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अष्टमोऽध्यायः
भी न्यून-कम केफ करता है। एवं अमुक मद्य उससे भी न्यून-अल्प केफ उत्पन्न करता है। इस तरह कर्मों के जीव-आत्मगुणों को दबाने इत्यादि स्वभाव में भी तरतमता होती है। अर्थात्-कर्मों के विपाक में भी तरतमता होती है। कोई कर्म कितने अंश में अपना विपाक (फल) देगा, उसका निर्णय भी प्रदेशबन्ध के समय ही हो जाता है।
कोई कर्म अपना विपाक (फल) कितने अंश में देगा, इसके निर्णय को ही रसबन्ध कहते हैं।
जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म जीव-प्रात्मा के ज्ञान गुण को ढकता है। परन्तु हम देखते हैं कि प्रत्येक जीव में ज्ञान गुण का अभिभव समानपणे नहीं है ।
प्रदेशबन्ध के समय कर्मों में जो रस उत्पन्न होता है, उस रस की तरतमता के अनुसार कर्म के स्वभाव में तरतमता पाती है।
कर्माणुषों में उत्पन्न होते हुए रस की असंख्य तरमताएं होते हुए भी शास्त्रों में स्थूलदृष्टि से उसके चार भेद प्रतिपादित किये हैं। ये भेद नीचे प्रमाणे हैं
(१) एकस्थानिक रस, (२) विस्थानिक रस, (३) त्रिस्थानिक रस तथा (४) चतु:स्थानिक रस।
इनको चालू भाषा में एक ठाणिया रस, दो ठाणिया रस, तीन ठाणिया रस तथा चार ठाणिया रस, इस तरह भी कह दिया जाता है।
* सामान्य मन्द रस को एकस्थानिक रस कहते हैं। इस रस से जीव-प्रात्मा के गुणों का अभिभव अल्पांश में होता है।
* एकस्थानिक रस से अधिक तीव्र रस को द्विस्थानिक रस कहते हैं । * उससे भी अधिक तीव्र रस को त्रिस्थानिक रस कहते हैं । * त्रिस्थानिक रस से भी अधिक तीव्र रस को चतुःस्थानिक रस कहते हैं ।
उक्त रसों की तरतमता समझाने के लिए लीम्बड़ा के तथा शेलड़ी के रस की तरतमता का उदाहरण नीचे प्रमाणे आता है
लीम्बड़ा का या शेलड़ी का रस जब स्वाभाविक होता है तब एकस्थानिक होता है। इसके दो भाग कल्पी एक भाग जब बाल देवे तो बचा हुआ एक भाग रस विस्थानिक बनता है।
इसके भी तीन भाग कल्पी दो भाग जब बाल देवे तो बचा हुमा एक भाग रस त्रिस्थानिक बनता है।
इसके भी चार भाग कल्पी तीन भाग जब बाल देवे तो बचा हुमा एक भाग रस चतुःस्थानिक बनता है।