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________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ३६ जिस व्रती को अणुव्रत (एक, दो इत्यादि) होते हैं वह अगारी है। अर्थात् अगारी व्रती के पांच अणुव्रत होते हैं। अगारी की इस तरह की व्याख्या से अर्थापत्ति द्वारा यह सिद्ध होता है कि जिसने पंच महाव्रत स्वीकार किये हों वह 'अनगार व्रती' है। व्रतों के अणु और महान् इस भेद को लेकर व्रती के दो भेद होते हैं। अणुव्रतधारी साधक 'प्रगारी' है, और महाव्रतधारी साधक 'अनगार' है । गृहस्थावस्था में व्यक्ति पंचमहाव्रतों का पालन करने में असमर्थ होने से अणुव्रतों का पालन करते हैं। अहिंसादिक पाँच अणुव्रतों का स्वरूप-वर्णन सातवें अध्याय के द्वितीय सूत्र में किया गया है ।। ७-१५ ।। गुणव्रतानां शिक्षावतानां च निदेश: * + मूलसूत्रम् दिग्-देशा-निर्थदण्डविरति-सामायिक-पौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमारणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥७-१६ ॥ * सुबोधिका टीका * दिग्विरति-देशविरति-अनर्थदण्डविरति-सामायिक -पौषधोपवास-उपभोग-परिभोगपरिमाण-अतिथिसंविभाग-व्रतानि सप्तोत्तर व्रतानि । एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतः सम्पन्नोऽगारीव्रती भवति । तत्र दिग्वतं नाम तिर्यग् ऊर्ध्वमधो वा दशानां दिशां यथाशक्तिगमन-परिमारणाभिग्रहः। तत्परतश्च समस्तप्राणिषु अर्थतोऽनर्थतश्च सावद्ययोगनिक्षेपः । देशव्रतं नामापवरकगृहग्रामसीमादिषु यथाशक्तिप्रविचाराय परिमारणाभिग्रहश्च । तत्परतश्च सर्वभूतेषु अर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः । अनर्थदण्डो नामोपभोगपरिभोगावस्यागारिणो वतिनः अर्थः । तद्भिन्नोऽनर्थश्च । तदर्थोदण्डोऽनर्थदण्डः। तद्विरतिः व्रतम् । सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोग-योगनिक्षेपः । पौषधोपवासो नाम पौषधे उपवासः पौषधोपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् । सः पञ्चमी अष्टमी एकादशी चतुर्दशी पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना व्यपगतस्नानालेपनगन्धमाल्यालङ्कारेण न्यस्तसर्वसावद्ययोगेन कुशसंस्तर फलका
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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