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________________ ( १०० ) चतुष्कोणेषु मन्त्राध, चतुर्विजान्वित - जिनः । चतुरष्टदशद्वीति, द्विआंकसंज्ञकै . युतम् ॥ २४ ॥ अर्थ-चारों कोनों पर प्रादिमन्त्र, चारों बीज से युक्त, श्रीजिनेश्वर देव चौरासी द्विर्धाक से समलंकृत हैं ।। २४ ॥ दिक्षु क्षकारयुक्त न, विदिक्ष लांकितेन च। चतुरस्त्रेण वज्रांक, क्षिति - तत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ २५ ॥ अर्थ-दिशामों में क्षकार से युक्त, विदिशाओं में मेल से, चारों तरफ अस्त्र से वज्र के समान अंकित पृथ्वी तत्त्व पर प्रतिष्ठित हुए ॥ २५ ॥ श्रीपार्श्वनाथ - मित्येवं, यः समाराधये - जिनम् । तं सर्वपापं निर्मुक्त, भजते श्रीशुभप्रदा ।। २६ ॥ अर्थ-जो कोई श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर की सम्यक् प्रकार पाराधना करता है, वह सब पापों से निर्मुक्त होकर शुभ प्राप्त करता है ।। २६ ।। जिनेशः पूजितो भक्त्या, संस्तुतः प्रस्तुतोऽथवा । ध्यातस्त्वं यः क्षणं वापि, सिद्धिस्तेषां महोदया ॥ २७ ॥ अर्थ-जो कोई श्रीजिनेश्वरदेव की भक्ति से पूजा करता है, स्तुति-प्रस्तुति करता है या उनका एक क्षण भी ध्यान करता है, वह महान् उदय वाली सिद्धि को पाता है ॥ २७ ॥ श्रीपार्श्वमन्त्र राजन्ते, चिन्तामणि गुणास्पदम् । शान्ति-पुष्टिकरं नित्यं, क्षुद्रोपद्रव - नाशनम् ॥ २८ ॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ मन्त्रराज चिन्तामणि के समान गुणों का घर है, क्षुद्र उपद्रवों का नाशक है और नित्य शान्तिपुष्टिकारक है ।। २८ ।। ऋद्धि - सिद्धि - महाबुद्धि - श्री-कान्ति - धति-कोत्तिदम । मृत्युजयं शिवात्मानं, जपनान्नन्दितो जनः ॥ २६ ॥ अर्थ-ऋद्धि, सिद्धि, महती बुद्धि, श्री, कान्ति, धैर्य, कीत्ति को देने वाले मृत्युजय, शिवात्मा के जाप से मनुष्य प्रानन्दित होता है ।। २६ ।।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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