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७।१० ] सप्तमोऽध्यायः
[ ३१ शिकारी उस दिशा में जाकर हरिण का शिकार करे, इससे परिणामे हिंसा उत्पन्न होती है। इसलिए यह वचन असत्य है।
इस तरह काणे को काणा कहना तथा मूर्ख को मूर्ख कहना एवं पंगु को पंगु कहना इत्यादि सत्य वचन भी असत्य ही है क्योंकि इनसे प्राणवियोग रूप हिंसा नहीं होते हुए भी दुःखानुभव रूप हिंसा अवश्य होती है। वास्तविक हिंसा भी यही है। कठोरता, पैशून्य तथा गाली प्रादि से युक्त वचन किसी को श्रवण करना-सुनना रुचता नहीं होने से श्रवण से दुःख होता है ।। (७-६)
* चौर्यस्य स्वरूपम् *
卐 मूलसूत्रम्
प्रदत्तादानं स्तेयम् ॥ ७-१०॥
* सुबोधिका टीका * परैरदत्तस्य परिगृहीतस्य स्तेयबुद्ध्या तृणादेव्यजातस्यादानं स्तेयम् ।
अस्मिन् सूत्रेऽपि प्रमत्तयोगस्य सम्बन्धः । अतः प्रमादपूर्वकं यदि कस्यापि प्रदत्तस्य ग्रहणं करोति तत् स्तेयम् । अन्यथा राजमार्गपरिभ्रमणेन नद-नदी जलग्रहणेन वा भस्म-मृत्तिकादिग्रहणेनाऽपि स्तेयदोषः मुनीनां भविष्यति ।। ७-१० ॥
* सूत्रार्थ-बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण को स्तेय अर्थात् चोरी कहते हैं। अर्थात् स्तेय बुद्धि से स्वामी की बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना वह 'चोरी' है ।। ७-१० ॥
卐 विवेचनामृत 卐 । प्रमाद से अन्य की नहीं दी हुई चीज-वस्तु को ग्रहण करना वह 'स्तेय' अर्थात् 'चोरी' है । अदत्त यानी नहीं दी हुई। प्रादान यानी ग्रहण करना।
अदत्तादान चोरी है। अदत्तादान के चार भेद हैं-(१) स्वामी अदत्त, (२) जीव अदत्त, (३) तीर्थंकर अदत्त तथा (४) गुरु अदत्त । साधक यदि स्वामी आदि चारों की आज्ञा-रजा बिना कोई भी चीज-वस्तु ग्रहण करे तो तीसरे अदत्तादान महाव्रत में स्खलना होती है। जैसेतृण मात्र तुच्छ चीज-वस्तु भी मालिक से बिना मांगे ग्रहण करना चोरी है। इस व्रत के ग्रहण करने वाले को लालसावत्ति दूर करके इच्छित चीज-वस्तु न्याय-विधिपूर्वक ग्रहण करनी चाहिए। अन्य-दूसरे की चोज-वस्तु आज्ञा बिना उठाने का विचार तक भी नहीं करना चाहिए। अदत्तादान के 'स्वामी अदत्तादि' चार भेदों का दिग्दर्शन नीचे प्रमाणे हैं
(१) स्वामी अदत्त-जिस चीज-वस्तु का मालिक है वही उसका स्वामी है। उसकी रजा बिना चोज-वस्तु लें तो 'स्वामी प्रदत्त' नाम का दोष लगता है। इसलिए महाव्रत के साधक