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________________ ७।२६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६६ (२) प्रेष्यप्रयोग-सीमा के बाहर की चीज-वस्तुओं को प्रेष्य यानी नौकर द्वारा भिजवानी। अर्थात्-धारे हुए परिमाण से अधिक देश में कोई भी चीज-वस्तु भेजने की हो या अन्य कोई कार्य करने का हो तो प्रेष्य-यानी नौकर प्रादि को भेजकर के करावे, वह प्रेष्यप्रयोग अतिचार है। * आनयनप्रयोग और प्रेष्यप्रयोग में भिन्नता इतनी है कि आनयन में धारे हुए परिमाण से अधिक देश में से चीज-वस्तु अपने पास मंगाने की होती है, जबकि प्रेष्यप्रयोग में धारे हए देश से अधिक देश में समाचार इत्यादि अथवा कोई भी वस्तु भेजने की होती है। अन्य, प्रानयन में चीजवस्तु मंगाने के लिए नौकर इत्यादि किसी को भेजते नहीं हैं, वहाँ से आने वाले के द्वारा मंगा लेते हैं जबकि प्रेष्यप्रयोग में खास नौकर इत्यादि को वहां भेजते हैं। (३) शब्दानुपात-खाँसी इत्यादि शब्द द्वारा कार्य करवा लेना। अर्थात्-समीप में उधरस-खांसी-खखारा आदि से तथा दूर तार-टेलीफोन इत्यादिक से (शब्दों के अनुपात से-फेंकने से) धारे हुए देश से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति को अपने पास बुलाना, यह शब्दानुपात अतिचार है। (४) रूपानुपात-रूपादि दिखा के कार्य करवा लेना। अर्थात्-धारे हुए देश से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति को बुलाने के लिए धारे हुए देश में खड़े रह करके अपने शरीर के अंग बतावे या उसी प्रकार की कायिक चेष्टा करे, यह रूपानुपात अतिचार है। (५) पुद्गलक्षेप-पत्थर तथा कंकरादि फेंक करके कार्य करवाना। अर्थात्-धारे हुए परिमाण से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति का काम पड़ने पर उसको बुलाने के लिए धारे हुए देश में रहकर के उस व्यक्ति के समीप में हो तो कंकरादि फेंके और दूर हो तो उसी प्रकार के पत्र-चिट्ठी आदि भेजे जिससे वह व्यक्ति अपने पास पा सके । यहाँ पर स्वयं अपने शरीर से नियमित देश से बाहर नहीं जाता है, इसलिए इस दृष्टि से व्रतभंग नहीं होता है। परन्तु अन्य-दूसरे द्वारा चीज-वस्तु मंगानो, अन्य-दूसरे को भेजना, शब्दानुपात इत्यादि से अन्य-दूसरे को अपने पास बुलाना इत्यादि में नियम का ध्येय सचवाता नहीं है। नियमित देश से बाहर हिंसा को अटकाने के लिये दिशा का नियमन किया है। स्वयं नहीं जाते हए भी चीज-वस्तु मंगाना इत्यादिक से हिंसा तो होती है। स्वयं जाय, इस करते अन्य-दूसरे के पास चीज-वस्तु मंगाने आदि में अधिक हिंसा हो जाय ऐसा भी सम्भव है। क्योंकि स्वयं जैसी जयणा पाले ऐसी अन्य-दूसरा पाले नहीं। इससे स्वयं चला जाय तो स्वयं ही काम करे जिससे हिंसा कम होना सम्भव है। इसलिए प्रानयन इत्यादि में नियम का ध्येय जलवाता नहीं होने से परमार्थ से व्रत का भंग होता है। इस तरह आनयन आदि में अपेक्षा से व्रत का अभंग और अपेक्षा से व्रत का भंग होता है। * यहाँ पर प्रथम के दो अतिचार, समझने के प्रभाव अथवा सहसात्कार इत्यादिक से होते हैं, तथा पीछे के तीन अतिचार मिलने से होते हैं। प्रथम के दो अतिचारों में अन्य-दूसरे के पास में मेरा कार्य करा लूगा तो भी मेरे नियम में बाधा नहीं प्रावेगी ऐसी बुद्धि है, किन्तु यह अज्ञानता है। अन्य-दूसरे के पास कराने से विशेष विराधना होनी सम्भव है ।। ७-२६ ॥
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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