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________________ ३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७.१५ अगारी व्रती को श्रावक कहते हैं, श्रमणोपासक कहते हैं, तथा देशविरति श्रावक इत्यादिक शब्दों से सम्बोधन में आते हैं। तथा अनगार व्रती को श्रमण के नाम से, भिक्षुक के नाम से, साधु के नाम से तथा मुनि आदि के नाम से सम्बोधित करते हैं। विशेष–उक्त बात का कथन करते हुए कहा है कि-व्रत स्वीकार करने वाले की योग्यता एक समान नहीं होती है। इसलिए योग्यता की तारतम्यता-भिन्नता के अनुसार इस व्रत के मुख्य दो भेद कहे गये हैं। अगारी और अनगारी। अगारी का अर्थ है गृहस्थ, जिसका गृह-घर के साथ सम्बन्ध हो उसको अगारी कहते हैं । तथा जिसका गृह-घर के साथ सम्बन्ध नहीं होता है वह अनगारी त्यागी, श्रमण, मुनि अादि कहलाता है। किन्तु यहाँ पर इसका अर्थ यह लिया गया है कि जो विषय तृष्णा सहित हो वह अगारी है, तथा जो विषय तृष्णा से रहित हो वह अनगारी है। इससे फलितार्थ यह होता है कि गृह-घर सम्बन्ध रखते हुए भी यदि विषय तृष्णा से विमुख है तो वह अनगारी ही है। तथा जंगल-वन में निवास करते हुए भी यदि विषय तृष्णा युक्त है तो वह अगारी ही है। अगारी तथा अनगारी शब्द का वास्तविक स्वरूप यही समझना। * प्रश्न-विषय तृष्णा होने से यदि अगारी है तो फिर उसे व्रती कैसे कहते हैं ? उत्तर-स्थूलदृष्टि से मनुष्य अपने गृह-घर में रहता है या किसी नियत स्थान में रहता है, किन्तु किसी प्रकार की अपेक्षा से वह अमुक शहर-नगर में रहता है। ऐसे भी व्यवहार किया जाता है, इसी माफिक विषय तृष्णा होते हुए भी अल्पांश व्रत से सम्बन्ध रखता है। इसीलिए उसको व्रती भी कहते हैं ॥ ७-१४ ।। * अगारीव्रतो-वर्णनम् के 5 मूलसूत्रम् अणुव्रतोऽगारी ॥७-१५॥ * सुबोधिका टीका * ___ यस्य अणुरूपेण व्रतानि भवन्ति सः अणुव्रती। तदेवमणुव्रतधरः श्रावकोऽगारव्रती भवति ।। ७-१५ ॥ * सूत्रार्थ-अणु-लघु प्रमाण वाले व्रतों को धारण करने वाला 'अगारी' कहा जाता है। अर्थात्-अणुव्रतधारी को अगारी कहते हैं ।। ७-१५ ।। _ विवेचनामृत जो अहिंसादिक व्रतों को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ है, तो भी त्यागवत की भावना वाले गृहस्थ मर्यादा में रहते हुए व्रतों को अल्पांश स्वीकार कर सकते हैं। वे गृहस्थ अणुव्रतधारी (श्रावक) कहलाते हैं ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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