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________________ ( १७ ) तत्त्वार्थ के अन्त में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. सा कहते हैं कि मुक्त हुए जीव हर एक प्रकार के शरीर से छूटकर ऊर्ध्वगमन होकर अन्त में लोक के अग्रभाग में स्थिर होते हैं। और सदा काल वहीं रहते हैं। इस तरह दश अध्यायों में जैन दर्शन के दार्शनिक व सैद्धान्तिक विषयों का वर्णन किया गया है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इसमें कुल ३४४ सूत्र हैं जबकि दिगम्बर परम्परा इसमें ३५७ सूत्र स्वीकृत करती है । ग्रन्थकर्ता का परिचयः-इस महान् ग्रन्थ के कर्ता वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. हैं। उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण विगत प्रशस्ति के प्राधार से निम्न प्रकार से है १. प्रापके दीक्षा गुरु ग्यारह अंग के धारक घोषनन्दी श्रमण थे । २. 'प्रगुरु' अर्थात् गुरु के गुरु वाचक मुख्य 'शिवश्री' थे। ३. विद्याग्रहण की दृष्टि से विद्यागुरु मूल नामक वाचकाचार्य थे । ४. विद्यागुरु के गुरु महावाचक मुण्डपाद थे । ५. गौत्र से प्राप कोभीषणी थे । ६. पाप 'स्वाति' पिता व वात्सी (उपनाम) 'उमा' माता के पुत्ररत्न थे । ७. जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था और 'उच्चनागर' शाखा के थे । ८. इस तत्त्वार्थ सूत्र की रचना कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) में की थी। उक्त परिचय प्रशस्ति के आधार से दिया गया है। यह प्रशस्ति इस समय भाष्य के अन्त में उपलब्ध होती है । डॉ. हर्मन जैकोबी भी इस प्रशस्ति को श्री उमास्वातिजी म. सा. की ही मानते हैं। और यह उन्हीं के जर्मन अनुवाद की भूमिका से स्पष्ट है अतः इसमें जिस घटना का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मानकर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. सा. विषयक दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा में चली पाई मान्यता का स्पष्टीकरण करना इस समय राजमार्ग है । समयः-वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. के समय के सम्बन्ध में उक्त प्रशस्ति में कुछ भी निर्देश नहीं है । समय का सत्य रूप से निर्धारण करने वाला दूसरा भी कोई साधन अब तक नहीं मिला, फिर भी इस विषय में चर्चा करना आवश्यक है ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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