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अष्टमोऽध्यायः
* प्रश्न-मनःपर्यवज्ञान के भेदरूप ऋजुमति को सामान्य कहा गया है ? कारण मन की
पर्यायों का सामान्यरूप में जो बोध, वह ऋजुमति है । उत्तर-यहाँ पर सामान्य बोध विपुलमति से होता है, विशेष बोध की अपेक्षा है।
जैसे -लक्षाधिपति श्रीमन्त होते हुए भी कोड़पति की अपेक्षा से सामान्य ही कहलाता है, वैसे ऋजुमति विशेषस्वरूप होते हुए भी विपुलमति की अपेक्षा सामान्यस्वरूप है। विशेष बोध की तरतमता बताने के लिए ही मनःपर्यवज्ञान के दो भेद कहने में पाए हैं। श्रुतज्ञान भी शब्द तथा अर्थ के पर्यालोचनपूर्वक होने से विशेषरूप ही है।
मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में मति, श्रुत तथा अवधि ये तीन ज्ञान सामान्य (दर्शन) एवं विशेषरूप हैं।
(५) निद्रा-सुखपूर्वक विशेष प्रयत्न बिना न जाग सके, ऐसी ऊंघ को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऊंघ-नींद आती है, वह निद्रावेदनीय दर्शनावरण है।
(६) जो कष्टपूर्वक यानी विशेष प्रयत्नपूर्वक भी न जाग सके, ऐसी गाढ़ ऊंघ-नींद उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। जिस कर्म के उदय से निद्रा-निद्रा आती है, वह निद्रानिद्रा वेदनीय दर्शनावरण कर्म है।
(७) बैठे-बैठे ऊंघ-नींद आ जाए, वह प्रचला। जिस कर्म के उदय से प्रचला ऊंघ-नींद आ जाए, वह प्रचलावेदनीय दर्शनावरण कर्म है ।
(८) जिस कर्म के उदय से प्रचलाप्रचला (चलते चलते ऊंघ-नींद) पा जाए, वह प्रचला-प्रचला वेदनीय दर्शनावरण है।
(६) दिन में सोचे हुए कार्य रात्रि में ऊंघ-नींद में कर सके, वह निद्रा स्त्यानगद्धि कही जाती है। जिस कर्म के उदय से स्त्यानगृद्धि ऊंघ-नींद आ जाए, वह स्त्यानगद्धि वेदनीय दर्शनावरण है। * प्रश्न-प्रष्ट कर्मों की अपेक्षा से वेदनीय कर्म तो तीसरा कर्म है। फिर यहां पर
दर्शनावरण कर्म प्रकृति के भेद में निद्रावेदनीयादि पांच का निर्देश करने का
__ क्या कारण है ? उत्तर-निद्रावेदनीयादिक कर्म भी चक्षुदर्शनावरणादिक की भाँति दर्शनावरणरूप ही है। परन्तु फर्क इतना ही है कि चक्षुदर्शनावरणादिक चार कर्म मूल से ही दर्शनलब्धि को रोकते हैं।
नलब्धि को प्राप्त ही नहीं करने देते हैं, जबकि निद्रावेदनीय इत्यादि पाँच कर्म चक्षदर्शनावरणदिक के क्षयोपशम से प्राप्त हुई दर्शनलब्धि को रोकते हैं। जीव-आत्मा जब ऊँघ जाता है अर्थात् नींद लेता है तब चक्षुदर्शन इत्यादि दर्शन की प्राप्त हुई किसी भी लब्धि-शक्ति का उपयोग नहीं होता है। अर्थात्-प्रथम के चार कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त हुई दर्शनशक्ति का उपयोग होता नहीं है। अतः निद्रावेदनीयादिक पांच कर्म भी दर्शनावरण रूप होने से दर्शनावरण कर्म के भेद हैं, न कि तीसरे वेदनीयकर्म के।