Book Title: Sahajanand Sudha
Author(s): Chandana Karani, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजानन्द सुधा सम्पादक: भंवरलाल नाहटा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजात्म स्वरूप-परमगुरु सहजानन्द सुधा भाग १ सहजानंद पदावली जीवनचरित्र लेखिका कुमारी चन्दना काराणी M. A., Lib. Sc. संग्राहक व सम्पादक मैं वर लाल ना ह टा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : श्रीमद् राजचन्द्र प्राश्नम रत्नकूट, हम्पी पो० कमलापुरम् स्टे० होस्पेट जिला बेल्लारी ( मैसूर स्टेट ) Jain Educationa International ampi, Kamlapuram Hospet, Dist. Bellari Mysore महावीर जयन्ती बीर निर्वाण सं० २५०० प्रथमावृत्ति २२०० 1 मुद्रक :अजन्ता फाइन आर्ट प्रेस २०, बालमुकुन्द मक्कर रोड, कलकत्ता-७ For Personal and Private Use Only मूल्य - ४ ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी महाराज R जन्म सं० १६७० भा० सु० १० डुमरा, दीक्षा सं० १६६१ वै० सु० ६ लायजा युगप्रधान पद सं० २०१८ ज्ये० सु० १५ बोरड़ी महाप्रयाण सं० २०२७ का० शु० २ हम्पी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी महाराज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट सत्पुरुष परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी 83 B8%8888 [ जिनके पद पृ०५६ से ६६ व अनुवादादि पृ० ७० से १०२] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गुरुदेव श्री सहजानन्दघन जी महाराज के पथ प्रदर्शक "तू तेरा सम्भाल” For Personal and Private Use Only योगीन्द्र युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि जी [ जिनके स्रोत्र स्तवनादि पृ० ४२ से ४६ तक ] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय अध्यात्म जगत् के महान् ज्योतिर्धर, विश्ववंद्य, परमपूज्य, प्रातः स्मरणीय, महोपकारी योगीन्द्र-युगप्रधान सद्गुरु-शिरोमणि, अखण्ड आत्मोपयोगी, संत-श्रेष्ठ श्री सहजानन्दघन जी महाराज भारतीय अध्यात्मिक परम्परा की एक विरल विभूति थे। स्वरूप प्राप्ति की उत्कट तमन्ना वाले प्रयोग-वीर पुरुषार्थी, त्याग वैराग्य को साकार मूर्ति, आप जैसे महापुरुष सैकड़ों वर्षों में इने-गिने ही उत्पन्न होते हैं, जिनके बल पर आर्यावर्त को जगद्गुरु पद पर प्रतिष्ठित होने का सौभाग्य प्राप्त है। महापुरुषों के योगबल से ही विश्व तंत्र संचालित-संरक्षित रहता है। आपके महाप्रयाण से अध्यात्मिक जगत् की एक अपूरणीय क्षति हुई है। आपने अपना साधनाकाल भारत के विभिन्न प्रान्तों के जंगल-पहाड़ों में बिताया और लोक-प्रसिद्धि से दूर रहे। रूढ़िवादी दुषमकाल में उन्हें थोड़े ही व्यक्ति पहिचान पाये क्योंकि आप सम्प्रदायातीत महापुरुष थे। गत बीस वर्षों में मुझे अनेकबार आपके सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और मैंने समय-समय पर आपकी अभिव्यक्तियों को संग्रह करने की चेष्टा भी की है। रचनाओं के साथ साथ सैकड़ों पत्र एवं मौनकाल में लिख कर दी हुई विकीर्ण पत्राङ्कित पंक्तियों को भी अमूल्य निधि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भाँति संभाल कर रखने का प्रयत्न किया है । कुछ प्रवचन भी नोट किए जिन्हें 'कुशलनिर्देश' में निकाले एवं 'अनुभूति की आवाज, नामक एक अपूर्व कृति को भी उसी में धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । अवशिष्ट कृतियों के साथ-साथ प्रभु के जीवन वृत्त को बिस्तार पूर्वक मुमुक्षु जनता के समक्ष रखने की प्रबल भावना होते हुए भी जब अपनी अयोग्यता की ओर ध्यान देता हूँ तो लेखनी कुण्ठित हो जाती है, कहाँ वे सर्वोच्च महापुरुष और कहाँ मैं पामर प्राणी, फिर भी हम्पी से परमपूज्या आत्मज्ञानी योग - लब्ध-संपन्न महिमामयी माताजी के आशीर्वाद व प्रेरणा से इस ओर प्रवृत्ति हुई हैं। गुरुदेव के अनन्य भक्त पूज्य काकाजी शुभैराजजी, मेघराजजी व अगरचंदजी नाहटा की निरन्तर प्रेरणा से ही संग्रहगत कृतियों में से पद्य विभाग को "सहजानंदसुधा” के प्रथम भाग रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। मुख्य कार्य तो गुरुदेव के पावन जीवनचरित्र को विस्तार से प्रकाश में लाने का है। जो परमपूज्या माताजी के कृपापूर्ण आशीर्वाद व शक्ति प्रदान करने पर ही संभव होगा । इस ग्रन्थ के साथ गुरुदेव का सार - गर्भित संक्षिप्त जीवन परिचय जो आदरणीया विदुषी कुमारी चन्दना बहिन काराणी M. A. Lib. Sc. द्वारा गुजराती में लिखित है, का हिन्दी भाषान्तर प्रकाशित किया जा रहा है। गुरुदेव की गद्य रचनाएँ, प्रवचन संग्रह, पत्र सदुपदेश और दिव्य वाणी का संग्रह दूसरे भाग में देने की भावना है । २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव की प्राथमिक रचनाएँ, जब वे साधु-समुदाय के साथ विचरते थे, तब सं० २००० में 'भद्र पुष्पमाला' नाम से व सं० २००३ में गुजराती 'पंच प्रतिक्रमण सूत्र' में पर्यूषणादि के स्तवन एवं दादासाहब का मंत्र - गर्भित प्राकृत स्तोत्र पूज्य गणिवर्य श्रीबुद्धिमुनिजी महाराज ने प्रकाशित करवाये थे । श्री जिनरत्नसूरि जी की जीवनी 'रत्नप्रभा' ' एवं उपाध्याय श्री लब्धिमुनिजी की जीवनी में भी आपकी कुछ कृतियां छपी हैं। चैत्यवन्दन चौवीसी तथा कुछ फुटकर पदादि कई पुस्तकों में प्रकाशित हुए थे । हमने कुछ पद 'जैनभारती' मासिक में एवं आत्मसिद्धि शास्त्र के गुरुदेव कृत हिन्दी पद्यानुवाद के साथ कुछ पद सं० २०१४ में प्रकाशित किए। श्री केशरीचंदजी धूपिया ने कुछ पद, चैत्यवंदन 'आत्म जागृति' में एवं नियमसार - रहस्य को नवपदं तप आराधन विधि में प्रकाशित किए हैं । सं० २०१० में जब पूज्य गुरुदेव पावापुरी में चातुर्मास स्थित थे तब कुमारी सरला (जिसका पावापुरी में समाधिमरण हुआ) के लिए समाधि - शतक की रचना की थी । मैंने गुरुदेव की आज्ञा से 'जैन भारती' में प्रकाशित करवाया था । इस संग्रह में पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार उसका नाम 'समाधिमाला' रखा गया है । 1 मैंने इस ग्रंथ की प्रेस कापी दो वर्ष पूर्व तैयार कर ली थी, फिर माताजी ने कुमारीचंदना द्वारा गुजराती में की हुई प्रेस कापी भेज पर मेरी प्रेस कापी में सारी कृतियाँ थी ही अतः उसे ही प्रेस दे दिया । इसके प्रकाशन क्रम में पहिले चैत्यवन्दन, स्तुति, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन, दादासाहब व गुरुजनों के स्तवन, परमकृपालु देव श्रीमद् राजचंद्रजी के प्रति गुंफित भक्तिपद, उनकी वाणी के पद्यानुवाद आत्मसिद्धि (हिन्दी), षट्पद रहस्य पद व फुटकर पद संग्रह देने के पश्चात् श्री जिन रत्नसूरि गहूँली आदि छूटी हुई कृतियाँ देकर अन्त में समजसार, ज्ञान-मीमांसा, परमात्म-प्रकाश-जिनकी अपूर्ण रचनाएँ जिस रूप में मेरे पास थी, दे दी गई हैं। अन्त में समाधिमाला व नियमसार-रहस्य दिया गया है । इन सब में नियमसाररहस्य एक उत्कृष्ट रचना है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में गुरुदेव की समस्त उपलब्ध पद्यबद्ध रचनाएँ प्रकाश में आ गई हैं। पर कई कारणों से क्रम ठीक नहीं रह सका। पूज्यगुरुदेव ने श्रीमद् देवचंद्रजी की कुछ अप्रकाशित कृतियों को बहुत वर्ष पूर्व गुजराती में प्रकाशित करवाया था। फिर श्रीमद् राजचंद्र जी के विशिष्ट वचनामृतों का संकलन 'तत्त्वविज्ञान' के नाम से एवं 'उपास्य पदे उपादेयता' भी लिख कर प्रकाशित करवाई। पूज्य श्री ने श्रीमद् आनंदघनजी महाराज कृत चौवीसी का महत्त्वपूर्ण भावार्थ लिखा व उनके पदों की अर्थ संकलना भी प्रारम्भ की थी। श्रीमद् देवचंद्रजी की सभी कृतियों को सुसम्पादित कर प्रकाशित-प्रचारित करने की प्रबल प्रेरणा की एवं उसे स्वयं देखकर संशोधित कर देने की कृपा पूर्वक स्वीकृति के साथ मंगवाया पर शारीरिक अस्वस्थता के कारण वह कार्य सम्पन्न न हो सका । हमारी 'ज्ञानसार ग्रन्थावली' का प्रकाशन भी आपकी ही प्रेरणा का सुफल है । दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी कृत 'उपदेश कुलक' २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिसे हमने जैसलमेर ज्ञान-भण्डार से लाकर प्रकाशित किया था-आपको बड़ा प्रिय था। उससे आपके विचारों को बड़ा बल मिला, उस ग्रन्थ का अनुवाद भी आपने करवाया था । गुरुदेव अपने सम्बन्ध में किसी को कुछ लिखने नहीं देते थे, माताजी को भी मनाई थी। सं० २०२२ के पूर्यषणों में मैंने माता जी की आज्ञा प्राप्त कर कुछ पद्य रचनाएं की जिन्हें तत्काल 'सहजानन्द-संकीर्तन' नाम से प्रकाशित कर दीं। उनके महाप्रयाण के पश्चात् श्री प्रतापकुमार टोलिया ने अंग्रेजी “जैन जर्नल" में, अगरचंदजी नाहटा ने जैन-जगत् में, कुमारी चंदना बहिन ने जोधपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर की स्मारिका में व मैंने मणिधारी श्री जिनचंद्रसूरि अष्टमशताब्दी स्मृति-ग्रन्थ में प्रकाशित "खरतर गच्छ की क्रान्तिकारी और अध्यात्मिक परम्परा” लेख में उनका कुछ परिचय प्रकाशित किया। अहमदाबाद के परमभक्त साक्षरवर्य श्री लालभाई सोमचन्द शाह ने “सहजानन्द-विलास” नाम से वृहद् गन्थ लिखा है जिसमें गुरुदेव के प्रवचन, पत्र, संस्मरण और वाणी का विशद संग्रह है। इसकी पाण्डुलिपि ता० २५-३-७१ को लिखी हुई अबतक अप्रकाशित है। प्रस्तुत 'सहजानंद-सुधा' का प्रथम भाग परमपूज्या प्रातः स्मरणीया माताजी की आज्ञा से श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, हम्पी द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। आश्रम के मंत्री श्री घेवर चंद जैन एं गुरुदेव की वाणी के रसिक श्री विजयकुमारसिंह जी बडेर, श्री सुन्दरलालजी पारसान, श्री केशरीचंदजी धूपिया, २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रतनलालजी बदलिया, श्री कान्तिलाल नेमचंद, राजवैद्य श्री जसवन्तराय जी जैन आदि कलकत्ता एवं श्री अनोपचंदजी झाबक, श्री प्रतापकुमारजी टोलिया आदि भक्तजन जो इस ग्रन्थ के शीघ्र प्रकाशन के हेतु चिरप्रेरणा करते आये हैं, धन्यवाद के पात्र हैं। पूज्य काकाजी श्री मेघराज जी व श्री अगरचंदजी नाहटा की सतत् प्रेरणा व अमूल्य सहयोग इसके प्रकाशन में मुख्य कारण हैं। गुरुदेव के अनन्य भक्त जोधपुर निवासी माननीय श्री मगरूपचंद भंडारी ( रिटायर्ड डिस्ट्रिक व सेसन्स जज, जोधपुर) महोदय की श्रद्धांजलि सादर प्रकाशित की जा रही है। परमपूज्या माताजी के आशीर्वाद से इसका दूसरा भाग व विस्तृत जीवनी भी शीघ्र प्रकाश आवे, ऐसी भावना है। दृष्टि-दोष से प्रस्तुत गन्थ में रही अशुद्धियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। पाठक गण अन्त में दिये गए शुद्धि पत्रक से संशोधन कर पढ़ने का कष्ट करें। ____ महापुरुषों की दिव्य अध्यात्मिक जीवनी, अपूर्व वाणी तथा अलौकिक घटनाओं का जो उल्लेख इस ग्रन्थ, जीवनी तथा श्रद्धांजलि रूप में प्रस्तुत है, अनुभूति के मार्ग में प्रवेश के बिना या श्रद्धान्वित हुए बिना उसे हृदयंगम करना कठिन है। अतः मेरा अनुरोध है कि जिन्हें उस पर विश्वास न हों वे तटस्थ रहें, क्योंकि ज्ञानी की विराधना से चिकने कर्म-बंध होते हैं। यह गन्थ प्रकट-महापुरुष की सबीज वाणी है, इसका स्वाध्याय, मनन मुमुक्षुओं को आत्म-बोधकारी हो, यही शुभ कामना ! इस ग्रन्थ का प्रकाशन व्यय स्वर्गीय श्री धन्नूलाल जी पारसान की स्मृति में उनके सुपुत्रों पारसान-बन्धुओं ने वहन किया है अतः उन्हें अनेकशः साधुवाद ! -सद्गुरु चरणोपासक भँवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -समर्पणयोगीन्द्र युगप्रधान प्रकट संत सद्गुरु शिरोमणि परमपूज्य श्री सहजानन्दघनजी. महाराज की अनन्य सेविका, श्रीमदराजचन्द्र आश्रम हम्पी की संचालिका, जाग्रत ज्योति आत्मज्ञानी परमपूज्या माताजी के कर कमलों में परमपूज्य गुरुदेव की अनुपम वाणी रूप यह गून्थ __गुरुदेव के परम भक्त हम्पी आश्रम में समाधिमरण प्राप्त परम सरल स्वभावी धर्मनिष्ट हमारे परमपूज्य पिताजी श्री धन्नूलालजी. पारसान की पावन स्मृति में सादर समर्पित -पारसान बन्धु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ग न वि पर व ho का को ३२ पृ० १५५ में प्रकाशित दो चित्र काव्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRANG 8 परमपूज्या आत्मज्ञानी माताजी श्री धनदेवी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताजी को गुरुदेव के चरणों में लाने में प्रेरक सं० २०१० पावापुरी में समाधिमरण प्राप्त HANENTLITIHASHARE MANTRA HEALTEETHEHREE 52439844 551153535 5 165 कुमारी सरला (सच्चिदानन्द कुमार देव ) सुपुत्री पुरुषोत्तम प्रेम जी पौंडा वकील, दहाणुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ : -अनुक्रमणिकासंख्या कृति नाम गाथा आदि पद १ चैत्यवंदन चौवीसी २४ तीर्थङ्करों के ३-३ गाथा के १०६ २ चतुर्विशति स्तुतयः , १ गाथा की १०-१५ वीर छः कल्याणक चैत्यवंदन ५ वीर जिनेश्वर वांदीने १६ महावीर जिन स्तुति १ श्री मद्वीर जिनेश्वर० १६ ३ ऋषभदेव स्तवन ६ देवाधिदेव पद एक १७ ४ , तप स्त०८ अंतराय क्षयकारण विचरे १८ ५ अष्टापद स्त० ७ चलो हंस ! अष्टापद कैलाश ११ ६ ऋषभ जिन स्त० ५ ऋषभजी अब मोहे पार २० ७ चन्द्रप्रभु स्तवन चन्द्रप्रभु सुनिये अर्ज हमारी २० ८ नेमि राजुल स्त० एक वार आवो मुझ घेर २१ . है पार्श्वनाथ स्तवन जिन मुद्रा धर पास २१ १० सहस्रफणा पार्श्व स्त० ११ मैने सहस्रफणा प्रभु पास २२ ११ , , ८ तारो सहसफणा प्रभु पार्श्वमने २३ १२ श्रीवीर जिन स्त० ५ बालपणे आपण साथी सौ २५ १३ महावीर स्तवन ७ मुंके पण तार्योतार्यो० २६ १४ श्री वीर षटकल्याणक स्त० १६ तुझ कल्याणक जेहरे २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५ सामान्य जिन स्त०५ अवलंबन हितकारो २६५ १६ , ५ चाहूँ शरण तुम्हारो २६ १७ श्री सीमंधर स्तवन ४ हंसा ! महाविदेह तू जा जा ३० १८ ज्ञान आराधन पद ७ ज्ञान भणो इक तान ३० १६ सिद्धान्त रहस्य तीर्थवंदना १३ सिद्ध पद निज सम अछे ३१ (स्वोपज्ञ टिप्पण सह) २० भाव दीवाली स्तवन ३ दिल मा दिवड़ो थाय ३८ २१ दीवाली अध्यात्म स्वरूप है मेरे दिल को दीया बना ३६ २२ अंतरंग पूजा रहस्य ११ नित प्रभु पूजन रचावु ३६ -२३ प्रभु के अनन्त नाम ५ प्रभु तारा छै अनंत नाम ४० २४ प्रभु मिलन स्तवन ६ कहो सखि प्राणेश्वर किम० ४१ २५ आर्त्त विनंति हो प्रभुजी मुझ भूल माफ करो ४१ २६ दादा जिनदत्त स्तोत्र (प्राकृत) ५ ॐ ह्रीं गिव्वाणचक्क ४२ २७ श्रीजिनदत्तसूरि अष्टपदी शासन नायक वीर ४३ २८ श्री जिनचन्द्रसूरि स्तवन ५ चन्द्रसूरि गुरुदेव ४६ २६ मंगल प्रार्थना ३ ॐ ह्रीदत्त कुशल चन्द्र सूरि ४७ ३० शिक्षा-गुरु स्तुति ४ मेरे गुरु रटें मंत्र नवकार ४७ ३१ , ५ अहो म्हारा उपाध्याय भगवान ४८ ३२ दीक्षा शिक्षा गुरु स्तुति ७ वंदना वंदना वंदना रे गुरु ४६ ३३ , ४ गुरु समता रसभंडार है ५० ३४ , ४ मेरे गुरु पाठक लब्धि निधान ५० ३५ , ४ हंसा ! मंडनपुर तू जा ५१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMAN ३६ , (सं०) ४ सत्य त्यागतपः क्षमा ५१ ३७ पयूषण स्तवन २० शासननायक वीर जिन ५३ ३८ सिद्धचक्र स्तवन ११ सिद्धचक्र ही आधार ५५ ३६ आत्म-सिद्धि मंत्र ४ परम गुरु ॐ सहजात्म स्वरूप ए ५६ ४० पराभक्ति पद६ शरद पूनम संध्या पछी ५६ ४१ राज-बाण ४ । राज बाण वाग्यां होय ५७ ४२ राज-पद १५ अहो ज्ञानावतारकलिकाल ना_ ५८ ४३ सद्गुरुराज प्रार्थना ११ आपो आपो हो गुरुराज ५६ ४४ गुरु महिमा पद २ जे शिर परम कृपालु देव ६०। ४५ अनुभव पद ३ Vसफल थयुं भव मारु हो ६० ४६ प्रेरणा ४ अहो ज्ञानावतार कलिकाल ना हो राज ६१ ४७ भक्ति पद वृष्टि ४ वैशाखी पूनम रात्रिए ६१ ४८ राज महिमा पद ४ प्रभु राजचन्द्र कृपालु हमारे ६२ ४६ प्रेरणा पद ६ अवसर आयो हाथ अनमोल ६२ ५० आत्म समर्पण पद. ५ गुरु पूनम उत्तम क्षणे ६३ ५१ प्रार्थना पद ५ आवो आवो हो गुरुराज म्हारा हृदयमा ६३ ५२ , ८, , , म्हारी झुपडीए ६४ ५३ सद्गुरु प्रार्थना ३ अहो गुरुराज ! राखो मुझ लाज ६५ ५४ प्रार्थना ५ आव्यो तुम शरणे ६५ ५५ , ५ दयालु हो दया करके ६६ ५६ गुरु महिमा ४ हंसा गुरु शरण में जा जा ६७ ५७ आशीर्वाद पद ३ मुमुक्षु आत्म प्रदीप अपनावो ६७ ३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ नूतन वर्षाभिनंदन ६ नूतन वर्षाभिनंदन हो राजमंडली ने हम ५६ धर्म-मर्म ४ धर्म-मर्म का बजे नगारा ६८ ६० वड़वा आश्रम के प्रति ६ बड़वानी वाड़ी लीली छम रहो रेलो ६६ ६१ सद्गुरु महात्म्यपद ५ अहो ! सत्पुरुष ना वचनो ७० ६२ , ५ अहो सत्पुरुष के वचनो ७१ ६३ मुमुक्षु कर्तव्य पद ३ बीजुकशुं मा शोध केवल ७१ ६४ सत्पुरुष लक्षण पद १ मनोवृत्ति वहे निराबाध ७२ ६५ सत्शिक्षा पद६ अहो ! परम शान्त रसमय ७२ ६६ दिव्य संदेश पद २ उपयोग लक्षणे सनातन स्फुरित ७३ ६७ प्रेरणा पद ४ आ जगत ने रूडु बतावा ७४ ३८ अंतिम मांगलिक प्रार्थना ॐ परम कृपालु देव ! ७५ ६६ दिव्य संदेश ३ सहजात्म स्वरूप परमगुरु ७७ ७० भावना ४ हे काम ! जा बेकाम रे निर्लज ७७ ७१ आत्म-सिद्धि १४२ जो स्वरूप समझे बिना ७८-६१ ७२ षट पद रहस्य १ सद्गुरु स्तुति ८ परम कृपालदेव प्रभु ६२ २ हरिगीत छंद ७ आ शुबधुं छे ? ६३ ३ आत्म अस्तित्व ३ तन वस्त्रादिक छेज जो ६४ डा ४ आत्मा पद ६ हुँतो आत्मा छजड़ शरीर नथी ६४ ५ आत्म नित्यत्व ११ अनादि देहाध्यास थी ६५ 7६ ६ नित्य छु नित्य छु १६ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ जीव कर्तृत्व ४ कर्ता जीव स्वतन्त्र आचारी ६७ ८ जीव भोक्तृत्व ४ जे जे क्रिया ते ते सर्व हर मोक्ष स्वरूप ४ जे जीवनो शुद्ध स्वभाव ह८ मोक्ष उपाय ५ संत आज्ञा भक्ति प्रधान ६६ छ पद विवेक ५ ए वोध छ पद नो कही गया हह सद्गुरु महिमा ७ आत्म विचारे षट पद रीत १०० Vबीज कैवल्यदशा ७ पामशुपामशुपामशु रे १०१ ७३ सद्गुरु आत्म चेष्टा ४ अहो !चैतन्य चेष्टा गुरुजननी १०२ ७४ महामोहनीय ३० स्थानक ३७ निर्मोही पद साधवा १०३ ७५ प्रतिक्रमण पद ५ चेतन निरपक्ष निजवर्तन १०७ ७६ निज कर्त्तव्य पद६ चेतनजी ! तू तारूं संभाल १०७ ७७ कीर्तिपद ५ चेतनजी सूराचो तन नाम १०८ ७८ आत्म निन्दा ५ मुझ सम कोण अधम महापापी १०८ ७६ शब्द-ज्ञानी ८ शुजाणे व्याकरणी, अनुभव १०६ ८० अजपा प्रतीक- ४ हंसा तुझ समरण मुझ प्यारो ११० ८१ भेद विज्ञान पद ४ , (हिन्दी) ११० ८२ मनोजय मंत्र पद ५ मुझ मा मुझ मा मुझ मा रे १११ ८३ मल विक्षेप अज्ञान ६ मल विक्षेप अज्ञान त्रणेए १११ ८४ चेतवणी पंथिड़ा प्रभु मजी ले दिन चार ११२ ५ मन शिक्षा ४ रे मन मान तूं मेरी बात ११२ ८६ मन साधना पद ७ चेतन मन भूतडुवश कीजे. ११३ ८७ विरह पद ५ अरे रे ! हजु मोत न आवे ११३ - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ रहस्य पद ८ सखी मारे आखु जगत भगवान १४ ८ विरह पद ३ सखि हुं तो अधर रही लटकी ११५ ६० आत्मज्ञान (कच्छीभाषा)४ रे असीं आत्मा औय्यु चौता ११५ ६१ बाबा का तूफान ४ ओ बा ! जो ने बाबा तणु तोफान ११६ १२ तत्त्व रुचि पद ६ माखण पिण्ड जिमाव माई म्हाणे ११६ ६३ स्व-पर विवेक ५ पर द्रव्ये एकत्वता ११६ ६४ अलख बाबा ४ आयो जी मारो अलख बाबोजी ११७ ६५ विचार नो विचार ३ विचार रे विचार तु ११७ ६६ दिव्य सन्देश पद ५ बननार ते तो फरनार नथी ११८ १७ निज सुधारणा ७ तुझ ने तु ही सुधारे ११८ १८ चतन्य लक्षण बालूड़ो अमर तारो रे ११६ ६६ स्व-पर विवेक अंतमुखी लक्ष्य ५ जणाय ने देखाय जे १२० १०० भाव लग्न पद६ हूँ तो अमर बणी सत्संग करी १२० १०१ छप्पय १ नाद करत है साद १२१ १०२ उपजाति छन्द शरीर नो धर्म विशीर्ण जाणी १०३ सुमति झवेर सम्वाद ६ जोयु म्है धर्माचार्य धतींग १२२ १०४ विदेही दशा ४ नाथ कैसे आपो आप मिटायो १२३ १०५ स्वदेश-पद ४ मूक ने खटपट सघली शाणा १२३ १०६ चेतवणी (कच्छी) ५ अये कित सुत्तोतुटंगु पसरवी १२४ १०७ मनोनिग्रह पद कण्ट्रोलर कर निज मन कण्ट्रोल १२५ १०८ अध्यात्म शिल्पी सम्बोधन ४ ओ शिल्पी आत्म कला १२५ १०६ पद-पद ७ चेतनशा पद ने तुरहाय ? १२६ ३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० चेतावनी पद कहेशे अन्ते रोई रे १२५ १११ चेतावनी जाग जाग रे प्रमादि १२७ ११२ आत्म परिचय ५ नाम सहजानन्द मेरो १२७ ११३ उपदेश पद ५ आ पंच विषय विक्षेप १२७ ११४ आत्मा-पद ४ ए थाय न कदी बिमार १२८ ११५ अपने को भजो भज मन सहजानन्द स्व-शक्ति १२६ ११६ सद्गुरु सत्संग साधक कर सद्गुरु सत्संग १२६ ११७ शरीर पद ४ आ वात पित्त कफ मल १२६ ११८ संसार मार्ग पद अम थयु पतन थयु तारुं पतन १३० ११६ उपशम श्रेणिए विघ्न ५ मारग मां लूटे पांच जणी १३१ १२० मोक्ष-मार्ग पद भव्य करो जतन, भव्य करो जतन . १३१ १२१ कषायाधीनता पद अरे ! चारे कषाई अज तफड़ावे १३२ १२२ कषाय विजय पद ५ अहो ! अज कषाई चारे पटके १३२ १२३ ज्ञान चेतना मस्ती भयो मेरो मनुआँ बेपरवाह १३३ १२४ निजानुभूति वो जय जयकार ओ दीन बंधु १३४ १२५ निज दोष बंधन जे जे इच्छेनु पूर्व १३४ १२६ ब्रह्मचारीजी के प्रश्नों के उत्तर एककाय बे रूप थई १३५ माल बोकड़ो खाय ने १२७ प्रेरणा व भावना ४ ज्यों बंध स्पश न जल कमल में १३६ शुद्धता विचारे घ्यावे, नट नर्सवत् , प्रिय सत्संगी दर्शन ज्ञान रमण इकतान, आपज दुखी आपथी १३७ १२८ आर्या छन्द १ भीषण नरक गति मां १३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ लोकनालि दशन २१ न जड़-मान मतार्थिता १३८-३६ १३० शब्द-ज्ञानी (नं०७४ का हिन्दी) अनुभव क्या जाणे व्याकरणी. १४० १३१ विरह की सार्थकता ७ चर अचर मिल है देहधारी १४० १३२ आत्म स्वरूप ७,२, २, मुझ निर्मम सम घर हुँ १४२ १३३ भेद विज्ञान ४ /भिन्न छु सवथी सर्व प्रकारे १४३ १३४ ,, हिन्दी ४ भिन्न हुं सबसे सबही प्रकारे १४३ १३५ श्रद्धा रहस्य-- ५ समझो श्रद्धा प्रयोग प्रक्रिया १४४ १३६ अनंतानुबंधी कषाय स्वरूप ६ जो जो उभासामे भटा १४४ १३७ अप्रत्याख्यानी कषाय स्वरूप ५ अविरति क्षोभ जमावे १४५ १३८ प्रत्याख्यानी , ४ जीतो ठग प्रत्याख्यान ने १४६ १३६ संज्वलन कषाय ,, ५ साधो भाई अप्रमत्त पद लीजे १४७ १४० बिरह ५ लागी मोहे पियु मिलन की चटकी १४७ १४१ , ४ मेरे घट सुलगी होरी १४८ १४२ असली नशा ४ सद्गुरु भंग पिलाई १४६ १४३ सच्चे भक्त ४ सच्चे भक्त न हो मन चोर १४६ १४४ प्रेरणा ४ क्यों चोरो प्रभुको देकर मन १५० १४५ सत्संग रंग ३ साचो सत्संग रंग द्वंद्व जंगजीते १५० १४६ मंगल वाक्यो ५ विद्या भण्यो टली नहीं अविद्या १४५ १४७ साधकीय त्रण दोष १० बिशुद्ध आतम ध्यान १५२ १४- मूल भूल ४ जीवड़ो पोते पोतानी भूले १५२ १४६ मनना १८ विघ्नो ५ दोषो अढार कहुँ सांभलोरे १५३ ४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सम्यक्त्वना ५ लक्षणो ५ आत्म दशा पांच चिन्ह १५३ १५१ अमीवर्षा (नूतन वर्षाभिनंदन) २ वर्षों प्रभु अमीवर्षासदा १५४ १५२ उपदेश ५ रे जीव तू भूमा मत १५४ १५३ चार अवस्थाएं ५ अवधू तुर्या अवस्था तेरी १५५ १५४ शीलोपदेश ४ परा भक्ति पढ़ो सुमति ! १५५ एकविंशतिदल कमल बद्ध शम दम खम गम अमम १५५ द्वाविंशति दल कमलबद्ध जिनचरनन नत नयन मन १५५ १५५ ज्ञानमीमांसा के दोहे १५ केवल परव्यवसाय जहं १५६ १५६ शीलोपदेश ५ सतीयाँ रहो दृढ़ शील प्रवास १५७ १५७ , ५ रे सति तज नर पशु जन संग १५८ १५८ महेश २ मानव जो भजे जिनन्द्र महेश १५६ १५६ प्रार्थना ३ चंचल चित चिहुंदिश भटकत है १५६ १६० योगदृष्टिसमुच्चय तृण तेज सम भा खेदक्षय १५६ १६१ प्रेरणा जिया तू दिया जला दिल का १६० १६२ सत्संगप्रेरणाअवंचकत्रयीप्रतिदिन नियमित सत्संगकरो १६० १६३ मन पंछी पद चंचल मन पंछी चुप रहो १६० १६४ निज चेतावनी पद ४ जीया तु चेत सके तो चेत १६१ १६५ सात्विक आहारदान विधि नमोस्तु २ तिष्ठो तिष्ठो १६१ १६६ स्याद्वाद वैशिष्टय , हंसा रूठ गये तुम कैसे १६२ १६७ धूप दशमी रहस्य ६ मैं उजवुधूप दशमी ब्रत चंग १६३ १६८ नूतन वर्षाभिनंदन ६ चेतन तुम्हें सदा हो १६४ १६६ प्रेरणा पद ६ ला दिखादे अपने वहीवट की बही १६४ ४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० होली पद ४ प्रिय संग खेलू मैं होली १६५ १७१ प्रेरणा १ देह दुर्लभ नर की नर तुझको मिली १६६ १७२ जिनवाणी स्तुति अनन्त २ भाव भेद से भरी जो भली १६६ १७३ मंगल दीपक रहस्य ३ जगमग जगमग जगमग हीया १६७. १७४ नूतन दम्पति ने मंगल आशीस ५ भोग शरीर संसार १६७ १७५ प्रेरणा ५ हारे शुद्ध प्रेमी सत्संगी सहु आवजोराज १६८ १७६ सांवत्सरिक खामणा खमा सर्व जीवो ने १६८ १७७ महासती महिमा जगमाता मैने देखी अद्भुतमूरति १६६ १७८ धर्म माता धनबाई धन धन धर्म माता धनबाई १७० १७६ अलख बाबा देख्यो री मैने अलख बाबोजी ऐसो १७० १८० अनुपम बाग आये हम अनुपम बाग कुटीर १७१ १८१ प्रेरणा ४ अयेंकित सुत्तो टंगु पसारी १७१ १८२ खामणा थया अमें खमी खमावी निशंक १७ १८३ नव दम्पति को आशीर्वाद भोग शरीर संसार यह १७२ १८४-१६१ श्रीजिनरत्न सूरि गुरु स्तुति-गहूंली (८) १७३-१७६ १९२ दादाजी ने प्रार्थना दादाजी जिनचंद्रसूरि १८० १६३ समजसार १२२-५० पूर्ण ब्रह्म शुद्धातमा १८०-१६६ १६४ ज्ञान-मीमांसा १७ परम गुरु पदकज नमू १६६-२०५ १६५ परमात्म-प्रकाश सिद्ध बुद्ध परिमुक्त जे २०६-१२ १६६ समाधिमाला आत्मा आत्म पणे अने २१२-२२ १६७ नियमसार रहस्य ॐ सहजात्म स्वरूप प्रभु २२२-४४ ४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्रक पंक्ति शुद्ध बखाण सद्दहे जिनेश्वर पामे अशुद्ध वरवाण सछहे जिनेश्चर परमे शुदे वीजिन शिल्य लल्लंघवी श्रणे वीरजिन शिष्य उल्लंघवी थुणे १-८-७३ १-८-६३ दयालु दथालु ३३४ गुरुराज हच्छा अशा अतन्त रामचन्द्र अहो गुरुराज इच्छा (अधिक है) अनन्त राजचन्द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 3 समर्शिता निपेक्ष U aur r or १०६ १११ e nomom x x x mmsm मवो वा चाकरणी खजन खया ध्यान अप्रिह ध्याख्यानी ११३ समदर्शिता निरपेक्ष भवो वर्ण व्याकरणी स्वजन खाय ध्यान न अप्रिय व्याख्यानी धर्म थाय जाणों चेतन ११४ १४३ १६६ . धाय जणो. चेतत पूरक कर्न रकपू मविष्य रही जनाकर भविमां m भविष्य (अधिक है) जलाकर भाविमा e Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजानन्द सुधा भाग-१ सहजानन्द पदावली चैत्य-चन्दन-चौघीसी सं० २००४ चैत्री विक्रम मोकलसर गुफा ऋषभ चै०१ सिद्ध-ऋद्ध प्रगटाववा, प्रणमुं आदि-जिणंद ; अशुद्ध योगो त्रय तजी, प्रशस्त-राग अमंद...१ केवल अद्यातम थकी, तप जप किरिया सर्व ; भवोपाधि भूम नवि टले, वधे शुष्कता गर्व...२ कारण-कर्तारोप थी, पराभक्ति प्रगटाय ; दोष टले दृष्टि खुले, सहजानंदघन थाय...३ भजित चै०२ अमित शत्रु-गण जीतवा, अजितनाथ प्रतीत ; विलोकुं तुझ पथ प्रश्नो! यूथ-भूष्ट मृग-रीत...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंध परंपर चर्म-ग, आगम तर्क विचार ; तजी भाव-योगी भजत, प्रगट बोध निरधार...२ तीर्थकर ने संत मां, ध्येये भेद न कोय ; सत्पुरुषार्थ सेवतां, सहजानंदघन होय ..३ संभव चैः३. स्व-स्वरूप प्रगटाववा, से, संभष देव ; सतत रोमांचित थिर-मने, सत्पुरुषारथ टेव...१ सदा सुसंताधीन करी, कार्य देह-मन-वाक् ; सेवन थी सहेजे सधे, भवस्थिति नो परिपाक . २ ध्येये ध्यान एकत्त्वता, बीजी आश निराश ; असंभव रही संभवे, सहजानंदघन वास...३ अभिनन्दन चै. लहुं केम स्याद्वाद मय, अनेकान्त शिव-शर्म ; - स्वानुभूति कारण परम, अभिनंदन तुझ धर्म...१ नय-आगम-मत-हेतु-विख,-वाद थकी नवि गम्य; अनुभव संत-हृदय वसे, तास सुवास सुगम्य...२ असंत-निश्रा भान्तिदा, टाली सकल स्वच्छंद ; संत कृपाए पामिए, सहजानंदघन कंद...३ मुमति चै०५ . आतम अर्पणता करूं सुमति चरण अविकार ; .. वामादिक गुरु-अर्पणा धर्म-मूढता धार...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय नोइन्द्रिय थकी, पर-उपयोग प्रसार ; प्रत्याहारी स्थिर करो, संत स्वरूप विचार...२ आत्मार्पण सदुपाय छ, सहजानंदघन पक्ष ; सहज-आत्म स्वरूपए, परमगुरु थी प्रत्यक्ष ..३ पद्मप्रभ चै०६ सत्ताए सम ते छतां, तुझ-मुझ अंतर केम ; अहो पद्मप्रभु! कहो, रहेजे समजुं तेम...