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८।२६ ] अष्टमोऽध्यायः
[ ५७ सम्यक्त्व मोह का उदय श्री मरिहन्त भगवन्त इत्यादि के प्रति प्रीति अर्थात् भक्तिराग उत्पन्न करता है, इसलिए प्रशस्त होने से श्रोतत्त्वार्थकार के मत में पुण्यरूप है। परन्तु उससे दर्शन गुण में अतिचार लगने से अन्य-दूसरे ग्रन्थकारों के मत में वह पुण्य रूप नहीं है।
हास्य, रति और पुरुषवेद का उदय प्रोति-प्रानन्द उपजाता है। इसलिए श्रीतत्त्वार्थकार के मत में वे तोन पुण्यरूप हैं। किन्तु अात्मविकास में बाधक होने से अन्य-दूसरे ग्रन्थकारों के मत में वे पापरूप हैं।
तिर्यंच जीवों को नरक जीवों की भाँति मरना गमता नहीं है। इससे 'कर्मप्रकृति' इत्यादि ग्रन्थों में तियंच आयुष्य को पुण्यरूप माना गया है।
* पुण्यप्रकृति बिना की समस्त प्रकृतियां पापप्रकृतियां हैं। उदय की अपेक्षा १२२ प्रकृतियों में से ४५ पुण्य प्रकृतियों को बाद करते हुए तथा वर्णचतुष्क को मिलाते हुए ८१ प्रकृतियाँ पापरूप हैं। वे नीचे प्रमाणे हैं
ज्ञानावरणीय कर्म की-५, दर्शनावरणीय कर्म की-६, वेदनीय कर्म की-१, मोहनीय कर्म की-२४, आयुष्य कर्म की-२, नामकर्म की-३४, गोत्रकर्म की-१, तथा अन्तराय कर्म की-५।
ये सब मिलकर ८१ प्रकृतियां पापरूप हैं। प्रश्न-नवतत्त्व इत्यादि ग्रन्थों में ८२ पापप्रकृतियां कही गई हैं, वे किस प्रकार हैं ?
उत्तर-वहाँ नामकर्म के ६७ भेदों की गिनती करने में आई है। नामकर्म की ३४, चार घाती कर्मों की ४५, तथा शेष तीन प्रघाती कर्मों की (वेदनीय की-१, गोत्र की-१, तथा अन्तराय की-१) ३ इस तरह कुल ८२ प्रकृतियां पाप स्वरूप हैं। नवतत्त्व प्रादि ग्रन्थों में बन्ध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों को आश्रय करके ४२ पुण्य प्रकृतियाँ तथा ८२ पाप प्रकृतियां कही गई हैं।
सुर नर', तीगुच्च', साय', तसदस', तणु' वग' बइर' चउरंसं । परघासग तिरिमाउ', वनचउ पणिवि० सुभरवगई ॥ १५ ॥ बयाल पुण्यपगइ, अपढ़मसंगण खगई। संघयण । तिरिदग' असायं निनो', वधाय' इग' विगल' निरियतिंग ॥ १६ ॥ यवारदक्ष'• वन्नचउक्क', पाईपणयालं५ सहिय वासीह२ । पाव पयडित्ति दो सुवि, वन्तई गहा सुहा असुहा ॥ १७ ॥
अर्थ-देवत्रिक (गति पानपूर्वी, आयुष्य) एवं मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र, सातावेदनीय, त्रसदशक पाँच शरीर (प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस तथा कार्मण,) उपाङ्ग तीन (प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक), वज्रऋषभ नाराचसंघयण, समचौरस संस्थान, पराघात सप्तक (पराघात, उच्छ्वास, मातप, उद्योत, अगुरुलधु, तीर्थङ्कर तथा निर्माण), तियंचायुष्य, वर्ण चतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श), पञ्चेन्द्रिय, शुभविहायोगति इस प्रकार ४२ पुण्यप्रकृतियाँ हैं।