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३२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७११ को तृण-घास जैसी भी चीज-वस्तु ग्रहण करने से पूर्व उसके मालिक की अनुमति अवश्य लेनी चाहिए ।
(२) जीव अदत्त-मालिक ने रजा दी हो तो भी यदि वस्तु सचित्त हो अर्थात् जीव युक्त हो तो उसे ग्रहण नहीं कर सकते। कारण कि उस वस्तु का मालिक उसमें रहा हा जीव है। वह वस्तु उसमें रहे हुए जोव की काया है। किसी भी जीव को काया की पीड़ा नहीं गमती अर्थात् देह-शरीर का दुःख गमता नहीं है। सचित्त वस्तु ग्रहण करने से जीव को पीड़ा तथा उसकी काया-शरीर का विनाश आदि होता है। इस वस्तु में रहे हुए जीव ने अपनी वस्तु भोगने का अधिकार अन्य किसी को नहीं दिया है। इसलिए पंच महाव्रत के साधक को मालिक ने अनुमतिरजा दी है तो भी सचित्त चीज-वस्तु का ग्रहण करना उचित नहीं है, अन्यथा गृहीता को अदत्त दोष लगता है।
(३) तीर्थकर अदत्त--भले चीज-वस्तु अचित्त हो और मालिक ने रजा दी हो, तो भी साधक को विचार करना चाहिए कि, यह चीज-वस्तु लेने के लिए श्री तीर्थंकर भगवन्त की (शास्त्र की) आज्ञा है कि नहीं?
श्री तीर्थंकर भगवन्त की आज्ञा न हो और अचित्त चीज-वस्तु ग्रहण करे तो तीर्थंकर प्रदत्त दोष लगे। जैसे कि, श्रमण-साधु के लिए आहार-पानी ग्रहण । दाता भक्ति से साधु को आहार-पानी देता हो, वह आहार-पानी भले अचित्त हो तो भी साधु के निमित्त से बनाया हुआ हो तो वह साधु
(निष्कारण) नहीं लिया जाता है, जिससे कि तीर्थंकर प्रदत्त दोष लगे। कारण कि श्री तीर्थकर भगवन्तों ने साधु निमित्त तैयार किये हुए आहार-पानी को (निष्कारण) लेने का निषेध किया है।
(४) गुरु प्रदत्त-स्वामी की अनुज्ञा हो, वस्तु आदि अचित्त हो, श्री तीर्थंकर परमात्मा की अनुज्ञा हो, तो भी गुरु महाराज की अनुज्ञा लिये बिना वह आहार-पानी आदि ग्रहण करे तो उसे गुरुप्रदत्त दोष लगता है। निर्दोष आहार पानी का निर्दोष ग्रहण करने से पहले गुरु महाराज की अनुज्ञा अवश्य लेनी चाहिए। दाता भक्ति से देते हैं इसलिए स्वामी अदत्त नहीं है। निर्दोष अर्थात् दोष रहित आहार-पानी होने से जीव अदत्त अथवा तीर्थंकर अदत्त भी नहीं है, तो भी यदि गुरु की अनुज्ञा बिना आहार-पानी लाये हो तो उसमें गुरु प्रदत्त दोष लगता है। इसलिए जो वस्तु लेने की हो, उसे लेने के लिए भी गुरु की अनुज्ञा-प्राज्ञा अवश्य ही लेनी चाहिए। इस प्रकार अस्तेयअदत्त महाव्रत के पालन के लिए प्रदत्त वस्तु का त्याग करना चाहिए ॥ (७-१०)
* अब्रह्मचर्यस्वरूपम् * 卐 मूलसूत्रम्
मैथुनमब्रह्म ॥७-११॥
* सुबोधिका टीका * स्त्री-पुसयोः मिथुनभावः मैथुनं तदब्रह्म। मिथुननाम युगलस्य । प्रकृतौ स्त्री-पुसयोः युगलं ग्रहीतम् । द्वयोः सम्भोगभावः विशेषः, संभोगः मैथुनं एवाब्रह्म ।