१ व्यतिरेक-कारण गही, तूं भूल्यो निज भान ; अन्वय-कारण सेवतां, प्रकटे सहज निधान...२ अन्वय-हेतु ज्यां प्रगट, ते संताधिन सेव ; अनहद ज्योति जगमगे, सहजानंदघन देव...३ सुपार्श्व चै०७ सहज सुखी नी सेवना, अवर सेव दुख हेत; घन-नामी सत्ता अहो! सुपारस संकेत...१ पारस मणिना फरस थी, लोहा कंचन होय पण पारसता नहिं लहे, संत मणि न सम दोय...२ सुपारस प्रभु सेव थी, सेवक सेव्य समान ; अनुभव गम्य करी लहो, सहजानंदघन थान...३ चन्द्रप्रभ चै०८ सुण अलि शुद्ध चेतने ! चन्द्र-वदन जिन-चन्द्र; तुं सेवे सर्वागता, निशि-दिन सौख्य अमंद...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल अनादिय मूढ-मति, पर-परिणति-रतिलीन; संत-प्रभुनी सेवना न लही सुदृष्टि-हीन...२ सखि ! कृपा करी प्रभु तणा, कराव दर्शन आज ; योगावंचक करणी ए, सहजानंदघन राज...३ सुविधि चै०६ उभय शुचि भावे भजी, पूजत सुविधि जिनेश ; प्रसन्न चित्त आणा सहित स्व-स्वरूप प्रवेश १ अंग अन ए निमित्त छ, उपादान छे भाव ; प्रतिपत्ति-पूजा तिहां, प्रगटे . शुद्ध स्वभाव २ शुद्ध स्वभावी संतनी, सेव थकी लही मर्म ; स्वरूप सेवन थी लहो, सहजानंदघन धर्म"३ शीतल चैः १० . भासे विरोधाभास पण, अविरोधी गुण-वृन्द ; शीतल हृदये ध्यावतां, नाशे भव भूम फंद.१ स्वरूप रक्षण कारणे, कोमल तीक्षण भाव ; उदासीन पर-द्रव्य थी, रहिमे आप स्वभाव...२ स्वानुभूति अभ्यास ना, अनन्य कारण संत ; सहजानंदघन प्रभु भजी, करो भवोदधि अंत..३ श्रेयांस चै० ११ भाव अध्यातम पथमयी, श्रेयांस सेवा धार ; हठ योगादिक परिहरी, सहज भक्ति-पथ सार...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह-आत्म-क्रिया उभय, भिन्न म्यान असि जेम ; जड़ किरिया अभिमान तज, संवर किरिया प्रेम ..२ ज्ञानादि गुण वृन्द पिण्ड, सोहं अजपा जाप ; संत कृपा थी पामिए, सहजानंदघन आप...३ वासुपूज्य चै० १२ घासुपूज्य-जिन सेवना, ज्ञान-करम फल काज ; करम करम-फल-नाशिनी, सेवो भवोदधि पाज...१ निज पर शुद्धि कारणे, भजिए भेद विज्ञान ; निज-निज परिणति परिणम्ये, प्रगटे केवलज्ञान...२ स्वरूपाचरणी संत छे, भावलिंग विश्राम ; भेदज्ञान पुरुषार्थ अ, सहजानंदघन ठाम"३ विमल चै०१३ झगमग ज्योति विमल प्रभु, चढी अलोके आज ; हृदय-नयण निरख्या अहो ! भाग्यो विरह समाज...१ दिव्य-ध्वनि अनहद सुणी, अति नाचत मन मोर; सुधा-वृष्टि पाने छक्यो, करत पपैयो शोर...२ उछलत सुख सायर तरल, लीन थयो मन-मीन, संत-कृपा सहजे सध्यो, सहजानंदघन पीन"३ अनन्त चै० १४ अनंत चारित्र-सेवना, आत्म वीर्य-थिर रूप , टके न ज्यां सुरराय के, भेखधारी नट-भूप"१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत-मठधारी लिंगिया, तप जप खप एकान्त , गच्छधर जैनाभास पण, पर रंगी चित्त-भान्त...२ टक्या सन्त कोई शूरमा, तास सेव धरी नेह ; अनेकान्त एकान्त थी, सहजानंदघन रेह "३ धर्मनाथ चै० १५ धर्म-मर्म जिनधर्म नो, विशुद्ध द्रव्य स्वभाव ; स्वानुभूति वण साधना, सकल अशुद्ध विभाव' १ तप जप संयम खप थकी, कोटि जन्मो जाय ; ज्ञानांजन अंजित नयन, वण नवि ते परखाय...२ दिव्य नयन धर सन्तनी, कृपा लहे जो कोइ ; तो सहेजे कारज सधे, सहजानंदघन सोई...३ शान्तिनाथ वै० १६ सेवो शान्ति जिणंद भवि, शान्त सुधारस धाम; अवर रसे आधीन जे, तेथी सरे न काम...१ शान्तभाव वण ना लहे, शुद्ध स्वरूप निवास ; लवण-महासागर जले, कदी न बूझे प्यास...२ तेथी शांति-स्वरूप नो, सतत करो अभ्यास ; सहजानंदधन उल्लसे, सन्ताश्रयणे खास ३ कुन्थु-चै० १७ कुंथु-प्रभु ! मुझने कहो, मन वश करण उपाय ; जे वण शुभ करणी सही, तुस-खंडन सम थाय १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजपा जाप आहार दई, सास दोरड़े बांध : . निश दिन सोवत जागते, एज लक्षने सांध२ अथवा संताधीन था, अवर न कोई इलाज ; गुरुगम सेवत पामिए, सहजानंदघन राज..३ अरनाथ चै० १८ उभय नय अभ्यासी ने, द्रव्य-दृष्टि धरी लक्ष ; तदनुकूल पर्यय करी, भर-प्रभु धर्म प्रत्यक्ष १ भेद-दृष्टि व्यवहारी ने, थइ अभेद निज द्रव्य ; निर्विकल्प उपयोग थी, परमधर्म लहो भव्य २ परम धर्म छे ज्यां प्रगट, सद्गुरु संत नी सेव ; सहजानंदघन पामवा, पुष्टालंबन देव...३ मल्लिनाथ चै० १६ घाती-घातक मल्लि-जिन, दोष अढार विहीन ; अवर सदोषी परिहरी, थाओ जिन-गुण लीन १ जिन-गुण निज-गुण एकता, जिनोव्ये निज-सेव; प्रगट गुणी सेवन थकी, प्रगटे आतम देव.२ दोषी अदोषी परखिए, संताश्रय धरी नेह ; तो सहेजे निपजाविओ, सहजानंदघन गेह...३ मुनिसुव्रत चै०२० आतम धर्म जणाय छे, मुनिसुव्रत जिन ध्याइ ; बीजा मत दर्शन घणा, पण त्यां तत्त्व न भाइ...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्संगी रंगी थई, धरिये आतम-ध्यान ; सत्-श्रद्धा लयलीन थई, तो प्रगटे सद्-ज्ञान "२ दृग-ज्ञाने निज रूप मां, रमतो आप्तम राम ; रनयी नी एकता, सहजानंदघन स्वाम ३ नमि जिन चै० २१ कुल धर्म नास्तिक थई, सत् समझ अनेकान्त ; चिद्-जड़-सत्ता नियत छ, सांख्य-योग सिद्धांत १ अथिर-पर्यय द्रव्य-थिर, नियत सुगत-वेदान्त ; लोक-प्रपंच तजी भजो, अलोक आत्म अभान्त: २ नमि जिनवर उत्तमांग मां, षट् दर्शन पद-द्रव्य ; गुरु गम थी आस्तिक बने, सहजानंदघन भव्य ३ नेमिनाथ चै० २२ वीतरागता पामवा, नेमि-चरण सुविचार ; राग ऋणे-जाने चढ्या, पछी चव्या गिरनार...१ एक बार रागे बंध्या, छूटे विरला कोय ; माटे राग न कीजिए, वीतराग वण लोय २ काम-स्नेह-हग-राग-क्षय, भगवद-भक्ति पसाय ; ___ सहजानंदघन दम्पति, सति-पति प्रणमुं पाय...३ पार्श्वनाथ चै० २३ चेतन चेतना फर्सतां, पूर्ण ध्रव तद्रप ; चिद्घन मूर्ति पार्श्व-प्रभु, केवलज्ञान स्वरूप...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतज्ञान सवज्ञता, ते सर्वावधि ज्ञान ; तदतिक्रान्त केवल दशा, ए परमार्थ विज्ञान"२ ए केवल अवलंबने, प्रगटे स्वरूप ज्ञान ; संत कृपाए विरल ने, सहजानंदघन भान...३ वीरप्रभु चै० २४ आत्म प्रदेश ने स्थिर करे, ते अभिसंधि-वीर्य ; कषाय वश थी वीर्य ते, अनभि संधि अस्थैर्य...१ अभिसंधि बल फोरव्ये, वीर पणुं मन-मौन ; उदय अव्यापकतन-वचन, क्रिया थाय ज्यांगौण...२ साढा बार वरस लगी, वीर पणे विचरंत ; वंदुं श्रीमहावीर ने, सहजानंदघन संत...३ कलश निज अलख गुण लखवा भणी, धरी लक्ष तजी सहु पक्षने ; गिरिकन्दरा मोकल चोमासे, साधवा मन अक्ष ने; आनंदघन चौवीसी' लक्षे, चैत्यवंदन ए स्तव्या; गति-नभ-ख-बंधन (२००४) विक्रमे, शुद्ध सहजानंदघन पद ठव्या ? १-आनंदघनजी की चौवीसी पर्याप्त प्रसिद्ध और भावपूर्ण रचना है। उसके योग्य चैत्यवन्दनों की कमी अनुभव कर आपने उन्हीं भावों को लेकर यह चैत्यवन्दन चौवीस गुम्फित की है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) वर्तमान चतुर्विशति जिन स्तुतयः ॐ ता० २४-११-६० ऋषभ जिन स्तुति १ प्रीति अनुष्ठाने प्रेम ऋषभ-पद जोड़ी; प्रभु-छबि चित्त झलक्ये पराभक्ति पथ दोड़ी ; प्रभु आज्ञा तत्पर दृष्टिमोह गढ़ तोड़ी ; जीत-क्षोभ असंगे सहजानंद रंग रोली...१ अजित जिन स्तुति २ दिशिपूर्व अजीत-पथ चित्प्रकाश-उद्योत ; ग्-दृश्य विछोड़ी जोड़ी द्रष्टा-पोत ; जगी अन्तः ज्योति त्यां दृष्टि-अंधता-मोत ; लगी ज्ञान निष्टा ज्यां सहजानंदघन स्रोत...२ संभव जिन स्तुति ३ परिग्रह-मूर्छा त्यां भय वली दंभाचार ; संताज्ञा-अवज्ञा सन्मारग तिरस्कार ; टले अपात्रता ए अनंत-कषाय प्रकार ; संभव-प्रभु शरणे सहजानंदघन सार...३ चैत्यवन्दन के बाद स्तवन और अन्त में स्तुति बोली जाती है । अतः चौवीस जिन के चैत्यवन्दनों की रचना के बाद उस क्रम की पूर्ति रूप में यह स्तुति चौवीसी रची गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंदन स्तुति ४ थई संत-कृपा ज्यां अभिनंदन-श्रुति-धोध ; जागे सुमति त्यां प्रगटे चिद्-जड़-बोध ; ध्येय-ध्यान एकता रूप ध्याति अविरोध ; खुले दृष्टि दर्शन सहजानंदधन शोध...४ सुमति जिन स्तुति ५ ज्ञायक सत्ता हूँ सुमति-प्रभु-पद-बीज ; अर्पित उपयोगे अंतरात्म-रस-रीझ ; छूटे जड़-सत्ता-मोह रीझ में खीज ; बीज-वृक्ष न्यायवत् सहजानंदधन सीझ...५ पद्मप्रभ जिन स्तुति ६ संग युजन करणे चित्-प्रकाश-त्रिकर्म ; गुण करणे शमावी ज्योति-ज्योत स्वधर्म ; जल-पंकथी न्यारा पद्मप्रभु गत भर्म ; निज-जिन पद एकज सहजानंदघन मम...६ सुपार्श्व जिन स्तुति ७ नभ-रूप-विविधता ज्यां लगी पर्यय-दृष्टि ; पण द्रव्य दृष्टिए अक अखंड समष्टि ; प्रभुता अवलंब्ये प्रगटे निज गुण सृष्टि ; सुपार्श्व शरण थी सहजानंदधन वृष्टि ; चंद्रप्रभ जिन स्तुति ८ सत्संग सुपात्रे योग-अवंचक नेक ; स्वरूपानुसन्धाने क्रिया अवंचक टेक ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह-क्षोभ विनाशे अवंचक फल एक ; प्रभु-चंद्र प्रकाशे सहजानंद विवेक...८ सुविधिजिन स्तुति ६ जिन-मंदिर-तन मंदिर अनुभव-संकेत ; अनहद अमृत रस ज्योति आदि समवेत ; अष्ट द्रव्य मिसे जे अनुभव-क्रम अभिप्रेत ; सुविधि-प्रभु पूजत सहजानंधन लेत...६ शीतलजिन स्तुति १० नय भंग निक्षेपे करीअ तत्त्व विचार ; त्यां अस्ति नास्ति अवक्तव्य आदि प्रकार ; अविरोध सिद्धि ए स्याद्वाद-चमत्कार; शीतल - सिद्धान्ते सहजानंदघन सार...१० श्रेयांसजिन स्तुति ११ कत्तु त्वाभिमाने कर्म शुभाशुभ • बन्ध ; सधे ज्ञप्ति क्रिया थी बोधी-समाधि अबन्ध ; कर्ता न कदापि चेतन पर जड़-धंध ; श्रेयांस-बोध ए सहजानंद सुगंध...११ वासुपूज्यजिन स्तुति १२ कर्ता पद-सिद्धि व्याप्य-व्यापक न्याये ; तत्स्वरूप न जुदा कर्ता-कर्म-क्रियाए ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणति परिणामी परिणाम एक ध्याये ; सहजानंद रस प्रभु वासुपूज्य गुण न्हाये. . .१२ विमलजिन स्तुति १३ सजीवन मूर्ति करी माथे समर्थ नाथ ; पछी शत्रु दल थी करीले बाथम्बाथ ; प्रभु विमल कृपाथी विजय लक्ष्मी करि हाथ ; त्यां सहजानंदघन थाय त्रिलोकीनाथ...१३ . अनंतजिन स्तुति १४ करी विविध क्रिया ज्यां आश्रव बंध प्रकार ; तोय माने हुं साधु समिति-गुप्ति प्रत धार ; निज लक्ष-प्रतीति-स्थिरता नहिं तिल भार ; केम पामे अनंतप्रभु ! सहजानंद पद सार...१४ धर्मजिन स्तुति १५ दृग-स्नेह-काम वश दूषित प्रेम-प्रवाह ; प्रत्याहारी प्रभु धर्म-पदे शुद्ध राह ; चित्त कमले ध्यावो प्रभु छबि धरि उत्साह ; खुले परम खजानो सहजानंद अथाह.. १५ शान्तिजिन स्तुति १६ परिस्थिति वश जे-जे उठे चित्त-तरंग; ते भिन्न तुं भिन्न अतः क्षुभित न हो अन्तरंग ; ठरो शान्त रसे तो प्रगटे अनुभव-गंग ; प्रभु शान्ति पसाये सहजानंद अभंग...१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्थुजिन स्तुति १७ अररर ! भूम-भूम !! छी !!! जड़ मन नो शो दोष ? चेतन निज भूले करे रोष न तोष ; शुद्ध भाव रमे जो मन-विलीन निज-कोष ; प्रभु कुन्थु कृपाथी सहजानंद-रस पोष...१७ श्री अरजिन स्तुति १८ सम् अयति-द्रव्य सौ अने चेतन निरधार ; चित्त त्रिविध कर्म स्थित ते पर समय विकार ; ज्ञायक सत्ता स्थिति चेतन स्वसमय सार ; अर धर्म-मर्म अ सहजानंद अविकार...१८ श्रीमल्लिजिन स्तुति १६ चिद्-जड़ अभान त्यां सुषुप्त-चेतन अंध ; . केवल जड़ भाने स्वप्न सृष्टि सम्बन्ध ; निज-पर विज्ञाने जाग्रत भेदक संघ ; प्रभु मल्लि उजागर केवल ज्ञानानंद...१६ मुनिसुव्रत स्तुति २० भिन्न-भिन्न मत दर्शन अक-अक नयवाद ; निरपेक्ष दृष्टिए वध्यो धर्म विषवाद ; टाले मुनिसुव्रत समन्वय स्याद्वाद; . सापेक्ष दृष्टिए सहजानंद रस-स्वाद...२० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिनाथ जिन स्तुति २१ नमिनाथ प्रभु-पद सोख्य-योग बे ख्यात ; वली बौद्ध-वेदान्ती कर स्थाने करे बात ; निज प्रतीति पूर्व चार्वाक् हृदय उत्पात ; शिर जैन प्रतापे सहजानंद सुहात...२१ नेमिजिन स्तुति २२ रागी रीझे पण केम रीझे बीतराग ? एकांगी निष्प्रभ विनशे साधक-राग ; नेमनाथ आलंबी राजुल थाय विराग ; नमुं सहजानंदघन ते दम्पति महाभाग...२२ १ पार्श्वजिन स्तुति २३ षड् गुण-हानि वृद्धि प्रति द्रव्य मां थाय ; तोय न्यूनाधिक ना अगुरुलघु गुण म्हाय ; छे नित्य द्रव्य पण ज्ञेय निष्टा दुख दाय ; प्रभु-पाव-निष्ठा तोय सहजानंद उपाय...२३ श्रीवीरजिन स्तुति २४ दर्शन ज्ञानादिक जे-जे गुण चिद्र प ; प्रतिगुण-प्रवर्तना वीर्य स्हायक रूप ; तजी पर-परिणति सौ गुण शमाव्या स्वरूप ; नमुं सहजानंद प्रभु महावीर जिन भूप...२४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर स्वामी छः कल्याणक चैत्यवन्दन वीर जिनेश्वर वांदी ने, आणी हृदय उल्लास । तारू कल्याणक ध्यावतां, करिये कर्म नो नाश ॥१॥ सुर आयु पूरण करी, आव्या ब्राह्मणी कूख । इन्द्र अछरूं जोइने, आण्यु मन मां दुःख ॥२॥ श्रेय जाणी प्रभु वीरनु, त्रिशला उदर मझार । ठविया हरण गमेषीए, बीजु कल्याणक सार ॥३॥ जन्म दीक्षा केवल इमे, उत्तराफाल्गुनी जाण। पंच कल्याणक ए हुवा, छट्ठो स्वाति वरकाण ॥४॥ छः कल्याणक वीरना, भाख्यां सूत्र मझार । सेवे सछहे जे भवि, रत्नत्रयी लहे सार ॥५॥ श्री महावीर जिन स्तुति श्री मद्वीर जिनेश्चर मुझ भणी, सेवा फलो ताहरी। षट् कल्याणक ताहरा श्रुत सुणी भांति टली माहरी ॥ जे निंदे अकल्याणक भूत तुझनो, उत्सूत्र भाषी सदा। ते दण्डे निज आत्म निंदक जतो, पामे न बोधि कदा ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) ऋषमदेव स्तवन देवतत्त्व सामान्य पद २०-१०-६६ विजयादशमी देवाधिदेव पद एक, ऋषभ प्रभु तुझ मां घटे छे... विश्वमा धर्मों अनेक, भिन्न भिन्न नामे रटे छे विष्णु अवतार तुं आठमो ए, भागवत ग्रंथ आख्यान• • ऋषभ प्रभु शंकरे तुझ रूपे अवतार धरयो, शिव संहिताए ब्यान...ऋषभ० १ रत्नत्रयी त्रिशूले संहार्यो, अज्ञान अंधकासुर... ऋषभ० खंभे तारे लटके अलकावलि, जटाधारी तपशूर · ऋषभ०२ निर्वाण दिन एज महाशिवरात्रि, तूं सत् चित् आनंदी.. ऋषभ० अष्टापद कैलाश वासी तुंज, चरणे सन्मुख रहे नंदी...ऋषभ०३ विष्णु नाभीए ब्रह्मा थइ प्रगट्यो, ते तूं नाभिराय नंद • ऋषभ० समवशरण उपदेश चतुर्मुख, पिता तुं सरस्वती पंड...ऋषभ० ४ बाबा आदम ते तुंज आदिनाथ, मान्य इस्लामी धर्म...