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________________ ७।३४ ] सप्तमोऽध्यायः [ ८१ * संतोष तथा वैभवादिक की प्राप्ति यह इस लोक सम्बन्धी आनुषंगिक स्व-उपकार है। अर्थात् दान से दान करने वाली प्रात्मा में संतोष गुण आता है। [संतोष के साथ उदारता इत्यादि अनेक गुण पाते हैं, इतना ही नहीं किन्तु रागादिक दोष कम हो जाते हैं।] इस प्रकार के विशिष्ट पुण्य के उदय से बाह्य वैभव की भी प्राप्ति हो जाती है । परलोक में विशिष्ट प्रकार के स्वर्गादिक सुख की प्राप्ति यह परलोक सम्बन्धी प्रानुषंगिक स्व-उपकार है। इस प्रकार पर उपकार भी प्रधान और प्रानुषंगिक यों दो प्रकार का है। कर्म की निर्जरा से आत्मा की संसार से सर्वथा मुक्ति यह प्रधान-मुख्य पर-उपकार है। आनुषंगिक पर-उपकार इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी यों दो प्रकार के हैं । संयम-चारित्र का पालन कर मोक्ष-मार्ग की आराधना यह इस लोक सम्बन्धी पर-उपकार है। विशिष्ट प्रकार के स्वर्गादिक सुख की प्राप्ति यह परलोक सम्बन्धी पर-उपकार है। इसका कोष्ठक नीचे प्रमाणे है * उपकार * प्रानुषंगिक मानुषंगिक प्रधान [कर्म निर्जरा से मोक्ष] इस लोक सम्बन्धी (संतोष, वैभव आदि) परलोक सम्बन्धी इह लोक सम्बन्धी (विशिष्ट स्वर्गादि सुख) (मोक्षमार्ग की आराधना प्रादि) * दानक्रिया समान फले भिन्नता * 卐 मूलसूत्रम्विधि-द्रव्य-दात-पात्रविशेषाच्च तद्विशेषः ॥ ७-३४ ॥ * सुबोधिका टोका * दानधर्मस्य वैशिष्टय विधिविशेषात्, द्रव्यविशेषात्, दातृविशेषात्, पात्रविशेषात् भवति । तत्र च विधि वैशिष्ट्य नाम देशकालसंपच्छद्धा सत्कारक्रमाः कल्पनीयत्व
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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