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________________ ८० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ७।३३ (३) मित्र-अनुराग-मित्र तथा पुत्रादि पर प्रीतिभाव रखना। अर्थात्-मित्र, पुत्र आदि स्वजन स्नेहियों पर ममत्वभाव रखना। यह 'मित्र अनुराग' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है । (४) सुख-अनुबन्ध- अनुभव किये हुए सुखों का स्मरण करना। अर्थात्-पूर्वे अनुभवेल सुखों को याद करना। यह 'सुखानुबन्ध' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है। (५) निदान करण–तपस्यादि करके भोगादि विषयों की आकांक्षा करनी। अर्थात्तप तथा सयम-चारित्र के प्रभाव से मैं परलोक में चक्रवत्ती, वासुदेव, मांडलिक राजा, बलवान तथा रूपवान बनू इत्यादि परलोक के सुख की अभिलाषा-इच्छा रखनी। यह निदान करण' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है । उपरोक्त अतिचार यदि इरादापूर्वक या वक्रता से सेवन किये जाय तो वे व्रतखण्डनरूप अनाचार हैं। भूल या असावधानी से दूषित को अतिचार कहते हैं। इस तरह ये पांच अतिचार संलेखना व्रत के जानने ॥ ७-३२ ।। * दानस्य व्याख्या * 卐 मूलसूत्रम् अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ७-३३ ।। * सुबोधिका टीका * स्वात्मपरानुग्रहार्थं स्वस्य द्रव्यस्य वाऽअन्नपानादेः पात्रेतिसर्गो दानम् । यशलाभाय वा पूजादिलाभाय नैव किन्तु पुण्यसञ्चयाय कर्मनिर्जराद्वारात्मकल्याणाय पात्रस्य रत्नत्रयधर्मरक्षणाय यद् दीयते तद् दानम् । देयवस्तुनः योग्यत्वं स्वत्वमपि भवेत् । अयोग्यपरस्य वा वस्तुनां दानं दानं ।। ७-३३ ॥ * सूत्रार्थ-स्व-पर के कल्याण के लिए वस्तु का त्याग करना दान है। अर्थात्-हित करने की इच्छा से अपनी वस्तु का त्याग करना दान कहलाता है ।। ७-३३ ।। + विवेचनामृत स्व और पर के उपकार के लिए अपनी वस्तु पात्र को देनी वह दान है। स्व-उपकार, प्रधान और प्रानुषंगिक रूप से दो प्रकार का है। प्रधान यानी मुख्य । कर्म-निर्जरा से प्रात्मा की संसार से मुक्ति यह प्रधान स्व-उपकार है। आनुषंगिक उपकार यानी मुख्य उपकार के साथ-साथ अनायास हो जाता उपकार । आनुषंगिक उपकार के दो भेद हैं-(१) इस लोक सम्बन्धी उपकार और (२) परलोक सम्बन्धी उपकार ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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