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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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७.२५
[2] प्रदान-प्रदान यानो देना। सुवर्ण-सोना आदि का परिमाण करने के बाद किसी के पास से (कमाणी इत्यादिक से) सोना आदि मिले तो व्रतभंग की भीति से अभी आपके पास रखें। ऐसा कहकर अन्य-दूसरे को दे दे। बाद में व्रत की अवधि पूर्ण होते ही ले ले। अथवा नियम के उपरान्त आई हई रकम बाहर दिखावे के लिए अपने पूत्र, पूत्री, तथा पत्नी-स्त्री इत्यादि स्वजन के नाम पर चढ़ा कर अन्तर से अपनी मालिकी रखे। इस तरह अन्य-दूसरे को देते हुए भी अथवा अन्य-दूसरे के नाम पर चढ़ाते हुए भी मालिकी अपनी होने से नियम का भंग होता है । परन्तु मैंने नियम के उपरान्त रखा नहीं है। इस प्रकार की बुद्धि होने से व्रत सापेक्ष होने से भंगाभंग रूप अतिचार कहा जाता है।
[३] बन्धन-बन्धन यानी ठहराव । परिमाण करने के पश्चात् अन्य-दूसरे के पास से अधिक मिले तो व्रतभंग के डर से चार मास इत्यादि अवधि के बाद मैं ले लगा। अभी तो आपके पास रहने दो। ऐसे ठहराव करके वहीं रहने दे और चार मास (इत्यादि नियम की अवधिमर्यादा) पूर्ण होते ही ले ले।
...[४] कारण-गौ-गाय, वृषभ-बैल इत्यादि का परिमाण निश्चित करने के बाद गाय आदि को गर्भ रहे, या बछड़े आदि का जन्म हो जाए तो व्रतभंग के भय से गिनतो नहीं करे। मेरे तो गाय या बैल का परिमारण है। गर्भ या बछड़ा गाय-बैल नहीं, किन्तु गाय-बैल के कारण हैं। जब बड़े होंगे तब गाय-बैल होंगे।
[५] भाव-यानी परिवर्तन। जैसे-सोने की थाली-बाटकी-प्याला ३, चांदी की थालीबाटकी-प्याला-३, तथा पीतल की थाली-बाटकी-प्याला-२० इससे विशेष नहीं रखने का नियम करने के बाद, भेंट आदि से पीतल की थाली-बाटकी-प्याला की संख्या बढ़ जावे तो नियम भंग के भय से अथवा परिग्रह के परिमाण से बढ़ी हुई वस्तु को परिग्रह परिमाण से कम रही हुई वस्तु रूप में मंगाकर रखे। यहाँ पर सर्वत्र साक्षात् तो नियम का भंग हुमा है। परन्तु हृदय में व्रतभंग के भय के कारण व्रत सापेक्ष होने से अपेक्षा से व्रतभंग नहीं है। इसलिए इसे अतिक्रम-उल्लंघन अतिचार कहा जाता है ।। ७-२४ ॥
* षष्ठदिग्विरमणव्रतस्य प्रतिचाराः * 卐 मूलसूत्रम्ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम-क्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ ७-२५॥
* सुबोधिका टोका * ऊर्ध्वदिशायां यत् प्रमाणं तस्य व्यतिक्रमः ऊर्ध्वव्यतिक्रमः, अधोदिशायां यत् प्रमाणं तस्य व्यतिक्रमः अधोव्यतिक्रमः, तिर्यग् व्यतिक्रमः, क्षेत्रवृद्धिः स्मृत्यन्तर्धानमित्येते पञ्चदिग्वतस्यातिचाराः भवन्ति । स्मृत्यन्तर्धानं नाम स्मृतेभ्रशोऽन्तर्धानमिति ॥७-२५॥