ऋषभ० कान दाबी बाहुबलिए पोकार्यो, बाँग विधिए मर्म...ऋषभ०५ आदि बुद्ध तुं आदि तीर्थंकर, आदि नरेश समाज...ऋषभ० आद्य संस्कृति नो तूं पुरष्कर्ता, सहजानंद पद राज...ऋषभ० ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) ऋषदेभव तप स्तवन अंतराय क्षय कारण विचरे, ऋषभदेव भगवान । राज समाज तजी व्रत धारी, सजी ने साध्य निशान ॥ निज साध्ये तन्मयता व्यापे, चार ज्ञान पण बोध न आपे। स्वजन शिष्य गण ममत तजी ने, बोले नहीं मुख वाण ॥ अं०॥शा यथा समय नित गोचरी जावे, अंतराय उदये नहिं पावे । रात दिवस रहे काउसग्ग मुद्रा, भूली जड़ तन भान ॥अं०॥२॥ हाथी घोड़ा मिल्कत सारी, कोई आपे निज प्रिय सुकुमारी। पण आहार न आपे जनता, दान विधान अजाण ॥अं०॥३॥ अणाहारी निज पद निश्चय थी, रहे अडोल क्षुधा परिषह थी। उदये अणव्यापकता साधी, धन्य मुनीश महान् ॥ अं०॥४॥ वर्ष उपर कइ दिन बीते ज्यां, आहार विघन दल क्षीणथयुं त्यां। अक्षयतृतीया पर्व मिले प्रभु, आव्या गजपुर स्थान ॥ अं०॥५॥ देखत प्रभु रोम रोम उल्लासे, जातिस्मरण लाधुं कुंवर श्रेयांसे । गतभव साध्वाचार स्मरी ने, जाण्युं दान विधान ॥ अं०॥६॥ नमि विनवी प्रभु घर पधरावे, अदूषण इक्षुरस वहोरावे। प्रगट्या पंच दिव्य जन हरख्या, महिमा ए प्रभु दान ॥अं०॥४॥ प्रभु साधकता मर्म लहीजे, इच्छारोधन तप एम कीजे । कर्म दही तप अनले लीजे, सहजानन्द निधान ॥ अं०॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) सिद्धक्षेत्र श्री कैलाश-अष्टापद चलो हँस ! अष्टापद कैलाश, कर्म आठ हो नाश...चलो० ऋषभ प्रभु निर्वाण-भूमि यही, हिम छायो चौ पास ; सगर गंग नाले शुचि होकर, भव परिक्रमा खलास...चलो० १ पश्चिम दिशि नभ-मग चढ श्रेणि, आठ तला क्रम जास; सप्तम तल गढ फाटक हो चढ, पैड़ी आठ उल्लास...चलो० २ अष्टम तल सब चौदह मंदिर, मध्य श्री ऋषभ आवास ; रत्न बिंब मणि मंडित मंदिर, अद्भुत दिव्य प्रकाश...चलो० ३ द्वार खड़े गजराज दुतर्फा, तरु एक प्रांगण तास ; मंदिर चार विदिशि उत्तर दिशि, आठ एक पैड़ी पास.. चलो०४ सप्तम तल उत्तर दिशि दश मिल वर्तमान जिन वास; चत्वारि अट्ठ दस दोय मंदिर, अनुभव क्रम यही खास...चलो०५ सप्तम पूरब दक्षिण श्रेणी, चौबीस चौकोर प्रास ; पूर्व अतीत अनागत दक्षिण, दो चौवीसी दुपास...चलो०६ जिनालय बहत्तर अरु मुनि, निर्वाण-स्तूप सुनिवास ; पराभक्ति सह वन्दत पूजत, सहजानंद विलास...चलो०७ ता० ७-५-६० ___ * ३ रल बिंब चरण चिन्ह मंडित, सिंहनिसादी खास। १६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) श्री ऋषभ जिन स्तवन (राग - आशावरी ) ऋषभजी अब मोहे पार उतारो, म्हें रुल्यो गति चारो ॥ ऋ० ॥ कनकोपल वत् वसी निगोदे, काल अनन्त गमायो । जाति पंचेन्द्री इग विगले, भ्रमण करी दुख पायो ॥०॥१॥ काम क्रोधादिक वश पड़ी ने, राग द्वेष बहु कीनो । पुण्योदय तुझ दर्शन ही ने, बंधाश्रव से व्हीनो ॥ ऋ० ।। २ ।। चारित्रमोह क्षय-उपशमी ने पंच महाव्रत धार्यो । 1 आशीष मुक्त महेर करी ने, जिम निज कारज सार्यो । ऋ० ||३|| नाभिनंदन त्रिजगवन्दन, माता मरुदेवी जाया । सिद्धाचल गिरि कर्म-निकंदन, पूर्व नवाणुं आया ॥ ऋ० ॥ ४ ॥ पूर्वे सिद्धा इणगिरि मुनिवर, तेम भविष्ये जेह | रत्नत्रयी निजातम सुखकर "भद्र" नमें धरी नेह ॥ ऋ०॥ ५ ॥ (७) चन्द्रप्रभ जिन स्तवन राग-धन्याश्री चन्द्रप्रभु ! सुनिये अरज हमारी... सुनिये ... दुख समुदाय सह्यो नहिं जावे, त्रिविध ताप संसारी । मानवता सह दो प्रभु हमको, परा-भक्ति तुम्हारी | माया-मोह - विकल इस मन की, बलि स्वीकारो मोहारि । साहस दो रहूं शरण तुम्हारे, सहजानंद पद चारी ॥ पावागिरि ऊन, ता० २४-७-५८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजुल स्तवन जाओ मा वालमा एक वार आवो मुंज घेर नेमि प्रभु वरसावो महेर जाओ मा वालमा पशुनी दया करी परमकृपालु, मुझ पर वरतावी केर.... . जाओ मा० मानव करत तिर्यच करुणा, जग जन कहेशे अंधेर... जाओ मा० वासना विषमय नारी नागणीयो मुझ मां एवं न झेर... जाओ मा० सत्सु साधक उत्तर साधके, धरसुं दाम्पत्य हर्ष भेर... जाओ मा० थाशो श्रमण तो श्रमणी थईश हुं, आपनी छोडुं न केड़ ...जाओ मा० कर्मों खपावी मुक्त थशो तो, आवीश स्वरूप सहेर जाओ मा० भक्ति पराये राजुल विनवे, मांगें सहजानंद लहेर...जाओ मा (९) पार्श्वनाथ स्तवन ( चाल - हुं उजवुं पर्व दीवाली) www.cam जिन मुद्रा धर पास, तजी पर आश, ऊभा निज ध्याने अहिछत्रा नगर उद्याने... जिनमुद्रा Jain Educationa International ... शत्रु वट दस भवनी धरतो, मेघमाली क्रोधे झलहलतो उपसर्ग करे जल धारे, रही नभ छाने अहिछत्रा० तन्मय निज शुद्ध स्वभाव ढल्या, उपसर्ग नाशाय निमग्न छतां न चल्या रह्या देह विदेही भावे, खड्ग जेम म्याने अहिछत्रा० आसन कंपे अहिपति आवे, ऊचकी फणा छत्र शिरे ठावे, प्रिया युत प्रभु गुण गान करे एक ताने ... अहिछत्रा० वंदक निंदक समभाव अहा, ज्ञाता द्रष्टा शुद्ध भाव महा, उदये अणव्यापक साक्षी रह्या निज भाने अहिछत्रा० द्वे विषम भाव संसार तत्ती, समभाव धरयो स्व स्वरूप अति; कृतकृत्य थया सहजानंद दर्शन ज्ञाने ... अहिछत्रा० ... राग- गरबो ..t For Personal and Private Use Only २१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सहस्रफणा पार्श्वनाथजी का स्तवन (चाल-नागरबेल ओ रोपाव) मैंने सहसफणा प्रभु पास, दर्शन पाया सूरत में। मूर्ति मनहर मंगलवास, दर्शन पाया सूरत में ॥ ( टेक ) शीतल जिनवर प्रासादे, प्रणमुं प्रभु अति आह लादे । भूमिगर्भ में निवास, दर्शन पाया सूरत में ॥ १ ॥ उपसर्ग करे मेघमाली, वरसें वरसा विकराली । निमग्न प्रभु आनास, दर्शन पाया सूरत में ।। २ ।। प्रभु कष्ट निवारण भावे, धरणेन्द्र प्रिया युत आवे । निश्चल ध्याने थिरता तास, दर्शन पाया सूरत में ॥३॥ निज शिर प्रभु पद ठवेवी, वारी स्थिति पद्मादेवी । करे भक्ति चित्त उल्लास, दर्शन पाया सूरत में ॥४॥ अरु सहस्रफणा विकसावें, असुराधिप प्रभु शिर ठावे ।। आतपत्र सुरम्य प्रकास, दर्शन पाया सूरत में ॥५॥ अरे मूढ अकारज कीनो, प्रभु दुखी पातक लीनो । तुझ उपगारी प्रभु पास, दर्शन पाया सूरत में ॥६॥ नागेन्द्र बोधामृत पावे, मेघमाली शीश झुकावे । याचे खामणा प्रभु पास, दर्शन पाया सूरत में ॥७॥ इत्यादि वर्णन सारा, अति अद्भुत दृश्य चितारा । दर्शक देखत ही विश्वास, दर्शन पाया सूरत में ॥८॥ २२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रभु दर्शन पूजन भावे, भवि नर नारी केई आवे । पावे बोधि बीज विकास, दर्शन पाया सूरत में ॥ ६ । अधिष्ठाता परचा पूरे, रोग शोक संकट सब चूरे अक्षय संपत लील विलास, दर्शन पाया सुरत में ॥ १० ॥ जिनरत्नसूरि सुपसाये, मुनि 'भद्र' प्रभु स्तव गावे । थुणते अष्ट कर्म तृण नाश, दर्शन पाया सूरत में ॥। ११ ॥ (११) श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ स्तवन चाल - मेरी अरजी तारो सहस्रफणा प्रभु पार्श्व मने ( २ ) रझली थाक्यो घनघोर संसार वने ( आंकणी ) इग विगल तिरि नर देव नारक, भज्या वेष अनंत मैं ; चोरासी लख चौटा भमी, आस्वाद्यो दुख अनंत में ; जाणो आप सहु मुझ वीतक ने ॥ तारो० ॥ १ ॥ पुण्योदये मानव पणे हुं, अवतर्यो आर्हत् कुले ; मोह जाल मां मुंझाइ ने, बिंधायो हुं संशय शुले ; वांछयो पुद्गल पोष तणा सुख ने || तारो० ॥ २ ॥ छोडी निरंजन देव ने, पूज्या मिथ्यात्वी देव मैं ; चकी चिन्तामणि रत्न हुं, ललचायो कुमत कांच में; मूकी कल्प सेव्या आक बॉवल ने ॥ तारो ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा घणी कीधी प्रभु, वद्यो वदन थी झूठो घणो ; कूड़ आल तो दीधा घणा, कर्यो द्रोह बंधु सुजन तणो ; लीधी वस्तु अदत्त कुटील मने ॥ तारो० ॥ ४ ॥ छोडी स्वरूप निज भाव नो, होंसे रम्यो परभाव ने ; विषधर हलाहल विष समा, विषये वसावी ध्यान ने ; सेव्या क्रोध माया मद मत्सर ने ॥ तारो० ॥५॥ धन कुटुब वैभव आदिमय, तृष्णा जले डूब्यो खरे ; आकाश कुसुम समूह अर्क, सुगंधी सुख सादन परे ; भूली आप दीधा दोषो पर ने ॥ तारो० ॥ ६॥ एहवा अकार्यो मुझ तणा, आलोचु आप कने विभु ; ए कर्म पाश विदारवा, द्यो ज्ञान शक्ति हे प्रभु ; याचे एहीज आप दयाल कने ॥ तारो० ॥ ७ ॥ तजी दोषमय पंचाश्रवो, सजी सर्वविरती ब्रयावली ; "जिनरत्न"-त्रयी अवलंबी ने, प्रगटानिज रत्नावली; "भद्र" भावे वरु अक्षय पद ने ॥ तारो० ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) श्री वीर स्तवन बाल पणे आपण साथी सौ, रम्या आमलकी केली, लोभ फणी मद दैत्य ने पटकी, आप वरया शिव वेली... हो प्रभु जी मुझ रंक ने भव ठेली -१ वालवो'तो आ बाल बीकण पण, मैत्री धरम अनुसारे अकलपेटा मौज उडावौ, छाना जई भव व्हारे... हो प्रभु जी तुम विण मुझ कोण तारे १...२ आप समान करे लक्षाधिप, मांडवगढ सुसाधरमी क्ष यिक नव निधि नाथ तमारे, आपो ने अंश अकरमी... हो प्रभु जी थाऊं सद् दर्शन मर्मी...३ निष्कारण करूणा - रस - सागर, तारक विरुद वडेरो जेवो तेवो पण साथी तमारो, नहिं छोडुं हवे केडो... हो प्रभु जी मुझने झटपट तेड़ो...४ विरह खमाय न पीर तमारो, नयन वहे जल धारा आप मल्या थी आप नी संगे, उजवं हर्ष फुवारा... ___ हो प्रभु जी सहजानंद अपारा...५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) महावीर स्तवन (कच्छी भाषा) राग-भैरवी कच्छी मुंके पण तार्यों तार्यो महावीर, भव धरीये जे तीर.. मुंके पण. भव धरीये में आऊं रझडातो, जन्म मोतजा दुखड़ा दसातो; धिल में जोों आँ अधीर ... मुंके पण० ... १ राग द्वेष भरयो आऊँ पूरो, कूड कपट जंजाल में शूरो; न छड्या मिथ्याती पीर ... मुंके पण० ...२ अंडा दुखड़ा दीशी ने ध्रु जातो, तें जीवां आँ अगिया चांतो तोड्यो भव जंजीर ... मुंके पण ......३ आं जेडो ब्यो देव न सुट्ठो, इत उत रझड़ी कोई न दिट्ठो गुणे अयो गंभीर ... मुंके पण ...... ४ सर्प चंडकोशिए तारयां, के जीवें के आंइ उगार्या अंडा प्रभु शूरवीर ... मुंके पण ......५ वाट वतायो मोक्ष विझेजु, उञ्ज भुख नांय बै कुरेजु आँजो भनायो भजीर ... मुंके पण ......६ खायक समकित आश रखांतो, हत्थ जोडी ने इतरो मंगातो 'भद्र' नमाई शिर ... मुंके पण ......७. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) श्री वीर षट कल्याणक स्तवन ढाल-"हो चंद्वानन जिन !" ए राग तुझ कल्याणक जेह रे, आगम मां थुण्या ; ध्यावं छं धरि नेह, हो वीर जिनेश्वर १ प्राणत कल्प थकी चच्या रे, गोत्र बंधन अनुसार ; ब्राह्मणी कूखे अवतर्या रे, प्रथम कल्याणक सार...हो वीर० २ ब्यासी दिवस बीते थके रे, शक्रन्द्र प्रभु दीठ ; मन विमासण मां पडयु रे, कारण एह अदीठ...हो वीर० ३ ऊँच कुले धरूं एह छे रे, माहरो कुल आचार ; जेह थकी प्रभु वीर नो रे, श्रेय हुवे निरधार.. हो वीर० ४ राणी सिद्धारथ रायनी रे, त्रिशला उदर मझार ; ठविया हरणगमेषीए रे, बीजु कल्याणक सार...हो वीर०५ जन्म दीक्षा केवल हुवा रे, उत्तराफाल्गुनी जेह ; । स्वाति मोक्ष सिधाविया रे, छठें कल्याणक एह.. हो वीर० ६ सर्व तीर्थ कर आश्रिता रे, पंच कल्याणक कीध ; हरिभद्र पंचाशके रे, अर्थ प्रगट ए लीध.. हो वीर० . ' आचारांग ठाणांग जी रे, कल्पसूत्र मनोहार ; छए कल्याणक वीर नां रे, प्रगट पणे अधिकार हो वीर०८ जन्म दीक्षा केवल थये रे, उद्योत हुवे तीन लोक ; मोक्ष गये तम ऊपजे रे, बीजो अंग आलोक हो वीर० ॥ च्यवन रहित सुरनर करे रे , महोत्सव रूड़ी प्रकार ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चित काय न च्यवन मां रे, भगवती ओ निरधार• • • हो वीर० १० क्षत्रिय कुल मां संक्रम्या रे, कार्य उत्तम छे जेह ; अधम कहे प्रभु वीर ने रे, अधम पणुं लहे तेह हो वीर० ११ ब्राह्मणी कुखे जेनो रे, कल्याणक कहेवाय ; त्रिशला कूखे तेहनो रे, केम अकल्याणक थाय · हो वीर० १२ स्वप्न उतारादि क्रिया रे, वर्त्तमान मां जेह • त्रिशला गर्भ ओच्छव करे रे, श्रेय जाणी सहुतेह हो वीर० १३ पुरुष वेदे ऊपजे रे, सर्व तीर्थंकर जेह ; केम मानो प्रभु मल्लिने रे, थयुं अच्छे एह · हो वीर० १५ स्त्री वेदे स्वीकार हे रे, मल्लि तीर्थंकर जेम ; गर्भ थी गर्भ पणे हुआ रे, चरम तीर्थंकर तेम• • •हो वीर० १५ अक्षर एक उत्थापतां रे, अनंत संसारी थाय ; जिन आणा युत वचन थी रे, निकट भवी ते प्राय• • •हो वीर० १६ श्रद्धा जिन आणा तणी रे, समकित फल देनार ; सूत्र अर्थ प्ररूपणा रे, भव भय टाल नहार· · · हो वीर० १७ कल्याणक स्तवना करू ं रे, वीर तणां छए आज ; भवभीरुता हैडे धरू रे, सिद्धा वंछित काज... हो वीर० १८ गणिवर रत्नमुनीश्वररू रे, रत्नत्रयी दातार; प्रेमे थुणतां नीपजे रे, “भद्र" हृदय मनहार• • • हो वीर० १६ २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य जिन स्तवन चाल-वेर वेर नहीं आवे, अवसर अवलंबन हितकारो प्रभुजी तेरो (२) पावत निज गुण तुम दर्शन सें, ध्यान समाधि अपारो ॥प्र०॥ १॥ प्रगटत पूज्य दशा पूजन से, आत्म रमण विस्तारो ॥ प्र० ॥२॥ भावत भावना तन्मय भावे, अड्ढ पुग्गल निस्तारो॥ प्र० ॥३॥ रोग सोग मिटत तुह नामे, टत कर्म कटारो ॥ प्र० ॥४॥ श्रीजिनरत्न-त्रयी प्रगटावत, भद्र तया भव पारो॥ प्र० ॥५॥ चाल-वेर वेर नहीं आवे, अवसर चाहुं शरण तुम्हारो हो जिनवर (२) भव अटवी मां काल अनादि, पाम्यो दुख अपारो ॥ चाहुं० ॥१॥ दृढतर ध्याने श्रेय विचारत, सुखद मार्ग तुमारो॥ चाहुं० ॥२॥ मुक्तिपुरी साधन संपादन, सर्वविरति स्वीकारो॥ चाहुं० ॥३॥ निर्मल ध्याने कर्म खपावत, भूमण मिटत गति चारो॥चाहुं०॥४॥ जीव अमलना रत्नत्रयी संग, सादि अनंत अपारो॥ चाहुं० ॥५॥ २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) श्री सीमंधर स्तवन उदरामसर धोरा गुफा–बीकानेर [ ता०२-१-६० हंसा ! महाविदेह तू जा जा (२) सीमंधर प्रभु के चरणों में, प्रतिदिन यात्रा किये जा ; अवधि मनःपर्यव-केवलीजिन, दर्श स्पर्श सुख लेजा... हंसा० १ मानसरोवर शुचि मुक्ताफल, चंचु भर भर के जा; समवशरण में प्रभुजी के आगे, स्वस्तिक भरत भरेजा. . हंसा०२ भूचर-खेचर-तिरि-वर देवा, संघ सेवा निवहेजा ; वोध-सुधा-पय पीवत पीवत, नित्य कर तृप्त कलेजा. . . हंसा जीवन साथी सहजानंदधन, हंसो सोहं रमेजा ; परम कृपालु देव आशीस ले, शीघ्र सिद्ध पद पै जा. . . हंसा० ४ ज्ञान आराधना पद् राग-हमीर कल्याण ज्ञान भणो इक तान...