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________________ २ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१ अति आवश्यक है। इस सातवें अध्याय में व्रत की व्याख्या, साधु के तथा श्रावक के व्रतों का स्वरूप तथा व्रती की व्याख्या प्रादि कहने में आये हैं। जीवादिक सात तत्त्वों की अपेक्षा इस सातवें अध्याय में प्रास्रव तत्त्व का वर्णन है। श्री जैनधर्म में व्रत की क्या महत्ता है और इसको ग्रहण करने वाले कौन हैं तथा दान एवं व्रत का विशेष रूप क्या है, इन सबका वर्णन इस अध्याय में आयेगा। हिंसा, अनृत (असत्य), स्तेय (चोरी), अब्रह्म (मैथुन) तथा परिग्रह इन पांचों से निवृत्त होने को व्रत कहते हैं। ___ समस्त व्रतों में अहिंसा ही मुख्य व्रत है, इसलिए उसका स्थान भी पहला है। अन्य व्रत इसी अहिंसा की रक्षा के लिए हैं। जिस तरह पाक (खेत) की रक्षा के लिए बाड़ की आवश्यकता रहती है, इसी तरह अहिंसा (दया) की रक्षा के लिए अन्य व्रतों की आवश्यकता रहती है। निवृत्ति तथा प्रवृत्ति रूप दोनों विधियों से ही व्रत की परिपूर्णता होती है। व्रत की व्याख्या में व्रत को निवृत्तिरूप बताया है, किन्तु अर्थापत्ति से व्रत निवृत्ति और प्रवृत्ति उभय स्वरूप है। जीव-आत्मा, हिंसा आदि से निवृत्ति होते ही शास्त्रविहित क्रिया में प्रवृत्ति करता है। यहाँ पर निवृत्ति की मुख्यता से व्रत को निवृत्ति रूप बताने में आया है। अनादिकालीन इस संसार में चौरासी लाख जीवायोनी हैं। उसमें परिभ्रमण करने वाला जीव भी अनादिकाल से वर्त रहा है। उसके साथ कर्म का सम्बन्ध पड़ा है। इस सम्बन्ध को सर्वथा दूर करने के लिए मुख्य साधन सद्धर्म ही है। समस्त साधना का ध्येय राग-द्वेषादि दूर करके शाश्वत सुख पाना है। राग-द्वेषादिक से पापवृत्ति होती है। पापप्रवृत्ति से कर्म का बन्ध होता है। कर्मबन्ध से इस संसार में परिभ्रमण होता है और संसारपरिभ्रमण में केवल दुःख का ही अनुभव होता है। इस तरह दुःख का मूल राग-द्वेष कषाय ही हैं। इसलिए व्रती (व्रतधारी) को राग-द्वेष कषाय नहीं करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। अर्थात् उसका नियम अवश्य ही लेना चाहिए। पापप्रवृत्ति बन्द करने में आ जाय तो राग-द्वेष कषाय दीर्घ समय तक नहीं रह सकते । इसलिए साधक को सबसे पहले हिंसा आदि पाप के त्यागपूर्वक शुभ अनुष्ठानों का सेवन अवश्य ही करना चाहिए। ये ही आत्महितकारी हैं। सर्वप्रथम हिंसादि पाँच पापों के त्याग करने का विधान है। कर्मबन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण हैं। इस दृष्टि से भी प्रथम मिथ्यात्व के त्यागपूर्वक अविरति का अर्थात् पापप्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। अविरतित्याग के बाद ही राग-द्वेषादि कषायों का त्याग हो सकता है। बाद में योग का त्याग भी हो सकता है। इस तरह हिंसादिक न करने के नियम से राग-द्वेषादि निर्बल हो जाते हैं, फिर ये अपना कार्य नहीं कर सकने से अकिञ्चित्कर बन जाते हैं। सामायिक उच्चरने के लिए 'करेमि भंते सूत्र' का पाठ बोलने में आता है। उसमें सामायिक यानी समता। समता यानी कषायों का अभाव। यहाँ पर सर्वथा कषायों का प्रभाव प्रशक्य है। इसलिए उस-उस कक्षा के साधक को अप्रत्याख्यान अथवा प्रत्याख्यानावरणरूप कषायों का अर्थात् राग-द्वेष के त्याग का नियम लेने में आता ही है। विशेष-निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप दो विधियों से व्रत की पूर्णता होती है। जैसे–सत्कार्यों में प्रवृत्तमान होने के लिए पहले विरोधी असत् कार्यों से स्वयमेव निवृत्ति भाव को प्राप्त होता
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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