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________________ ७।२८ ] सप्तमोऽध्यायः [ ७३ [२] वचनयोग दुष्प्रणिधान -सावद्यभाषा या उपयोगरहित बोलना। अर्थात् –निरर्थक, पाप के वचन बोलना। इस अतिचार से बचने के लिए सामायिक में वचन के दस दोषों का त्याग करना चाहिए; जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं (१) कुवचन-किसी का अपमान इत्यादि हो, ऐसा कुवचन बोलना। (२) सहसात्कार-सहसा अयोग्य वचन बोलना। (३) प्रसत् प्रारोपण--विचार किये बिना ही किसी पर असत्-झूठा आरोप लगाना। . (४) निरपेक्ष-शास्त्र की उपेक्षा करके अर्थात् दरकार किये बिना वचन बोलना। (५) संक्षेप-सूत्र को संक्षिप्त करके बोलना। (६) क्लेश - अन्य-दूसरे के साथ क्लेश-कंका करना। (७) विकथा-स्त्रीकथा इत्यादि विकथा करनी। (८) हास्य-हंसना, ठट्ठा-मसखरी करना। (६) अशुद्ध -सूत्रों को अशुद्ध बोलना। (१०) गुणगुण-स्वयं-पोते और अन्य-दूसरे भी नहीं समझ सके, इस तरह सूत्र का अस्पष्ट उच्चारण करना, इत्यादि । उपर्युक्त दस दोष वचनयोग प्रणिधान के हैं। [३] काययोग दुष्प्रणिधान-निरर्थक पाप की प्रवृत्ति करनी। अर्थात् - बिना काम हाथ-पांव इत्यादि संचालन करना । इस अतिचार से बचने के लिए सामायिक में काया के बारह दोषों का त्याग करना चाहिए । वे बारह दोष क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं (१) प्रासन:-पांव पर पांव चढ़ाकर के बैठना। (२) चलासन:-स्थिर नहीं बैठना अर्थात् बार-बार पासन से निष्प्रयोजन उठना । (३) चलदृष्टि:-कायोत्सर्ग इत्यादि में नेत्र (ख) इधर-उधर चलाना । (४) सावधक्रियाः-स्वयं सावद्य (हिंसापूर्ण) क्रिया करनी वा अन्य-दूसरे को प्राज्ञा आदि से सावध क्रिया करने के लिए कहना। . (५) पालम्बनः-दीवार या स्तम्भ-थम्भे आदि का आश्रय (टेका) लेकर बैठना । (६) प्राकुचनः-प्रसारण-हाथ-पांव इत्यादि अवयव फैलाना और सिकोड़ना। (७) मालसः-अंग (शरीर) मरोड़ना, जम्हाई, उबासी आदि रूप पालस करना।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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