हो भविआं (२) भणी ने प्रगटावो निज भान हो भवि० ज्ञान बिना शुद्ध तत्त्व न परमे, जीव अजीव पिछान ।। भ० ॥१॥ बंध उदय उदीरणा सत्ता, आठ करम नी तान ॥ भ० ॥२॥ शुद्ध देव गुरु धर्म तणी जो, जाण नहीं विण ज्ञान ॥ भ० ॥३॥ तेह थी सूत्र मां ज्ञान वखाण्युं, केवल दरसन वान ॥ भ० ॥४॥ पंच एकावन भेद प्रभेदे, विधि पूर्वक अनुष्ठान ।। भ० ॥ ५॥ त्रिकरण शुदे ज्ञान अराधो, मूकी जूठ गुमान ॥ भ० ॥६॥ श्रीजिनरत्नत्रयी प्रगटावी, 'भद्र' धरो नित ध्यान ।। भ० ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) सिद्धान्त रहस्य गर्मित श्री तीर्थवन्दना स्तुति मोकलसर गुफा दोहा छंद सिद्धपद' निज' सम' अछे, व्यक्त गुणी छे सिद्ध । निजपद शक्ति' व्यक्तता, निमित्त कारण जिन' मृद्ध ॥१॥ उपादान' कारण सजी, ध्यावं सिद्ध स्वरूप । पण ते अलख• लखाय ना, रूपातीत अनूप१२ ॥२॥ तेज निधि छ व्यक्त ज्यां, रूपस्थ १४ श्री अरिहंत । ऋषभ वीर प्रमुख हता, छे विदेह'५ विचरंत ॥३॥ मोह'६ ग्रंथि विहीन' " जे, क्षायक' ' दृष्टि सुसंत'" । श्रेणिक कृष्ण प्रमुख ते, भावी • तीर्थ महन्त ॥४॥ तस २ विरहे २३ तस थापना,२४ अभिन्न ५ श्रद्धा धार । कारण ६ कर्त्तारोप२७ थी, नैगम नय२ ८ अनुसार ॥५॥ निश्रा अनिश्रागत' • अछे शास्वत : मंगल ३२ सार । भक्ति ए पंच भेद थी, जिनठवणा' अधिकार ॥६॥ देव सुभवन विमानमां, मेरु आदि गिरि शृंग। नंदीश्वर द्वीपादि ए, शास्वत चैत्य उत्तुंग ॥७॥ अष्टापद शत्रुजयो, समेतशिखर गिरनार । आबू तारंगा प्रमुख ते, भक्ति सुचेत्य उदार ॥८॥ मंगल-गृह-द्वारो परे, शेष भेद बे जेह । पाचा चंपा बनारसी, ग्राम नगर वन तेह ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदृष्टि ३५ लीन थई, बहिरातमता६ खेह • । आतम ८ अर्पण भाव थी, वंदूं पूनुं तेह ॥ १०॥ संताश्रय ९ श्रुतज्ञान लई, धरू सालंबन ध्यान १ । लखू२ रूप ३ भिन्न देह थी, जेम खडग ने म्यान ॥ ११ ॥ स्वालंबन ४ थिर ज्योति ५ ते, सुधा' ६ वृष्टि पय पीन' । दिव्यध्वनि ८ अनहद सुनी, अबाध्य ९ सुख मन लीन ॥ १२॥ स्व स्वरूप५० एकत्वता, पराभक्ति५१ सदुपाय५२ । कर्मों५३ संवर५४ निर्जरे,५५ सहजानंद५६ पद राय५७ ॥ १३ ॥ स्वोपज्ञ संक्षिप्त टिप्पण [सं० २००३ में प्रकाशित "पंच प्रतिक्रमण-सूत्र" से अनूदित ] १ सिद्ध-कर्म रहित शुद्ध जीव द्रव्य-मोक्ष के जीव, पद-पदवी, २ निज-( कर्म सहित अशुद्ध जीव-द्रव्य संसारी जीव, उसका) अपना, ३ समान ४ प्रगट ५ विद्यमान गुण समूह का अप्रगट सत्ता में रहने के भाववाची 'शक्ति' शब्द का यहाँ ग्रहण हुआ है। ६ जिन पदार्थों का स्वयं कार्यरूप में परिणमन नहीं होता किन्तु जो कार्योत्पत्ति में सहायक होते हैं, जैसे-घड़े की उत्पत्ति में दण्ड चक्र आदि, ७ राग-द्वेष जीतने वाले वीतराग परमात्मा, ८ ज्ञानादि अनन्त गुण मय स्वाभाविक स्वरूप संपत्ति, जो पदार्थ पहले कारण रूप होकर स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जांय जैसे-घड़े की उत्पत्ति में मिट्टी अनादिकाल से द्रव्य में जो पर्यायों का प्रवाह चल रहा है, उसमें अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याय को उपादान कारण कहते हैं और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य कहलाता है। १० ज्ञान-चक्षु के बिना मात्र चर्म चक्षु से जो न पहचाना जाय वह, जैसे भगवान आनन्दघनजी ने कहा है-“वरषा बुन्द समंद समाने, खबर में पावे कोइ; आनंदघन | ज्योति समावै, अलख कहावै सोई” ११ अरूपी १२ अनुपम, उपमारहित १३ अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत सुख, अनंतदान, अनतलाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग और अनंत वीर्य ये नौ क्षायिक लब्धि रूप नौ निधान १४ देहधारी १५ महाविदेह क्षेत्र में, १६ जिसके उदय से स्व-पर पदार्थों की विपरीत श्रद्धा हो जाय, परिणामतः ज्ञान और आचरण उल्टा होकर संसार में चिर स्थिति हो जाय, ऐसे आत्म परिणाम विशष की उलझी हुई सघन मिथ्यात्व-गाँठ, १७ रहित १८ क्षायिक सम्यक्त्वी-निज स्वभाव ज्ञान में केवल उपयोग से आत्मा का तन्मयाकार सहज स्वभाव में निर्विकल्प परिणमन हो उसका नाम है सम्यक्त्व । निरंतर वह प्रतीति बनी रहे उसका नाम है क्षायिक सम्यक्त्व, वह जिन्हें प्रगट हुआ है वे । इसकाल में भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है। यथा--"खाइग सम्मद्दिढि जुगप्पहाणागमं च दुप्पसह" आर्य सुधर्म प्रभृति दुप्पसहसूरि पर्यंत जो २००४ युगप्रधान हैं, वे सब क्षायिक सम्यक्त्वी ही हैं; "तं तह आराहेज्जा, जह तित्थयरे य चउव्वीसं।" "जुगप्पहाणो जिणव्व दव्यो” उनं प्रत्येक क्षायकदृष्टि युगवरों को जिनेश्वरवत् देखना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधन करना चाहिये, उनकी और वैसे ही उनके वचनों की बौधीसों-तीर्थंकरों की भाँति आराधना करना (श्री श्रेणिकादिबत् शेष तीर्थंकर नाम कर्म रहित अत्यागी क्षायिक दृष्टि वाले भी "भावी सामान्य केली” पने आराध्य हैं इसी कारण से युगवरों के अनेक स्थानों में सूपादि विद्यमान हैं किन्तु अशा साधक वर्ग, लौकिक दृष्टि से उनकी आराधना करते हैं वह मिथ्या है। "महानिसीहाओ भणिय" ऐसा महानिशीथ सूत्र की साक्षी से, बारहवीं शती के सुविख्यात युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी ने 'उपदेशकुलक' (गा० २०-२६) में कहा है। ( देखो अगरचंदजी नाहटा प्रकाशित 'युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि प्रन्थ पत्रांक १३) १६ सत्पुरुष-महात्मा २० भविष्य में होने वाले तीर्थकर, २१ ( उसी प्रकार भविष्य में होनेवाले ) सामान्य केवल्ली, उक्त अर्थवाची महंत शब्द को यहाँ ग्रहण किया गया है। २२ उनके २३ अविद्यमान काल में २४ साकार अथवा निराकार पदार्थ में 'वे ये हैं', इसप्रकार अबधान करके स्थापन-निवेश करना उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं, जैसे पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को पार्श्व-प्रभु कहना, २५ भेदभाव रहित २६-२७ (स्थापना ओ निमित्त कारण है उस ) निमित्त कारण में कर्मापन का आरोपण करके, उनका ध्यान करने से ध्येय-स्वस्वरूप की प्राप्ति होती है। कर्त्तारोप के बिना भक्तिभाव उल्लसित नहीं होता। उसी प्रकार देहादि परपदार्थों के प्रति अहं-ममत्व नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटता, इसी न्याय अपेक्षा से ईश्वर कतृ त्व स्वीकार कर सिद्धान्तकारों ने भक्ति-मार्ग का उपदेश किया है । यह आत्म साक्षात्कार का सुखद उपाय है। २८ दो पदार्थों में से एक को गौण और दूसरे को प्रधान कर भेद अथवा अभेद के विषय में करने-जानने वाला एवं पदार्थ के संकल्प आरोप व अंश-ग्राही ज्ञान को नैगम नय कहते हैं। जैसे संकल्प उदाहरण--रसोई के लिये चावल बीनती हुई स्त्री को किसी ने पूछा-बहिन ! क्या करती हो? वह कहती है मैं भात बना रही हूँ । यहाँ चावल और भात की अभेद विवक्षा है अथवा चावलों में भात का संकल्प है। आरोप उदा. हरण-मित्रमण्डली में एक ने कहा-आगामी कल महावीर भगवान का मोक्ष-कल्याणक है। दूसरे ने कहा-पद्मनाभ स्वामी का है, यहाँ प्रथम कथक का वर्तमान काल में भूतकाल का, दूसरे का वर्तमान काल में भविष्य काल का आरोप पूर्वक कथन है। इसी आरोपित नैगम नय से जो हो गये हैं, होनेवाले हैं और विचरते हुए तीर्थंकरों तथा सामान्य फेवलियों का उनकी प्रतिमा में अभेदपन आरोप करके ध्येय रूप से ध्याते हुए स्व स्वरूप प्राप्ति होती है। अंश उदाहरण-आत्मा के अनन्त गुणों में से एक सम्यक्त्व गुण प्रगट होने पर आत्म-साक्षात्कारता स्वीकार की जाती है। जिसमें एक अंश की प्राप्ति से सर्वाश का स्वीकार है । २६ निश्रागत चैत्य व्यक्तिगत स्वामित्व का जिनमन्दिर । ३. अनिश्रागत चैत्य"बिना व्यक्तिगत ३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामित्व वाला सर्व साधारण जिनमन्दिर । ३१ उत्पति विनाश रहित अनादि अनंत भंग से स्वाभाविक जिनमंदिर । ३२ मंगल चैत्य-व्यवहार प्रवृत्ति में भी स्वरूप जागृति सुरक्षित रखने के लिये प्रत्येक जैन गृहस्थ द्वारा ध्येय के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति से अपने गृहद्वार पर आलेखित की हुई जिनप्रतिमा। जिसकी अज्ञता के कारण वर्तमान में प्रायः इस रीति का विच्छेद हो गया है। ३३ भक्ति चैत्य-श्री रावण की भाँति ध्येय में तदाकार चित्त से ध्यानारूढ होने के लिये एकान्त प्रशान्त निर्जन स्थान में बनाये हुए जिनमन्दिर। इसीलिये गहन पहाड़ों के शिखर पर वर्तमान में उक्त चैत्यों का अस्तित्व है। ३४ जिनेश्वर की स्थापना, जिन प्रतिमा। ३५ ब्रह्मरंध्र में आसन जमाकर स्वरूप लीन होने पर जिसकी यह दशा हो जाय कि यह सजीव है या निर्जीव ? उसकी परीक्षा में श्वास रूधिरादि से शरीरादि का साक्षीत्व भाव यथार्थ भेदज्ञानी, चौथे से बारहवें गुणस्थानवर्ती अंतरात्मा। ३६ औदयिक भाव कर्मजनित शरीरादि को आत्मा मानने रूप परिणाम बहिरात्मता है। ३७ नाश। ३८ बहिरात्मभाव वंश करके अन्तरात्म स्थिर स्वभाव से परमात्म स्वरूप को अपनी आत्मा में अभेदलक्ष से ध्यान में लयलीनता ही आत्म अर्पण है। ३६ शुद्ध आत्मानुभवी, स्वरूपलीनता में सदा विचरणशील, देहधारी होने पर भी विदेही दशा प्राप्त महात्माओं की चरण सेवना में रहकर । ४० आलंबन सहित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ध्येय रूप बनने के लिए ध्याता की प्रवृत्ति विशेष । ४२ जानू ४३ चैतन्यमूर्ति, निज आत्म-प्रतिभास । ४४ अपना आलंबन (रूप निर्धारित कर उसमें लीन होना) ४५ दशमद्वार में सहस्रदल कमल पर रहा हुआ अचल अनुपम दिव्य प्रकाश । ४६ सहस्रदल कमल मकरंद - विस्रस चैतन्य रस की वृष्टि । ४७ ( उस रसपान से व्याप्त अखण्ड मस्ती से स्व-स्वरूप ) पुष्टता । ४८ श्रवणेन्द्रिय विषयातीत, ब्रह्मरन्ध्र में सहज उद्भूत अलौकिक मधुरतम ॐकार नाद, उस नादजन्य अनेकानेक राग-रागिणी मिश्रित, तालबद्ध विविध वाजित्र ध्वनि-ध्वनित, अगम अगोचर रेडिया । ४६ पूर्वोक्त कारणों से उद्भुत, शांता आशाता के अवेदन रूप अतीन्द्रिय सहज सुख । ५० पृथग्वति समुद्भुत चैतन्यमूर्चि आत्म-प्रतिभास कर आत्मा में मिल जाना । ५१ आत्म प्रतिभास को प्रकट करने के लिए और उसे स्वरूप सम्मिलित करने रूप साधनाविशेष। जिसकी पूर्णता से आत्म प्रतिभास और स्वरूप की अद्वैतता हो जाय । ऐसा होने से जल कमलवत् अलेप निर्बंध दशात्मक सहज समाधि रूप, देह होते हुए भी विदेही दशा प्रगट होवे । ५३ कर्म - परलक्षीय परिणामों द्वारा जीव से जो किया जाय वह । उसके तीन भेद १ भावकर्म - अनादि अशुद्धोपयोग रूप विभावता से राग द्वेष मोह में आत्मा परिणमन करे वह । २ द्रव्यकर्म उपर्युक्त आकर्षण से कर्मरूप वर्गणा का बंध हो वह । ३ नोकर्म - उस वर्गणा का पांच Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके दो भेद १ भाव विकारी भावों को शरीर रूप में परिणमन हो वह । ५४ आते हुए कर्मों को रोकना 'वर - स्वस्वरूप स्थिरता से पुण्य-पापादि रोकना । २ द्रव्यसंवर - भावसंवर से जड़ कर्मों का अग्रहण । ५५ आत्मा से कर्मों को अलग करना । इसके दो भेद हैं, १- भाव निजरा - अखण्डानंद शुद्धात्म स्वभाव लक्ष के बल से स्वरूप स्थिरता की वृद्धि से अशुद्ध अवस्था का आशिक नाश करना। उसका निमित्त पाकर जड़ कर्मो का आंशिक क्षरण होना, वह २ द्रव्यनिर्जरा । ५६ मोक्ष ५७ राजा । (२०) भाव दीवाली स्तवन दिल मां दिवड़ो थाय, स्वपर समझाय, विभावने टाली; ३८ हूं उजवं पर्व दीवाली ॥ टेर ॥ • - अस्तित्व गुणे हुँ आत्म प्रभु, शुद्ध स्वपर प्रकाशक ज्ञान विभुः मन वच काया थी जुदो, कर्म संग टाली · · · हुँ उज० ॥१॥ नित्यत्व गुणे हुँ अविनाशी, निर्मल चिन्मय निज गुणराशी; अकृत्रिम सहज स्वरूपी, अखंड त्रिकाली हुँ उजवु० ॥२॥ धुं शुद्ध बुद्ध सुख धाम महा ! हूं. स्वयं ज्योति परिमुक्त अहा ! 'सहजानंद' कर्त्ता - भोक्ता, स्वरूप संभाली हुँ उजवें ||३|| • Jain Educationa International सीवाणा For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) दीपावली का आध्यात्मिक स्वरूप ता० १६-१०-६० मेरे दिल को दीया बना, चिद् ज्योति जला; . मिथ्या तम बाली, मैं उजव पर्व दीवाली। देखी चिद्-जड़ भिन्न भिन्न सत्ता, मेरी जड़-सत्ता-अहं-ममता। हूँ स्व-पर-प्रकाशक ज्ञायकमूर्ति त्रिकाली ... मैं ...||१॥ ये प्राप्य-विकार्य निर्वयं-कर्म, व्यापक-व्याप्ये तत्स्वरूप-धर्म । है अभिन्न कर्ता-कर्म-क्रिया प्रणाली.....मैं......||२|| हूँ कर्ता ज्ञान-समाधि का, अकर्ता जड़ निमित्तज-जड़ का । शुभ अशुभ भाव और जड़-कर्त्तव्य को टाली.. मैं ॥३॥ भोक्ता-पद भाव्य-भावक योगे, हो ज्ञेयनिष्ठ सुख दुख भोगे। अब ज्ञाननिष्ठ हो सुख दुख बुद्धि हटा ली.. मैं ॥४॥ भोगी न कभी अड़ भोगों का, मैं भोगी ज्ञानानंद-रस का। अहो ! भेद-विज्ञाने प्रगटी अनुभव लाली.. मैं...||५| थी अज्ञाने. संसार-दशा, दृग-ज्ञान-चरण से मुक्त दशा। 'सहजानंदवन' निज ज्योत में ज्योति मिला ली.. मैं...॥६॥ जलाकर, २ उद्यापन करता हूं। - (२२) अंतरंग-पूजा-रहस्य २३-८-६२ - नित प्रभु-पूजन रचाव.. मैं घट में (२) सद्गुरू-शरण-स्मरण तन्मय हो, स्वपर लत्ता भिन्न भाव.. मैं. १ प्राण-वाणी-रस मंत्र आराधत, स्वरूप लक्ष अमाव : मैं० २ स्व-सत्ता-ज्ञायक-एपंण में, प्रभु मुद्रा पधराब.. मैं. ३ ३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 • जलाव · मैं० ७ षट् चक्र-क्रम भेदत प्रभु को मेरुदण्ड शिर लाव. मैं० ४ कमल सहस्रदल-कर्णिका-स्थित, पाण्डुशिला पर ठाव. मैं ५ ज्ञान सुधाजल सिंचत - सिंचत, प्रभु सर्वंग नहला व मैं ० ६ ज्ञान- दीपक निज ध्यान -धूप से, आठों कर्म हर्षित कमल - सुमन वृत्ति चुन-चुन, प्रभु पद पगर दिव्य गंध प्रभु अक्षत अंगे, लेपत रोम सहजानंद रस तृप्त नैवेद्य, द्वन्द्व दुखादि नसावें. मैं० १० निराकार साकार अभेदे, आत्म सिद्धि फल पाव मैं० ११ (२३) प्रभु तेरे अनंत नाम भराव· मैं०८ नचाहूँ मैं०६ भा० सु० १५ सं० २०२५ हम्पी २५-१-६६ ४० प्रभु तारा छे अनंत नाम, कये नामे जपुं जपमाला । घट-घट आतम राम, कये ठामे शोधुं पग पाला ॥ जिन-जिनेश्वर देव तीर्थंकर, हरिहर बुद्ध भगवान • कये० ब्रह्मा विष्णु महेश ईश्वर, अल्ला खुदा इन्सान कये ० १ अलख निरंजन सिद्ध परम तत्व, सत् चिदानंद ईश• • •कये ० प्रभु परमात्मा परब्रह्म शंकर, शिव शंभु जगदीश · · · कये० २ अज अविनाशी अक्षर तारक, दीनानाथ दीनबंधु.. कये ० एम अनेक रूपे तुं एक छो, अन्याबाध सुख- सिंधु कये० ३ परमगुरु सम सत्ताधारी, सहज आत्म स्वरूप• • •कये ० सहजात्म स्वरूप परम गुरू ए, नाम रटुं निज स्वरूप• • •कये ० ४ मंदिर मस्जिद के नहीं गिरजाघर, शक्ति रूपे घट परमकृपालु रूपे प्रगट तु, सहजानंदघन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only • • • मांय • • •कये ० त्यांय • कये० ५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) प्रभु-मिलन स्तवन [ऋषम जिनेश्वर प्रीतम माहरोरे कहो सखि ! प्राणेश्वर केम भेटीओ रे ? प्रियतम तो वीतराग ; अगम देश जइ अलखपुरे वश्यारे, रूपादिक करी त्याग • कहो० १ तार टपाल के फोन पहोंचे नहीं रे, स्टीमर रेल विमान ; प्होंचे न हरि-हर-देव संदेशडो रे, थाक्या अति मतिमानकहो०२ हारयां विविध धर्म-मत अनुसरीरे, विविध स्वांग-व्रतधार ; होम-हवन-तप-जप करीकरी पच्या रे, लह्यो न मिलन प्रकार कहो०३ चारे खूटे सौ तीरथ फर्या रे, नाह्या यमुना गंग ; वेद-वेदांग-पुराण कंठे कर्यारे, पण सौ विफल तरंग : 'कहो० ४ सुमति कहै सखि श्रद्धा सांभलो रे, प्रियतम हृदय मझार ; राग तज़ी चिद् धातु शुद्ध करोरे, स्वामि प्रकृति अनुसार • कहो०५ उपयोगे उपयोग एकत्वता रे, ए पति मिलन प्रकार ; अभिन्न-संगम चेतन-चेतना रे, सहजानंदघन सार...कहो० ६ (२५) प्रात्त विनंती राग-कनडी त्रिताल हो प्रभुजी! मुझ भूल माफ करों नहीं हुं योगी नहीं हुं भोगी, तारो दास खरो ... हो प्रभुजी नहीं हुं रोगी नहीं हु निरोगी, मारी पीड़ हरो... हो प्रभुजी तुझ गुण पागी सुरता जागी, नाथ हवे उद्धरो ... हो प्रभुजी दर्शन दीजे ढील न कीजे, दिल नुं दर्द हरो ... हो प्रभुजी अमी रस क्यारी मुद्रा तारी, निशदिन नयन तरो.. हो प्रभुजी आवो श्वामी मुझ उर माही, सहजानन्द भरो .. हो प्रेभुजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) दादा श्रीजिनदत्तसूरि स्तोत्र (प्राकृत) ॐ, ह्रीं गिव्वाणचक्क-प्फुड-मउडमणि-ग्घिट्ट-पायारविंदो, अंबा दिन्नप्पहाणा जुगवर-पय-संवाहणेगावतारी ; श्री ली ब्लू ठड्ढ विज्जू ! मयणयविजइ! जोइणीचक्क थंभा, सड्ढाणं खत्तिएलाइवर सहस तीसेगलक्खाण कत्ता. . .० १ रोगा सोगाहि वाही-समर-डमर-संताप हत्तार ! देव ! , श्री विजा-मंत-तंतागर ! महि-महिआ ! बाहडं बाप सूअ ! ; वेराटी हुंबडक्खक्कुलतिलय-सुमंतीस-वाछीग-पुत्त ! ; मिच्छालावी कुकुंभी-दमण-मिगवइ ! दत्तसूरींद ! एहि...०२ विण्णाणी ! अहि सामी ! वर वरद ! वरं देहि णे दंसणं य, सुरक्खो! सुप्पसण्णो भव विहिपह-लग्गाण भव्वाण खिप्पं ; अण्णाणं णाणदाया ! कुरु कुरु मम संइहितं दिव्व कंती! , ह्रीं स्वाहां तेत्तिझाणा कुसलकर! सया रक्ख मं रक्ख ताय ! ...३ मंतं लक्खं सवायं किर सुह विहिणा बंभचेरं धरंतो, अगावण्णा दिणंते विमलहियययो सुद्ध जावं जवतो; णिच्चं एगासणी जो अमलतणु अकंपासणो धम्मरत्तो, सक्खं णासग्गदिट्ठी सुगुरुदरिसणं लेइ सो दुल्लहं वि...० ४ सच्चारित्ताण सीसेण जिणरयणसूरीणं मंतप्पभावा , भद्देणं थुत्तमेयं सिरि खरयर गच्छाहिवाणं कयं जे ; लद्धद्धीदं सपेम्मं सरलयर हिआ सत्तहुत्तं थुणंति , णिच्चं सुक्खं अखंडं अमिय यर सुहग्गं पगेते लहंति...०५ ४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) श्री जिनदत्तसूरि चरित अष्टपदी ( रचनाकाल - सं० १६६८ ) -: दोहा शासननायक वीर जिन, गणधर गौतम स्वाम 1 बोधि ज्ञान दाता गुरु, करके तास प्रणाम ॥ १ ॥ प्रभाविक अड़ शास्त्र में, उपदेशे वागीश । भद्रबाहु आदिकभये, वैसे दत्त सूरीश ॥ २ ॥ उपगारी गुरुराय को, पद्य चरित बनाय | संक्षेपे श्रोता सुनो, भक्ति भाव जमाय ॥ ३ ॥ श्री जिनदत्तसूरि सुगुरुवर ( २ ) युगप्रधान धुरो सुगुरुवर श्रीजिन० ॥ आंकणी ॥ हुबड़ कुल ज्ञाति दीपक जो, मंत्रीश्वर वाछ्ग श्रावक वो ; -: धवलक रम्य पुरी. सुगुरु ० ॥ १ ॥ बाहड़देवी उदरे आये, ग्यारे बत्तीसे ( ११३२ ) जन्म निपाये ; सोमचंद्र नूरी सुगुरु० ॥ २ ॥ खरतर विरुदी जिनेश्वरसूरि, धर्मदेव पाठक हजूरी ; ... Jain Educationa International राग-भेरवी ... सुगुरु० ॥ ३ ॥ पावे ज्युं लोह तुरी सोमचंद्र वैरागे भीना, ग्यार इकताले ( ११४१ ) दीक्षित कीना; पाई सिद्धान्त भूरी ... सुगुरु० ॥ ४ ॥ For Personal and Private Use Only ४३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा अंगोपांगाध्ययन कर, भये गीतारथ आप । मिथ्यामत तम भेद ने, स्याद्वाद शर चाप ॥१॥ रची वृत्ति नव अंग की, अभयदेवसूरीश । जिनवल्लभ तस पाट पे, भये परम योगीश ॥२॥ ग्यारह गुणहत्तर ( ११६६ ) समें, पदठावै गच्छ ईश । चउविह संघ वित्तौड़ में, श्री जिनदत्तसूरीश ॥ ३॥ राग-आशावरी भये गुरु अतिशय महिमाधारी, पाई शासन रखवारी । भये। चित्तौड़ अरु विक्रमपुर नयरे, वज्र स्तंभ मन्दिरों । मंत्र पोथी ग्रही निज शाक्ते, जीते बावन वीरों॥ भये ॥१॥ जोगणियां चौसठ व्याख्याने, गुरु छलने कुं आवे । खीली गई तब शीश नमावे, वर सप्तक बक्षावे ॥ भये ॥२॥ सिंधु पंच नदी पंच पीरों, पंथिक जन दुख कारी। आत्मबले निज दास बनाये, ऐसे गुरु उपकारी ॥ भये०॥३॥ पक्खी पडिकमणे अजमेरे, जगमग बिजली आवे । पात्र तले स्थंभी गुरुवर ने, वरदेई अदृश थावे । भये०॥४॥ युगप्रधान इच्छुक अंबड़को, अंबिकाने लिख दीना । युगप्रधान जिनदत्तसूरीश्वर, सञ्चारित्रतप पीना। भये० ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दोहा ।। पादकमल सेवे सदा, देव देवी तस ईश । मरुभूमि में कल्पसम, जय जिनदत्तसूरीश ॥१॥ मरु मालव मेवाड़ अरु, पंजाब सिंधु देश । मगध मिथिला गूर्जरे, विचरे मुल्क अशेष ॥२॥ राग-आशावरी समरयां संकट टारे, सूरीश्वर । स०। चड़नगरी ब्राह्मण निज चैत्थे, मरी गौ रख दीनी। व्यंतर द्वारा वो गुरुवर ने, शिव पिंडाधीन कीनी ॥ सूरी० ॥ १ ॥ विक्रमपुर माहेश्वरियों को, हैजा रोग सताया। जैन बनाकर कष्ट मिटाया, मिथ्या तिमिर हटाया । सूरी०॥२॥ भनशाली के गोत बचाया, सेवक जहाज तिराया। कुष्ट क्षयादि केइक रोगी, गुरु कृपाऽमृत पाया । सूरी० ॥ ३ ॥ दोहा मंडोवर जालोर अरु, रत्नपुरा नरेश । लौद्रव जेसलमेर अरु, चन्देरी पुरेश ॥ १ ॥ अम्बागर पुर राजवा, बोधे भविक अनेक । ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मिल, सहस तीस लख एक ।।२।। सर्व-देश-विरति धरा, केइक समकितवंत । जैन संघवृद्धि करा, उपगारी भगवंत ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - राग-वेर वेर नहीं आवे अजमेर नगरे आवे, युगवर । अज० । शेषायु निज ज्ञाने जानी, अंतिम अनशन ठावे । युग० । १। बार इग्यारे (१२११) देवशयनी दिन, सुधर्म कल्पे जावे ।युगा। टक्कलक नामक विमाने, मह ऋद्धिक सुर थावे । युग० । ३ । एक अवतारी कारज सारी, मुक्ति नगर में जावे । युग०।४। ॐ ह्रीं श्रीं क्ली ब्लूँ गुरु नामे, जपते दर्श दिखावे । युग। ५। दो न्यूना दो सहस (१६६८) विक्रम, गुरु वियोगदिन आवे।युगादी श्रीजिनरत्नसूरि चरणानुज, 'भद्र' गुरु स्तव गावे । युग० । ७ । * आषाढ शुक्ल ११ (२८) अकबर-प्रतिबोधक दादा श्री जिनचंद्रसूरि स्तवन चंद्रसूरि गुरुदेव, दादाजी अद्भुत योगी (२) अद्भुत योगी, विभाव वियोगी, चंद्र० दादाजी. श्रीवंत शाह सिरियादे दंपतिना, कुल दीपक वीत रोगी,... बाल वये गुरु आप यथा छो, गच्छपति पद भोगी ... दा० १ राय राणा केइ मंत्रीओ पूजे, केइ देवो पद भृगी ... दा० अहिंसा रंगे अति रंगायो, अकबर आप प्रसंगी ... दा० २ आषाढ़ी अट्ठाइ पडह अमारी, अभयदान अभंगी ... दा० युगप्रधान पद अकबर आपे, दिव्य स्वरूप अनंगी ... दा० ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु विहार बंध कीधो सलोमे, कीधा साधु जेल भंगी दा० बोध्यो तेने करी संघ तीर्थो नी, रक्षा गो मच्छादि अंगी.. दा०४ कडीआ पींचा दि जैनो बनाव्या, रत्नत्रयी ना रंगी...दा० भद्र श्रमण बे हजारो मूकी ने, नाथ थया सुर संगी दा०५ १ प्राणी २ गोत्रनुं नाम, अमदाबाद मां छे ओसवालो ६ गोत्रनाम । (२९) मंगल-प्रार्थना ॐ ह्री दत्त कुशल चंद्र सूरि ( २) युगप्रधान शक्ति भूरी, ध्यावं दादा ! सहज नूरी ; । भिन्नता विभाव चूरी, करो संघ विघन दूरी. ॐ० १ डाकिनी शाकिनी प्रेत भूत, यक्ष राक्षसो विद्युत, करत र काल दूत, समरत नाम मंत्र युक्त. ॐ०२ अमने युगप्रधान आपो, शासन ना सहु संकट कापो, श्री जिनरत्नत्रयी आलापो, “भद्र" मंगल घर घर थापो. ॐ०३ (३०) शिक्षा गुरु स्तुति मेरे गुरु रटें मंत्र नवकार, यही है चौद पूरव का सार ; अरिहंत सिद्ध सूरि पाठक मुनि, परमेष्ठि अविकार ; पांचों पद में सार आतमा, साध्य-साधक सुविचार मरे०१ ज्ञायक लक्षे आत्मभावना, भावत उघडे द्वार ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रटत मंत्र कहें छादन ज्यों, लोहे लोहा धार... मेरे० २ द्वादशांगी मध्य सार यहीं ले, शेष प्रवृत्ति निवार मध्यमा वाचा जंपे जाप नित्य, करपल्लव क्रम प्यार.. मेरे ० ३ शान्त दान्त गम्भीर धीर मेरे, विद्यागुरु मद टार ; पाठक लब्धि गुरु पद वंदत, सहजानंद अपार• • मेरे० ४ ( २ ) अहो ! म्हारा उपाध्याय भगवान् !! करू' गुरु लब्धि तणा शां गान !!! कृपा करी आरंक बाल ने, दीधुं सुविद्या दान ; विद्याबलेटी अविद्या, प्रगट्युं आतंमज्ञान · · अहो० १ काव्य कोष छंद न्याय व्याकरण, अलंकार ग्रन्थ ज्ञान ; भणी - मणाच्या मात्र थकी तो, थाय न आत्मकल्याण .. अहो० २ द्रव्य-भाव- नोकर्मत्रयी थी, भिन्न स्वरूप निदान ; ग्रन्थी भेदन स्व-संवेदन, एज सुविद्या प्राण· · अहो ० ३ सिद्धसमी ज्ञायक - वेदी स्थित, ज्ञानमूर्ति ओलखाण ; शि-ज्ञप्ति-स्थिति रत्नत्रयी प्रभु, तन-मंदिर रहे ध्यान • अहो ० ४ एसघलो उपकार आपनो, सहजानंद निधान; प्रत्युपकारे हुँ असमर्थ करू, भद्र-हृदय थीं प्रणाम... अहो० ५ ४८ Jain Educationa International १५-१०-६० For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुर ( देहरादून ) १६-१०-६० (३२) दीक्षा-शिक्षा गुरु स्तुति वन्दना वन्दना वन्दना रे ! गुरु 'रत्न लब्धि' पद वन्दना, वन्दतां थाय मद-मर्द ना रे ! गुरु 'रत्नलब्धि' पद वन्दना... पूर्व संस्कार वश मोहमयी मां, थइ विरक्ति उद्भासना; रे गुरु० जागी लब्धि-पंच करण विशुद्धि, काल क्षयोपशम देशना; रे गुरु०१ मित्रो गया 'मोहन' गुरू शरणे, लग्न पूर्वे तजी यौवना; रे गुरु० आज्ञा मल्ये गया 'राज' गुरू चरणे, थया निग्रंथ बन्न सज्जना; रे गुरु०२ साध्वाचार प्रकरण व्याकरण कोष, ग्रन्थो भण्या काव्य चंदना; गुरू० आगम-गम-ग्रही जप-तप पूर्वक, पठन-पाठन-वृत्ति मंदना; रे गुरु०३ विभिन्न देशे उग्र-विहारे, कर्ता सद्धर्म प्रभावना; रे गुरु० साधु-श्रावक व्रत पाले-पलावे निच्छल निश्चल भावना; रे गुरु० ४ संघे ठव्या 'सूरि-पाठक-पद' पर, तोये जरा अभिमान ना; रे गुरु० नाम राख्या 'जिनरत्नसूरी'अने, 'लन्धि पाठक' छे धी-धना,रेगु०५ दीक्षागुरु देह त्यागी थया सुर, भवनपति मंद-वासना; रे गुरु० शिक्षागुरु विद्यमाना आक्षेत्र, भव-भीरु भव्य शासना; गुरु०६ दीक्षा-शिक्षा गुरु म्हारा पूज्योए, एथी करू अभिवादना; रे गुरु० भद्रभावे उपकार स्तवी लहुं, सहजानंद-पद व्यंजना; रे गुरु०७ - ... राजमुनिजी ४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता० १८-१०-६० (राग-सारंग) गुरू समता-रस भण्डार है (२) अपराधी अपराध करें यदि, क्रोध न निरहंकार हैं ; गुरू०१ चाहे कितनी भक्ति करो कोई, लोभ प्रति तिरस्कार हैं ; व्यक्त करें अपनी कमजोरी, दंभ प्रति धिक्कार है ; गुरू० २ विद्यादाने अप्रमत्त कोई, आवो आप तैयार हैं ; 'कम खाना और गम खाना' इस उक्ति के आधार हैं. • गुरू० ३ निन्दा करो चाहे स्तुति करो कोइ,उदासीन अविकार हैं ; उपाध्याय लब्धिमुनि ऐसे, सहजानंद-पद पा रहैं. • गुरू०४ मेरे गुरु पाठक-लब्धि निधान, संस्कृत भाषा के विद्वान ; चाहे कोइ किसी भी मत के हो, पढावें सबको हर्षित हो...१ समय ले चाहे जो जितने, पढ़ें साधु-साध्वी गृही कितने; होय यदि बुद्धि-जड़ तोभी, जिजक नहीं तुषित होत सोभी...२ पद्यमय करी ग्रन्थ-रचना, चरित्रो श्रीपालादि घना ; स्तुति स्तोत्रादि कृतियां सभी, सरलतम पढ़ो चाहे कोई भी "३ मैं भी पढ़ा इन्हीं के पास, न देखी प्रतिसेवा की आश ; जिन्हें हैं अति भद्र परिणाम, उन्हें हो सहजानंद प्रणाम...४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (राग-कान्हड़ो) हंसा! मंडनपुर' तूं जा जा, जा कर लब्धि गुरु पद पूजा : पाद-प्रक्षालन क्षीर-सागर से, शुचि हो क्षीरोदक ला; गन्धोदक ले पद्मद्रहे जा, पद्म सहस्र-दल ले आ. • हंसा० १ रत्नद्वीप से रत्नो लाकर, भाव-शुद्ध ज्ञान-पूजा ; स्वस्तिक हेतु मानसरोवर, ला मुक्ताफल ताजा • हंसा० २ आत्मार्थे बोधामृत-पय पी, तँ कर तृप्त कलेजा; ज्ञेय भिन्न ज्ञानमूर्ति सो-अहं सोहं रटे जा हंसा०३ सोहं हंसो रटत रटत कर, देहाध्यास इलाजा ; मोह-क्षोभ मिटा हो अपना, सहजानंद पद राजा. हंसा० ४ १ मांडवी (३६) विद्यागुरु-उ० लब्धिमुनि-स्तुति _ ता० २६-११-६० - [छन्दः शार्दूलविक्रीड़ितः] सत्यत्यागतपः क्षमासुमृदुतासंतोषशौचार्जवब्रह्माकिंचनतागुणाः स्वसुखदा येष्वाश्रयन्ते सदा। येषांज्ञाननिधौ निमज्जनतया प्राप्ता मया देवगीः , कामक्रोधमदादिदोष विपदा येभ्य सुदूरे गताः ॥१॥ श्रीसङ्घन सुपूज्यपाठकपदं येभ्यः प्रदत्तं शुभं, . श्रीसङ्घश्च चतुर्विधः प्रमुदितो यैः पाठितः शासितः । श्रीमद्राजमुनीश्वराः सुगुरवो यान् दीक्षिताञ् शासिषुः)तान ५१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्वैराग्यवशैन यौवनवये ये दीक्षिताः शिक्षिताः ॥२॥ बन्धुश्रीजिनरत्नसूरि सहिताः सदृष्टिज्ञाने स्थिताः, पंचाचार विलास चारुचरिता आजन्मशीलव्रताः । मोहक्षोभविहीन धर्मधनिका वशेन्द्रिया योगिनः , वात्सल्ये जननीप्रवीण हृदया भट्टारकाः पण्डिताः ॥३॥ अङ्गोपाङ्ग जिनेन्द्र बोधपयसा तृप्ताः प्रपुष्टा गुणैः, श्रीपालादिचरित्र पद्य रचना कृत्त्वाऽपि येः निर्ममाः । आप्ता उन्नतदेहिनः सुरगिरा आजानुबाहाःx मुद्दा,। . गम्भीराः कवयः प्रसन्नवदना गोधूमवर्णाः प्रियाः ॥ ४ ॥ संवेगेन सुमुक्तिमार्गपथिकाः श्रद्धास्पदाः शिक्षकाः , अर्हन्मार्गगगच्छके खरतरे लब्धप्रतिष्ठाः स्थिराः । श्रीमल्लब्धि मुनीशपाठकवरा भक्त्या नतोऽहं सदा, वन्दे तान् मम भद्रसिद्धि सहजानन्दाय विद्यागुरून ॥५॥ पंचभिर्विशेषकम् x"प्रवेष्टो दोर्दोषा बाहु- हा बाहो भुजो भुजा ॥१६॥" [शब्द रत्नाकर० कां• ३] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) पयूषण स्तवन । सं० १६६७ बंबई दोहा-शासनायक वीजिन, गणधर गौतमस्वाम । युग प्रधान जिनदत्त गुरु, करीने तास प्रणाम ॥१॥ अर्थभेद दिनमान वली, आचरणा अधिकार । पर्व पजुसण नो कहुं, हेयाहेय विचार ॥२॥ ढाल-भक्ति हृदयमां धारजो रे, ए राग पर्व पजुसण वर्णना रे, भेद प्रभेद प्रसार । गणधर पूर्वधरो तणा रे, आगम ने अनुसार । हो भविका! मिथ्या भूमण निवारवा रे, सत्यासत्य विचारवा रे, सुणजो सहु नरनार ॥१॥ वर्षाकाले मुनिवरू रे, चौमासो एक ठाम । जीवदया कारण वसे रे रे, पज्जुसण तस नाम हो भ० ॥२॥ गृहिअज्ञात ने ज्ञात थी रे, भेद युगल तस कीध । अनिश्चित निश्चित पणे रे, तेहनो अर्थ प्रसिद्ध हो भव॥३॥ प्रथम भेद दो भेद थी रे, वीस पचास प्रमाण । सौ दिन ने सित्तेर नो रे, बीजे काल पिछाण हो भ०॥४॥ आषाढी चौमासी थी रे, संवच्छरी पर्यंत । अधिक मास जे वर्ष मां रे, दिवस वीस लहंत हो भ०॥५॥ सौ दिन पाछल कार्तिकी रे, चौमासी पडिक्कत । चंद्र संवच्छर जाणीए रे, पचास सित्तेरवंत हो भ० ॥६॥ ५३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्य कहे अहो गुरुवरा ! रे, वीस दिवस केम लीध ? . गुरु कहे विनयी ! सुणो रे, तेह कहुं शुभ विध हो भाणा 'सूर'-'चंद'-'जंबूपन्नत्ति' ए रे, 'ज्योतिष्करंडक' सार । 'समवायांगादि' दाखवे रे, अधिकमास अधिकार हो भ०।८।। पांच वरस जुग एकमां रे, बासठ पुनमे अमास । तिहां अभिवर्द्धित तणारे, पक्ष छविस तेरे मास हो भ०॥६॥ अधिक मास सहित गण्या रे, वीस दिवस श्रुत नाणी। कल्पनियुक्ति चूर्णिए रे, ए अधिकार व वाणी हो भ०॥१०॥ वृद्धि पोष अपाढनी रे, जैन टिप्पण अनुसार । तेह विच्छेदे तिण समे रे,श्रुतधर निश्चितकार हो भ०॥११ तदनुसारे पचास नी रे, व्यवस्था इण काल । अभिवर्द्धित तणी अछे रे, अनुपम मंगल माल हो भ०॥११ नहि कल्पे लल्लंघवी रे, पचास पर एक रात । अंदर कल्पे कारणे रे, कल्पसूत्रो सुविख्यात हो भ० ॥१३॥ समवायांगे पचास ने रे, सित्तर दिन जो लीध । चारमास ने आश्रिता रे, तास टीकाए कोध हो भ० ॥१४॥ पर्व ए नहि मास आश्रितो रे दिवस आश्रित जाण । भाद्रव नाम न मूल मां रे, एहिज परम सेनाण हो भ०॥१५॥ एंसी दिन संवच्छरी रे, अधिक ने फल्गु मास । छब्बिस ना चोविस वदे रे, केवल मिथ्या भास हो भ०१६ कर्माधीन ते बापड़ा रे, तेहशुं न कीजे द्वेष। जिन वचने दृढतर रही रे,लहीए तत्त्व विशेष हो भ०॥१७॥ ५४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रमा जे विधि दाखवी रे, ते करे जेह प्रमाण । जिन विरहे इण कालमा रे, तेह आराधक जाण ॥हो भ०॥१८॥ भेद मतांतर ना तजी रे, सजी गुण गाही आचार। समदृष्टिए एहनो रे, करजो अर्थ विचार हो भ० ॥१६॥ कलश-भयठाँण नवे निधि 'शशि'संवच्छर कूहू माघ निशाकरे । पर्वाधिराज पजूसणा नी वर्णना मंबापुरे ॥ जिन आणारंगी गच्छ खरतर रत्नत्रयी भूषण प्रदा। शमीदमी "श्रीजिनरलसूरि" छात्र "भद्र" श्रुणे मुदा ॥२०॥ ___ (३८) श्री सिद्धचक स्तवन सिद्धचक्र ही आधार, भविकजन ! मुक्ति मारग संस्थापक अरिहंत, तारक जन संसार । भ०॥१॥ अनंत सुखमयी सिद्ध आराधत, घाती अघाती संहार । भ० ॥२॥ छत्तिसगुणगण सज्ज आचारिज, चउविह संघ रखवार। भ०।।३।। दायक निर्मल ज्ञान सुपाठक, आगम तत्त्व प्रचार । भ० ॥४॥ पंच महाव्रत पालक मुनिवर, पुद्गल मूर्छा निवार । भ० ॥५॥ विशुद्ध क्षायिक दर्शन पावत, तृतीय भवे निस्तार । भ० ।।६।। लोकालोक अनंत प्रकाशक, ज्ञान परम पद सार । भ० ॥७॥ संजम ग्राहक षट खंड त्यागी, चक्रो बली अणगार । भ० ॥८॥ काष्ठ पावक ज्युं कर्म अरू तप, आत्म निर्मल अविकार ।भ०॥६॥ इन नवपद को ध्यान यथाविधि, वांछित सिद्धि दातार भ०॥१०॥ "श्रीजिनरत्न" त्रयी प्रगटावत “भद्र” तया भवपार । भ० ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) आत्म-सिद्धि मंत्र खण्डगिरि विजयादशमी ३-१०-५७ (राग-कान्हडो) परमगुरु ॐ सहजात्म स्वरूपए, जपु मंत्र सदाय अनूप रे.. प० परम कृपालु देव गुरु राजे, म्हेर करी मुझ उपरे... छिन्न परम्परोद्धार करी ने, बक्ष्यो मंत्र दधि-तुप रे.. प० १ परमगुरु ए जोयो जाण्यो, अनुभव्यो निज रूपरे; मान्य करूंछ प्रगटो तेहवो, म्हारो आतम भूप रे.. प० २ मान्य अमान्ये हूँ छस्वाधीन, अन्य तजू भूम कूप रे; संते मान्यु तेज प्रमाण्यु, श्रद्धा सम्यक् रूप रे... प० ३ कंइ नहीं जाणु मंद मति तोय, अन्य विकल्प चुप रे ; ज्ञान-पवन-मन स्थिर करी ध्याएँ, सहजानंदघन स्तूप रे.. प०४ (४०) परामक्ति पद रत्नकूट-हम्पी, शरदपूर्णिमा २०१८ (शरद पूनम नी रातड़ी) शरद पूनम संध्या पछी चढ्यो चेतन-चन्द्र आकाश रे भक्ति नो रंग लाग्यो रे... . रंगलाग्यो रंगलाग्यो रंगलाग्यो, रोमेरोमे जाग्यो उल्लास रे.. भक्ति०१ मिथ्यांधकार दशा टली, घट प्रगट्यो सर्वाग प्रकाश रे.. भक्ति० प्रसरी ज्या चिन्मय चांदनी, थयो पंकज वन विकास रे भक्ति०२ ५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्र दल-कमलासने प्रभु, आवी विराजे खास रे"भक्ति० अनुभव वंशी वगाडतां आयो, कृपालुदेव प्रतिश्वासरे.. भक्ति० ३ श्रद्धा-सुमति-शुद्ध चेतना मली, दौड़ी आवे प्रभु पास रे भक्ति० वृत्ति-गोपी सौ टोले मली रमे, परम कृपालु सह रास रे."भक्ति४ भेद विज्ञान दंडी-नाचे सौ, भूली ने देहाध्यास रे.. भक्ति० सहजात्मस्वरूप परमगुरु, धून लागी भागी विष-प्यास रे.."भक्ति०५ चेतन चेतना श्रद्धा सुमति वृत्ति, थया अभिन्न स्ववास रे.. भक्ति० असंग आत्मस्वरूप मां सध्यो, सहजानंद विलास रे.. भक्ति (४१) राज-बाण १६-२-६२ राज-बाण वाग्यां होय तेज जाणे ओल्या पटेलिया शें पिछाणे.."राजबाण... सोभाग्यभाई ने सोसरां वाग्यां, भाग्यु भरम तेज टाणे : नदी सूरज अने ज्ञानी साक्षीओ,लीधुशरण मोज माणे. • राज १ डुंगरभाई नु सिद्धि-गरब गएँ, गाम फेरवी घर आणे : अंबुभाई नु चुरमुं चुकावी, गल्युं मोती-मद बाणे.. राज २ रोता वाल्या रालज पादर थी, लल्लजी पग अणबाणे : देवकरण नी देव-उठनी करी, राज नी गत राजजाणे "राज ३ राजबाणो ना तीक्ष्ण घा खमे, भमे न ते भव खाणे : .. जवले जाणे कोई राजबाण महिमा, सहजानंद बखाणे "राज ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) राज-पद [ ढब भमरिया कुवा ने कांठड़े· · · ] अहो ज्ञानावतार कलिकाल ना हो राज ! जिनमार्ग बतावी जम्बु भरतमा हो राज, तरी बेठा निश्चित महाराज रे ; 'भवना समुद्र ने कांठड़े १ धुं दासानुदास हुं ताहरो हो राज, अने म्हारो तँ छो सिरताज रे भवना ..३ हे देवानंदा-नंद ! सांभलो हो राज, हुं आप बीती कहूं आज रे.. भवना...४ मैं लगनी लगाडी तारा प्रेमनी हो राज, लो महाविदेह जिन-साज रे... भवना २ बली करी अखंड तारा स्मरण ने हो राज, ५८ २८-५-६२ Jain Educationa International सौ तजी लोक लाज रे भवना ५ • • अहिं 'हंपी' मांडी तारी हाटड़ी हो राज, तारो हुं छु' मुनीम कविराज रे ... भवना ७ देवु लेवु' अनादि संसार नुं हो राज, सौ पतवी रह्यो सह व्याज रे...भवना...८ चालुं प्रेमे कृपालु तारी वाटड़ी हो राज, स्थिर थयो तारा भक्ति जहाज रे भवना ६ . एक साथी उत्तम हंसराज रे... भवना...६ For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी ज्ञानी नर-देव सौ राजी छो हो राज, ... पण अंधी दुनिया नाराज रे.. भवना...१० मने परवा नथी अंध जगतनी हो राज, भले वंदे के करे निंदाज रे"भवना...११ रोमे-रोमे गुंजे मंत्र ताहरो हो राज, ध्वनि अनहद संगीत-साज रे.. भवना...१२ कथं प्रेम-कथा एक ताहरी हो राज, जाउं भूली बीजां काम काज रे.. भवना...१३ शेष आयु वीतावी तारी भक्ति मां हो राज, आयु अंते आवीश तुझ पाज रे.. भवना...१४ त्यां पूण स्वरूप पद पामी ने हो राज, ___ सहजानंद सिद्ध स्वराज रे.. भवना...१५ (४३) श्री सद्गुरु राज प्रार्थना . राग-मारी झंपड़िये आपो आपो हो गुरुराज ! कृपालु देवा !! आपो आ रंक ने आज, निज पद सेवा ; आपो० प्रत्यक्ष-महाधीर कलियुग केवली, योगिजन अधिराज. कृ० १ ज्ञानावतार करुणा-रस-सागर, भव्य भवोदधि जहाज • कृ० २ भक्त वात्सल्य थी भक्ति आपी ने, तार्या प्रभु श्री लघुराज. • कृ० ३ सोभाग्यमूर्ति सौभाग्यचन्द्र ने,आप्यु समाधि सुख साज "कृ० ४ उद्धर्या जुठाभाई अंबालालादि, कीधा क्षायिक सुख भाज""कृ०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हुँ. पण आन्यो आप दरबारे, नाथ दासत्व ने काजकृ० ६ धुं तो अधमाधम तो पण आपनों, शरणागत महाराज• • •कृ० रिद्धि सिद्धि नहीं मांगुं तारक ! हूं, ए तो जड़ादि अखाजकृट सेवना फल नहिं मांगें तारक हूँ, मांगें न इन्द्र नर ताज कृ० ६ fasate भक्ति मांग्ये स्वामी थी, सेवक ने शी लाज कृ० १० छे वशवती भक्ति परा ए, सहजानंद समाज कृ० ११ (४४) गुरु महिमा पद जे शिर परमकृपालुदेव, तेने शुं करसे संसार समरथ साहिब शरण लेतां, शो जड़ कर्म नो भार । जड निमित्त रागादि विभावो, टके न वण आधार | जे० | ११ क्षण स्थायी तज-जले बिखरतां, लागे केटली वार । त्रिविध करम बाल मुक्त थवासे, सहजानंद पद सार । जे०/२० (४५) अनुभव पद Jain Educationa International . सफल थयुं भव मारू' हो कृपालु देव ! पामी शरण तमारू हो कृपालु देव ! कलिकाले आ जम्बू भरते, देह धर्यो निज-पर-हित शरते ; टाल्यु मोह अंधारू हो कृपालु० १ धर्म ढोंग ने दूर हटावी, आत्म धर्म नी ज्योत जगावी करयुं 'चेतन जड़ न्यारू हो कृपालु० २ सम्यग् दर्शन - ज्ञान- रमणता, त्रिविध कर्म नी टाली ममता सहजानंद लघु प्यारू हो कृपालु० ३ For Personal and Private Use Only १-८-७३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) प्रेरणा चै० सु० १५।२०२० ता० २७-४-६४ अहो ज्ञानावतार गुरुराज ना हो लाल, सौ केड़ कसी सज्जथावरे, आत्म स्वरूप आराधवा ; आजड़ स्वरूप जंजाल मां हो लाल, केम अटकी रह्या छो सावरे० १आ० आ काले कंटाला मार्गने हो लाल, कर्यु स्वच्छ कृपालु रावरे० आ० चाली चिह्नो करया संकेत ना हो लाल, महा भाग्ये मल्योए दावरे० २ आ० छो बीजा उन्मार्गे चालता हो लाल, अनेमाने सन्मार्ग प्रभाव रे०आ तेथी डगिए नहिं राजमार्ग थी हो लाल, चालो चालो महानुभाव रे आ०३ छेमोक्ष ने मोक्ष उपाय छ हो लाल, आ काले ए श्रद्धा जमाव रे आ० एक निष्ठा थी ए पथ चालता हो लाल, सधे सहजानंद स्वभाव रे आ० ४ (४७) भक्ति-वृष्टि पद २६-५.६ वशाखी पूनम रात्रिए चढ्य मेघाडंबर चिदाकाश रे भक्तिनी वृष्टि थइ रे... वृष्टि थई मिथ्यादृष्टि गई, ला अंतर् दृष्टि प्रकाश रे.. भ० १ आत्म प्रदेश-प्रदेश मां अति, चमके बिजली चौपास रे.. भ० अनहद वाजा वागी रह्या, गाजे संगीत सुर सरी प्रास रे...भ० २ नाचे दहुका करे भक्त-मयूरो, अंगे न माय उल्लास रे...भ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कृपालु गुरुराज पधरावी, मन मन्दिर मां खास रे... भ० ३ परमगुरु सहजात्म स्वरूप - मंत्र बांधे मन श्वास रे... भ० जीव सरोवर छलक्यु' मलक्युं मुख, सहजानंद विलास रे..भ०४ (४८) राज महिमा पद . [ प्रभु आज चरणों में आये तुम्हारे ए ढब ] प्रभु राजचंद्र कृपालु ! हमारे... मैं हूं शरणागत नाथ! तुम्हारे प्रभु० १ . मेरे चिदाकाश के अजब सितारे, मेरे मनोरथ के सारथी भारे... प्रभु० २ तू खेवैया मेरी नैया निकट किनारे, मेरे दुख द्वन्द्व ही कट गये सारे...प्रभु० ३ तू ही मेरे सर्वस्व हृदय दुल्हारे, तेरी कृपा सहजानंद निहारे• • • प्रभु० ४ (४९) प्रेरणा पद ६२ १-११-६४ अवसर आव्यो हाथ अणमोल... (२) झटपट करीले आत्म शुद्धि तुं, सद्गुरु शरणं खोल अव० १ लोक लाज तु शुकरे मूरख ! कां करे टालमटोल ... अव० २ तर्कवितर्क ने निजजन जड़ धन, देह भान सौ छोड़ ... अव० ३ परमकृपालु शरणे था तु भक्तिरसे तरबोल अव० ४ " · परमगुरु सहजात्मस्वरूप तु, रट रट मंत्र अमोल ... अव० ५ आत्मसिद्धि नो मार्ग खरोए, सहजानंद रंगरोल... अव०६ Jain Educationa International २१-११-६४ For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) आत्म-समर्पण पद गुरुपूर्णिमा २०२१ ता० १३-७.६४ गुरुपूनम उत्तम क्षणे, करूं आत्म समर्पण आज रे आपना चरणे नमी रे... चरणेनमी, देहभान वमी, रमी आज्ञा धर्मे जिनराज रे.. आपना०१ सर्वज्ञानी-सुर-आत्म साक्षीए, शरणु स्वीकारू शिरताज रे.. 'आ० नाथ म्हारो एक तुहीज आज थी,परमकृपालु गुरु राजरे...आ०२ पारिवारिक सम बीजा बधा थी, वर्तीश तजी लोक लाजरे.. आ० विचारभेद छतां न करूं प्रीतिभेद,धरी अद्वेष गुण साजरे.. आ०३ सहजात्म स्वरूप परमगुरु मंत्र, केवल बीज भव पाजरे.. आ० म्हारा हृदयमां आपे वावी मने, कों अहो रंक थी राजरे.. 