकव्यापी है ?, पृथ्वोकायादिक जीव होंगे कि नहीं ?, तथा निगोद-अनन्त जीव भी होंगे कि नहीं?, एवं आत्मा के असंख्य प्रदेश होंगे कि नहीं? इत्यादि ।
(२) कांक्षा-कांक्षा यानी इच्छा। ऐहिक तथा पारलौकिक विषयों की अभिलाषा को कांक्षा कहते हैं। साधक अभिलाषी होने से गुण-दोषों का विचार नहीं कर सकता है। इसलिए वह अपने सिद्धान्त-विचार पर भी अवस्थित नहीं रह सकता, इसलिए कांक्षा प्रतिचार दोष रूप है।
___ इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप में कहा है कि- इस लोक के या परलोक के सुख की इच्छा रखनी। भव-संसार का समस्त सुख, दु:ख रूप होने से सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर भगवन्तों द्वारा हेय यानी त्याग रूप कहा है। इसलिए धर्म भी केवल मोक्ष को उद्देश्य करके ही करने की अनुमतिआज्ञा है। इस धर्म के फलरूप में इस लोक के अथवा परलोक के सुख की इच्छा रखने वाला व्यक्ति देवाधिदेव सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करता है। अनमतिप्राज्ञा का उल्लंघन सम्यक्त्व-समकित को मलिन-दुषित बनाता है। इहलोक के, परलोक के सुख के लिए धर्म करना-धर्म की आराधना करना यह अतिचार है। अथवा देवाधिदेव सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वर भगवंत भाषित धर्म-दर्शन के सिवाय अन्य धर्म-दर्शन की इच्छा वह कांक्षा है। उसके सर्वकांक्षा और देशकांक्षा ऐसे दो भेद हैं। विश्व में सर्वदर्शन समान हैं, समस्त दर्शन मोक्षमार्ग दिखाते-बताते हैं, सभी दर्शन अच्छे हैं। इस तरह समस्त दर्शनों की इच्छा वह सर्वकांक्षा है ।
किसी एक या किन्हीं दो-तीन दर्शन की इच्छा रखनी, वह देशकांक्षा है। जैसे कि
न श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें कष्ट सहन किये बिना धर्म करने का उपदेश दिया है, तथा स्नानादिक की भी छूट दी है....इत्यादि ।
कांक्षा से श्रोवोतराग प्रणोत दर्शन में अविश्वास-प्रश्रद्धा पैदा होना सम्भव है।