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५८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ २१ यद्यपि न्यासापहार चोरी है, तो भी इसको छिपाने के लिए ऐसे असत्य मिश्रित वाक्य बोलने का प्रसंग मा जाय, इस दृष्टि से इसको सत्यव्रत के अतिचार तरीके कहने में आया है।
अन्य-दूसरे ग्रन्थों में 'न्यासापहार' अतिचार के स्थान में 'सहसा अभ्याख्यान' अतिचार प्राता है।
सहसा यानी विचार किए बिना तथा अभ्याख्यान यानी आरोप। बिना विचारे 'तू चोर है', 'तू बदमाश है' 'तू व्यभिचारी है' इत्यादि आरोप कहना। यहाँ पर अन्य-दूसरे को मारोप देने का इरादा नहीं है, किन्तु उतावल से हकीकत जाने बिना असत्य हकीकत को सत्य हकीकत समझ करके अनाभोग से कह देता है ।
इससे यहाँ पर अन्तःकरण-हृदय में व्रतभंग का भाव नहीं है, तो भी इससे परदुःख मादि होने की सम्भावना होने से प्रांशिक भंग होता है। इसलिए सहसाभ्याख्यान अतिचार रूप है। परन्तु जानते-बुझते दुःख देने के प्राशय से असत्य-झठा आरोप देने में प्रा जाय तो व्रतभग हा कहा जाता है।
(५) साकारमन्त्रभेव-देह-शरीर की प्राकृति यानी विशिष्ट चेष्टा। आकार से युक्त वह साकार। मन्त्र यानी अभिप्राय ।
अन्य-दूसरे की इस प्रकार की देह-शरीर की चेष्टा से जानने में आये हुए अभिप्राय सो साकारमन्त्र। इसका भेद यानी बाहर प्रकाशन करना। यह साकारमन्त्रभेद का शब्दार्थ है। अब इसका भावार्थ नीचे प्रमाणे कहा जाता है। विश्वासपात्र बन करके उसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा से या उसी प्रकार के प्रसंग पर से अथवा आस-पास के वातावरण आदि के आधार से अन्य-दूसरे का गुप्त अभिप्राय जान करके अन्य-दूसरे को कहे और अन्य-दूसरे का अभिप्राय अर्थात् गुप्त बात-हकीकत इसको कहे। इस तरह एक-दूसरे की गुप्त बातें एक-दूसरे को कह करके मन्योन्य-परस्पर की प्रीति-स्नेह का उच्छेद करावे। अथवा विश्वासी बनकर के राज्य की वा अन्य किसी की भी गुप्त बात-हकीकत पूर्वोक्त मुजब [चेष्टा, प्रसंग, वातावरण इत्यादिक से] जानकर सार्वजनिक करे। ऐसा करने का कारण ईर्ष्या तथा द्वेष इत्यादिक है।
साकारमन्त्रभेद के स्थान में 'स्वदारामन्त्रभेद' नामक अतिचार 'धर्मरत्न प्रकरणादिक' अन्य ग्रन्थों में आता है। स्वकीय-अपनी दारा का-पत्नी का मन्त्र-अभिप्राय (गुप्त बात-हकीकत) वह स्वदारामन्त्र । उसका भेद यानी बाहर प्रकाश करना। यह स्वदारामन्त्रभेद का शब्दार्थ है। उसका भावार्थ नीचे प्रमाणे है ।
अपने पर विश्वास रख करके पत्नी, मित्र, पड़ोसी आदि कोई भी व्यक्ति जो कोई गुप्त बात कहे, उसका बाहर प्रकाशन करना, यह 'स्वदारामन्त्रभेद' है ।
* योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस अतिचार के भावार्थ तरीके इसका "विश्वस्त-मन्त्रभेद" (विश्वासी के अभिप्राय का प्रकाशन करना) ऐसा नाम है ।