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अष्टमोऽध्यायः स्थिति, यों भिन्न-भिन्न कर्मों में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इसी तरह किसी कर्म में एकस्थानिक रस, किसी कर्म में द्विस्थानिक रस, यों भिन्न-भिन्न रस उत्पन्न होते हैं।
इसी तरह किसी कर्म में कर्माणु अर्थात् कर्म के अणु कम-अल्प, किसी कर्म में उससे अधिक, किसी कर्म में उससे भी अधिक, यों भिन्न-भिन्न कर्मों में न्यूनाधिक अर्थात् अल्प-अधिक कर्माणु होते हैं ।। ८-४॥
* प्रकृतिबन्धस्य मूलभेदाः * 卐 मूलसूत्रम्प्राद्यो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयुष्य-नाम-गोत्रा
ऽऽन्तरायाः॥८-५॥
* सुबोधिका टीका * प्राद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्रकृतिबन्धमाह, सोऽष्टविधः । तद्यथा-प्रथमः प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणं, दर्शनावरणं, वेदनीयं, मोहनीयं, प्रायुष्क, नाम, गोत्र, अन्तरायश्चेत्यष्टविधत्वमस्ति । प्रकृतिबन्धा अष्टविधाः भवन्तीति फलितार्थः ॥ ८-५ ।।
* सूत्रार्थ-प्रथम प्रकृति बन्ध पाठ प्रकार का है। यथा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय ॥ ८-५ ॥
5 विवेचनामृत प्र उपर्युक्त सूत्र चार से क्रमशः प्राप्त प्राद्य अर्थात् पहला प्रकृति बन्ध आठ प्रकार का है जिनके नाम क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं
(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र, तथा (८) अन्तराय।
अध्यवसाय विशेषपूर्वक जीव-आत्मा द्वारा एक ही बार एक समय में ग्रहण किये हुए कर्म के पुद्गल हैं। उनका अध्यवसायिक शक्ति की विविधता के कारण अनेक प्रकार से परिणमन होता है। जैसे- एक ही बार एक प्रकार का किया हुआ अन्न-जलादि का भोजन शरीर में सातों धातुरूप से परिणमित होता है, वैसे ही वे कर्म स्वभावतः अदृश्य रूप हैं, तो भी संसारी जीवों पर उनकी विचित्रता प्रत्यक्षरूप से सिद्ध ही है।
एक अध्यवसाय से एक समय में बाँधे हुए कर्म वास्तविक रूप से असंख्याते हैं, तो भी कार्यक्रम की परिगणना मात्र से उनका वर्गीकरण आठ विभागों में किया गया है। इसलिए उसी को प्रकृतिबन्ध कहते हैं।