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( १६ ) मतभेद प्रवर्तमान है। वे श्वेताम्बर परम्परा के हैं। इस मत के पुरस्कर्ता प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी, प्राचार्य श्री सागरानंद सूरिजी, पं. सुखलाल संघवी, पं. दलसुख मालवणिया मादि हैं । जबकि दिगम्बर परम्परा के ऐसे पक्षकार हैं पं. फूलचन्द शास्त्री, पं. कैलाशचन्द शास्त्री, डॉ. दरबारीलाल कोठिया, पं. श्री जुगलकिशोर मुख्तार । उक्त सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत को स्थापित करने हेतु प्रयास किया है। "दशाष्टपञ्च द्वादश विकल्पाः कल्पोपपन्न पर्यन्ताः" [४/३]
__ एकादश जिने [९/११] उक्त सूत्र एवं इनका भाष्य स्पष्ट रूप से श्वेताम्बरीय परम्परा के अनुसार होने से ग्रन्थ-ग्रन्थकार श्वेताम्बर है यह सिद्ध होता है। दूसरी बात-परिषह [8/६] के विवरण में नग्नता को परिषह के रूप में बताया है। यदि नग्नता परिषह प्राचार ही है तो फिर परिषह में नग्नता का समावेश करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सकता है। वस्त्र धारण करने वाले के लिए ही नग्नता परिषह हो सकती है। दिगम्बरों ने नग्नता को परिषह के रूप में माना है। इस तर्क के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थकर्ताश्वेताम्बर परम्परा के हो सकते हैं।
__ प्रशमरति-जंबुद्वीपसमास-पूजा प्रकरण-सावयपज्जत्ति आदि ग्रन्थ पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. द्वारा रचित हैं जो आज भी उपलब्ध हैं।
तत्त्वार्थ पर विवरण-यह ग्रन्थ श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में मान्य होने से इस पर अनेक विवरण व टीकाएँ रची गई हैं।
श्वेताम्बर परम्परा में निम्नानुसार रचनायें हुई हैंवाचकवर्य श्री उमास्वाति म. सा. कृत-स्वोपज्ञ भाष्य १. पू. श्री सिद्धसेन गणिकृत-भाष्यानुसारिणी विस्तृत टीका २. पू. श्री हरिभद्र सूरि कृत-भाष्यानुसारिणी ।। अध्याय तक टीका ३. पू. श्री यशोभद्र सूरि कृत-हरिभद्रीय टीका में शेष अध्यायों की टीका ४. पू. श्री यशोविजयजी कृत-प्रथम अध्याय पर भाष्यतर्कानुसारिणी टीका ५. पू. श्री दर्शन सूरि कृत-अति विस्तृत टीका ६. पू. श्री देवगुप्त सूरि कृत-मात्र कारिका टीका
इस तरह जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में इस कृति पर अधिकाधिक टीकाएँ रची गई हैं। इनके अतिरिक्त तत्त्वार्थ सूत्र पर अन्य टोकायें भी उपलब्ध हैं।