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सप्तमोऽध्यायः
[ ११ स्पष्टीकरण -- जरूरत के माफिक कोई भी चीज वस्तु उपयोग सहित मंगाकर लेना या मकान-पाट-पाटलादि प्रत्येक चीज वस्तु के मालिक - स्वामी यदि भिन्न-भिन्न हों तो सबसे यथोचित याचना करके चीज वस्तु ग्रहण करनी, यह 'अनुवीचि श्रवग्रह याचना' है ।
७।३ ]
(२) प्रभीक्ष्ण श्रवग्रह याचना - अभीक्ष्ण अर्थात् बारम्बार । यदि रोगादि के कारण या अन्य किसी भी कारण विशेष से आवश्यकता हो तो वस्तु पुनः पुनः -- बारम्बार मांगकर लेनी, किन्तु यह अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि उसके स्वामी मालिक को किसी भी प्रकार का दुःख-क्लेशादिक तो उत्पन्न नहीं होता है । अर्थात् - सामान्य से अवग्रह की याचना करने पर भी रोगादिक की अवस्था में भिन्न-भिन्न स्थान - जगह का भिन्न-भिन्नपने उपयोग करना पड़े तो जब-जब जिस-जिस स्थान-जगह का जंसा-जैसा उपयोग करने का हो वैसा-वैसा उपयोग करने के लिए उस-उस स्थानजगह की याचना करनी चाहिए । यही अभीक्ष्ण श्रवग्रह याचना है ।
(३) अवग्रह अवधारण - याचना करते समय चीज वस्तु की मर्यादा या यथोचित नियम प्रकाशित करके ग्रहण करना, इसे अवग्रह अवधारण कहा जाता है । अर्थात् - प्रवग्रह की याचना करते समय कितने स्थान- जगह की जरूरत उसका निर्णय करके जरूरत जितनी जगह - स्थान मांगकर उतने ही स्थान का उपयोग करना । यह 'अवग्रह - श्रवधारण' है यानी नियमपूर्वक ग्रहण है ।
(४) समान धार्मिक प्रवग्रह याचना - अपने समान धर्मवालों ने किसी से कोई चीज वस्तु याचना करके लो, हो और उसको आवश्यकता- जरूरत पड़े तो समान धर्मवालों से याचना करके लेनी। जैसे -- श्रमण साधुत्रों के समान धार्मिक श्रमण साधु हैं । जिस स्थान - जगह में पूर्वे - पहिले आए हुए श्रमण-साधु उतरे हुए हों, उस स्थान- जगह में उतरने का हो तो पूर्वे-पहिले उतरे हुए साधुनों की अनुमति श्रनुज्ञा अवश्य लेनी चाहिए । यही समान धार्मिक अवग्रह याचना कहलाती है ।
(५) अनुज्ञापित पान - भोजन - विधिपूर्वक ग्रहण किये हुए अन्न-पानादि को गुरुमहाराज के समक्ष रखकर उनकी अनुज्ञा से उपयोग करना, यह श्रनुज्ञापित पान-भोजन कहा जाता है । अर्थात् - गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर के अन्न-पानी लेने के लिए जाना चाहिए। शास्त्रोक्त विधिपूर्वक भोजन-पानी लाने के बाद तथा गुरुमहाराज को बताने के बाद, उनकी अनुज्ञा पाकर भोजन-पानी वापरना चाहिए अन्यथा गुरुप्रदत्त दान इत्यादि का दोष लगता है ।
इस तरह तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ जाननी ।
[४] चतुर्थ- चौथे महाव्रत की भावनाएँ
(१) स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसति वर्जन, (२) रागसंयुक्त स्त्रीकथा वर्जन, (३) मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन, (४) पूर्व क्रीड़ास्मरण वर्जन, तथा ( ५ ) प्रणीत रस भोजन वर्जन ।
इनका विशेष वर्णन
ये पाँच भावनाएँ चतुर्थ - चौथे महाव्रत ( मैथुन विरमरण व्रत ) की हैं । इस प्रकार है