'आ०४ अहो. अहो उपकार ए आपनो, भूलँ न कदी महाराज रे आ० आप कृपा थी निजपद पाम्यो, सहजानंद स्वराज रे.. आ०५ (५१) प्रार्थना २६-७-६५ आवो आवो हो गुरुराज म्हारा ह्रदय मां आपवा भक्ति - साज म्हारा हृदय मां... देहात्म भावना भौतिक सुख नी, वृत्ति छोडावो महाराज... मारा० १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोडावो कल्पना इष्ट अनिष्ट अने, लौकिक धम समाज• • •मारा आत्म भाने वीतराग स्वभावे, ठरू हुं भक्ति जहाज मारा० ३ दृष्टि ज्ञाने हु जोउं जाणु' एक, आप स्वरूप सदाज• • •मारा० ४ शरण- स्मरण रहे नाथ आपनु, सहजानंदघन ताज· · मारा० ५ (५२) प्रार्थना आवो आवो हो गुरुराज, मारी झुपडीए, राखवा पोता नी लाज, मारी झपडीए; जंबू भरते आ काले प्रवर्ते, धर्मना ढोंग समाज • मा० १ तेथी कंटाली आप दरबारे, आव्यो हुं शरणे महाराज मा० २ छतां मूके ना केड़ो आ दुनियां, अंध परीक्षा व्याज.. मा० ३ नामधारी केई आपना ज भक्तो, पजवे कलंक देइ आज• • •मा० ४ Hai पधारो धैर्य धावो, ढील करो शाने महाराज • • मा० ५ आपो आपो खौ ने प्रभु सन्मति, आपो भक्ति नुं साज• • •मा० ६ न हो अंतराय को मारामारग मां,नहिं तो जासे तुज लाज• • •मा७ मूल मारग निर्विघ्ने आराधू सहजानंद स्वराज...मा०८ ६४ Jain Educationa International २६-७-६५ For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) श्री सद्गुरु प्रार्थना अहो गुरुराज ! राखो मुझ लाज, उगारो आज अहो० दुस्तर भीषण भवोदधि सम संसार , मने घेरी वल्यो मोह सैन्य अनंत अपार ; आ अशरण दीन बाल नी चडो व्हार तुम शरणे आवी ने करूं छुपोकार ओ प्राणाधार ! करो मुझ सार, उतारो पार अहो० १ पर परिणति रति पामे नहीं हृदय निवास , मिथ्यातम हरवाने आपो ज्ञान प्रकाश , सुधारस दिव्य पाने हरो मुझ प्यास रोम रोमे व्याप्यो शुद्ध भावोल्लास बीजी नहिं आस, भक्ति अभिलाष, याचं तुझ पास अहो०२ दहो मुझ अनादीय देहाध्यास अनंग , आपो प्रभु सरला सहज समाधि अभंग ; उछलो घट सहजानंद सलिल तरंग पामैं हूँ निज पद सिद्धि सादि अनंते भंग शुद्धातम रंग सुनिर्मल गंग, पाएँ तुम संग अहो०३ (५४) प्रार्थना ढाल-व्हाला वीर जिणेसर जन्म जरा निवारजो रे । आव्यो तुम शरणे गुरुराज, अरज हृदये धरोरे... पापी अधम पतित खल कामी छु मुझ उधरो रे.. आव्यो० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह गुलाम हूँ इंद्रियारामी, नख शिख राग द्वेष भर्यो स्वामी; देहाध्यास अज्ञान थकी मुझ निस्तरो रे १ आव्यो० शरणु आपी तारके हार्या, मुझ समपतित ने कई तार्या ; तेथी पतितोद्धारक मुझ भव भय हरो रे २ आव्यो० सारा ना सौ को सत्कारी, जगमां तेनी शी बलिहारी धन्य तेज जे झाले पापी ना करो रे...३ आव्योः पराभक्ति आपों प्रभु मुझने, आत्मार्पण थई विनवू तुझने ; निष्कारण करुणासागर मुझ कर धरो रे...४ आव्यो० परमगुरु सहजात्म स्वरूप तू, समरू तने निशिदिन एक लय हूं; सहजानंद प्रभु एक आसरो तुझ खरो रे आव्यो० ५ (५५) प्रार्थना गजल दथालु दो दया करके शरणता आपकी. मुझको। न चाहूं अन्य मैं कुछ भी, क्षणिक जड़ तुच्छ वैभव को ।११ हृदय निष्काम भक्ति से, भरो शुद्ध ज्ञान से मस्तक । कर्म मानो सदा साक्षी, बना दो दास को आस्तिक ॥२॥ चराचर भूत प्राणी में, दिखा कर रूप प्रभु अपना । मिटा दो मैं-मेरा ज्ञगड़े, जगत जानू बड़ा अपना ॥३॥ न हो अहंकार जड़ सु व से, न हो जड़ दुख गबराहट । मुझे समभाव में रखकर, छुडालो मोह भूम वहिवट ॥४॥ समी स्मरण निज हरदम, भुलादो देह को अध्यास। पिलाकर सहजआनंद रस, हरो मुझ भव भूमण से त्रास ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) गुरु-महिमा राग-कागड़ो हंसा ! गुरु-शरण में जा-जा, कर सद्गुरु-पद पूजा... पाद प्रक्षालन क्षीर-सागर से, शुचि हो क्षीरोदक ला; गंधोदक ले पद्मद्रहे जा, पद्म सहस्रदल ले आ...हं. रत्नद्वीप से रनो लाकर, भाव शुद्ध ज्ञान-पूजा ; स्वस्तिक हेतु मानसरोवर, ला मुक्ताफल ताजा. हं० २ आत्मार्थे बोधामृत पय पी, तुं कर तृप्त कलेजा ; ज्ञेय भिन्न ज्ञानमूर्ति सो, अहम् सोहं रटे जा. हं० ३ सोहं-हंसो रटत-रटत कर, देहाध्यास इलाजा; मोह क्षोभ मिटाहो अपना, सहजानंद पद राजा. हं०४ (५७) आशीर्वाद-पद . राग-कान्हड़ो मुमुक्षु ! आत्म प्रदीप अपनावो... ___ आज तमे मिथ्यान्धकार हटावो...मु. परम कृपालु देव कृपा थी, सम्यग् श्रद्धा जमावो ; परम गुरु सहजात्म स्वरूप हूं, आत्म भावना भावो. मु० १ प्राण वाणी रस मंत्र स्मरण थी, दिव्य संगीत जगावो ; दिव्य सुगंधी दिव्य सुधारस, दिव्य ज्योति प्रगटावो...मु० २ दिव्य मूर्त्तिना दिव्य स्पर्शेनिज, आत्म प्रदेश हसावो ; राज प्रभुना आज आशीष ए, सहजानंद पद पावो मु० ३ ६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) नूतन वर्षाभिनंदन पद नूतन वर्षाभिनंदन, हो राज मंडली ने ; गुरुराज ना ओ ! नंदन, रहेज्यो हली मली ने ...१ ओ राज चरण वासी, सौ राज पथ प्रवासी ; गुरुराज बोध प्रांशी, रहेज्यो हली मली ने...३ आज्ञा स्व हृदय न्यासी, परा भक्ति ने प्रकाशी ; कुगति- कुधी विनाशी, रहेज्यो हली मली ने...३ सुविचार भेद हो पण, नहिं प्रीति भेद हो क्षण ; सदाचार भेद मां पण, रहेजो हली मली ने...४ सत्संग गंग न्हायी, सहजात्म स्वरूप घ्यायी करी चित्त शुद्धि भाई, रहेजो हली मली ने...५ आ सहजानंदघन नी, आशीष शुद्ध मन नी ; ; द प्राप्ति करो स्वधन नी, रहेजो हली मली ने...६ * (५९) धर्म मर्म म वह हूं जो द्रष्टा ज्ञाता, ये सब दृश्य ज्ञेय अछता ; धर्म-मर्म का बजे नगारा, परमकृपालु देव दुवारा... आत्म भिन्न जड़ तन धन सारा, झूठा है यह जगत पसारा ; अहं मम बुद्धि छोड़ दो प्यारा, मोह क्षोभ से रहो नितन्यारा... · धर्म० १ १३-१०-६३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३१-८-६५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ जड़ किरिया जड़ फल रीता, ज्ञान क्रिया आनंद फलयुक्ता... धर्म०२ परमगुरु सम सत्ता धारी, हूँ सहजात्म स्वरूप न नारी; पुरुष न षंढ न चउगति धारी, ना कोई वर्ण न जाति हमारी... धर्म०३ मैं शास्वत पद के धर्ता हूँ, सहज समाधि के कर्ता हूं; मैं सहजानंदघन आत्मा हूँ, मैं ही आत्मा परमात्मा हूं...धर्म० ४ (६०) वड़वा आश्रम के प्रति __ हंपि, ता० २७-६-६६ वड़वा नी वाड़ी लीली छम रहो रे लो० आ कालेआ जंबु भरत मां रे लोल, हतोभूख मरो आध्यात्मरे : आत्मार्थी जनो विरला वच्या रे लोल, त्यारे अवतर्या राज परमात्मरे...१ जे वड्या नी छाये मीठी वावड़ी रे लोल, त्यां खोल्युं सदावतधामरे मृतप्राये अमृत रस सिंची ने रे लोल, आप्यु अमरफल ने विश्राम रे.. वडवा० २ मृतप्राय केई करी जीवता रे लोल, गया परम कृपालु निज धामरे आ वाडी तेनीकरी स्थापना रे लोल, शुकराजे अपी निज आम रे...वडवा० ३ मत पंथ खाडा ने टेकरा रे लोल, कर्यु समीरण री हाथ रे ; नव वाडे विशुद्ध ए वाड़ी मां रे लोल, वाव्या समकित बीज अभिरामरे...वड़वा०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहभागी कर्यो केइ सज्जनो रे लोल, एम श्रमदाने पूर्या प्राण रे; अंतेवासी जनो ने सौंपी ने रे लोल, शुकराजे कर्य महाप्रयाण रे... वडवा० ५ तेनु' अर्द्ध शताब्दी दिन आज छेरे लोल कर्यु हार्दिक स्वागत आम रे अवाड़ी सदा लीलीछम रहो रे लोल, सहजानंदघन धाम रे ; ... वड़वा० ६ श्रीमद् के गद्य वचनामृत के पद्य भावानुवाद (६१) सदगुरु - माहात्म्य-पद कव्वाली अहो सत्पुरुष ना वचनो ! अहो मुद्रा !! अहो सत्संग !!! सुतेली चेतना जगवे, पडेली वृत्तिए दृढ रंग...१ जे दर्शन मात्र थी निर्दोष - अपूर्व स्वभाव ने प्रेरे ; स्वरूप प्रतीति अवगाढी, अप्रमत्त संयमे हेरे...२ चढावी क्षपक श्रेणी मां, धरावे ध्यान शुक्ल अनन्य ; पूर्ण वीतराग निर्विकल्प, आप स्वभाव दायक धन्य ! ३ अयोगी भाव थी छल्ले, स्व अव्याबाध सिद्ध अनंत ; 100 ७० पावापुरी २-८-५३ स्थिति दाता अहो गुरुराज ! वर्त्तो कालत्रय जयवंत...४ अहो गुरुराज नी करुणा, अनंतु भव भूमण कापे ; अनादिय रंकता टाली, जे सहजानंद पद स्थापे... ५ [श्रीमद राजचंद्र पत्रांक ३३४८७५ का पद्य रूप] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) सद्गुरु-माहात्म्य-पद कव्वाली अहो सत्पुरुषके वचनों ! अहो मुद्रा !! अहो सत्संग !!! जगावें सुप्त चेतनको, स्खलित वृत्तियाँ करें उत्तुंग ॥१॥ जो दर्शन मात्र से निर्दोष, अपूर्व स्वभाव प्रेरक हैं; स्वरूप- प्रतीति संयम अप्रमत्त-समाधि पुष्ट करें ॥२॥ चढ़ाकर क्षपक श्रेणी पै, घरावें ध्यान शुक्ल अनन्य; पूर्ण वीतराग निर्विकल्प, आप स्वभावदायक धन्य ! ॥ ३॥ अयोगी - भावसे प्रान्ते, स्व-अव्याबाध सिद्ध अनन्त - स्थिति - दाता ! गुरूराज !! वर्त्ती कालत्रय जयवंत !!! ४ || अहो गुरुराजकी करुणा ! अनंत संसार जड़ जारे ; जो सहजानंद पद देकर, अनादिय रंकता टारे ॥५॥ [श्रीमद राजचंद्र पत्रांङ्क ६३४१८७५ ] (६३) मुमुक्षु कर्तव्य पद हरिगीत छन्द रजा - सर्वस्व सत्य प्रमाणिने, बीजुं कशुं मा शोध केवल शोध तुं र त्पुरुषने, अर्पाइ जा तेना चरणमां सर्वथा शुद्धतर मने ; राजी रहे तेनी पछी मोक्ष जो तुझ ना मले तो मागजे मारी कने ॥ १ ॥ सत्पुरुष तेज के जेहनो आत्मोपयोग ज अटल छे, अनुभव प्रधान ज वचन जेनु शास्त्र - श्रुतिए पटल छे ; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७१ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरंग हच्छा रहित जनी गुप्त आचरणा सदा, निन्दा स्तुति शाता अशा अशाताथी न मन सुख-दुख कदा ॥२॥ भव एक जो सत्पुरुषने राजी करे सहवासथी, तेनी बधी इच्छा प्रशंसे रोम रोम उल्लासथी ; पंदर भवो मांहेज तो तूं पामशे मुगति सही, गुरुराज-अनुभव-गंग सहजानंद-रसथी लहलही ॥३॥ [श्रीमद् राजचन्द्र पत्राङ्क १६४-७६] (६४) सत्पुरुष-लक्षण पद ता० ३१-३-५४ मनहर-छन्द मनोवृत्ति वहे निराबाध निरंतर जेनीसंकल्पो विकल्पो जेणे अति-मंद पाड्या छे, पंच-विषये विरक्त-युद्धिना अंकूरा फूट्याक्लेशनां कारण जेणे मूलथी उखेड्यां छे ; अनेकान्त-दृष्टि युक्त एकान्त सुदृष्टि सेवेजेनी सहजानन्दघन शुद्ध वृत्ति वहे छे, जेमां सद्गुरुत्व अने सत्संग सत्कथा रह्योंते जयवंता वत्र्तों ! तेने सत्पुरुष कहे छे...१ (६५) सत्शिक्षा पद कन्चाली अहो ! परम शान्त रसमय, शुद्ध धर्म वीतरागी ; छे पूर्ण सत्य नियमा, कर मान्य जीव ! जागी ।।१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज अनधिकारिताथी; वण सत्पुरुष कृपाथी ; समजाय ना अगम ए, पण सुगम गम पड्याथी ॥२॥ हितकारी जगत भरमां, औषध न ए समु को, भवरोग टालवाने, ले ले कहुं खरू हो " ...॥३॥ आ क्लेशमय भूमणथी, तुं विरम ! विरम !! प्यारे !!! हे चेत! चेत !! चेतन !!! आ परम तत्त्व ध्या रे ||४|| चिन्तामणि समो आ, नर देह विफल नहिं तो ; माथे चडाव आज्ञा, गुरुराजनी अहिं हो ।।५।। सत्संग गंग न्हायी, कर चित्त शुद्धि भाई ! ज्ञायक स्वभाव ध्यायी, ले सहजानन्द स्थायी ॥६॥ [श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ४०६-५०५ ] (६६) दिव्य-सन्देश पद २६-४-५५ मनहर-छन्द उपयोग लक्षणे सनातन स्फुरित एवोआतम स्वरूप निज ध्यानमा जमावो रे। औदारिक वैक्रिय आहारक तैजस अनेकार्मण काया पंचेथी भिन्न सदा ध्यावो रे ।। शाता ने अशातानुवेदन छे अबंध लगीतेना कर्ता शुभाशुभ ध्यानने भगावो रे। स्वरूप मर्यादा स्थित आत्मामा जे चल भाव- ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेना नाश माटे ज्ञाननिष्ठाने जगावो रे ॥१॥ शुद्ध चतन्य स्वभाव स्वयंज्योति छे छतां \कर्मयोगे आतमा सकलंक देखाय जे। तेथी उपराम उपशमित थवाय जेमतेम तेम ज्ञाननिष्ठा सघन सधाय छ । माटे स्वरूपमा स्थिर अचल थवाय तेजलक्ष राखो भावो 'आत्मभावना' सदाय रे । तेवो सहज स्वभाव सिद्ध करो ! करो !! एजगुरुराज-बोध सहजानन्दनो उपाय छे ।।२।। [श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ६४४-६१३ ] (६७) प्रेरणा-पद हरिगीत-छन्द ३१-३-५४ आ जगत ने रूडु बतावा यत्न तो कीधु घणु, तेथी थयुन भलु जगतनु ना थयु पोता तणु; केमके हजी भवभूमण भवभूमण-कारण ना टल्या, रंजित-भने बंधन कर्या ते भवोभव आवी फल्या ।।१।। जो एक भव निज आत्मश्रेय सधाय तेम विताविये, तो परम्पर-नुकशान-पूर्ति आ भवेज कमाविये ; भव-बंधनेथी छटवा जे श्रेष्ठ साधन ते करो, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते काज जग अनुकूलता प्रतिकूलता चित्त ना धरो ॥२॥ शुमान के अपमानथी भुंडु भलु थाय आतमा ? अपकीर्ति कीर्ति रहे अहिं तन राख सह शमशानमां ; उपयोग शुद्ध करवा तजो संकल्प विकल्पो बधा, स्मरो साधना प्रभु-पार्श्व - वीर - जिणंदनी क्षण क्षण मुदा ||३|| कोई पण प्रकारे राग-द्वेष तजो भजो मिज सत्वने, सत्पुरुषने शरणे रहीने अनुभवो निज तत्वने; अलगा रहो मत-पंथथी ए शिष्ट सम्मत धर्म छे, नृपचंद्र संत-स्वरूप सहजानंद - कंदनो मर्म छे ||४|| [ श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ३७ ] (६५) अंतिम मांगलिक प्रार्थना [ ॐ जय जय जय जिनदेव.. ए चाल] ॐ परम कृपालु देव ! जय परम कृपालु देव !!! हे परम कृपालु देव !!! दुःखोनो, जन्म जरा मरणादिक सर्व अत्यन्त क्षय करनार ; जे अत्यं० (२) एवो वीतराग पुरुषोनो, तीर्थङ्कर मुनि जननो, रत्नत्रयी पथ सार० ॐ परम० १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल मार्ग ते आप्यो मुझ रंक बालने, अनंत कृपा करी आप; प्रभु अतन्त० (२) . नाथ चरण बलिहारी, हरि भव भांति म्हारी, अहो उपकार अमाप० ॐ परम० २.. प्रत्युपकार ते वालवा • ने हुं छु, सर्वथाज असमर्थ ; छु सर्व० (२) निष्पृह छो कंइ लेवा, आप श्रीमद् महादेवा, परितृप्त निज अर्थ० ॐ परम० ३ जेथी-मन वच तन एकाग्र थइ नमुं ___आप चरण अरविन्द ; नमुं आप० (२) आत्मा अर्पु तुझने, परम भक्ति हो मुझने, . याचु न जड़ पद इन्द० ॐ परम० ४ अने वीतराग पुरुषो -ना मूल धर्मनी, उपासना ज अखंड ; प्रभु उपा० (२) जागृत रहो उर म्हारे, भव पर्यत ए म्हारे, छटो विषयानंद० ॐ परम० ५ आप कने हे नाथ ! एटलु हुं मांगु ते, सफल थाओ अभिलाष; मुझ सफल० (२) हुँ सेवक तू स्वामी, पुष्ट निमित्त अनुगामी, सहजानन्द विलास० ॐ परम० ६ - [श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ४१७ का पद्य रूप ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) दिव्य - सन्देश राग - मालकोश सहजात्म स्वरूप परमगुरू (२) बीजो प्रगट श्री राम महावीर, कलिकाले ए कल्पतरु, अचिन्त्य - चिन्तामणि चिन्मूर्ति, कामधेनु ने कामचरु• • स० १ त्रिविध ताप हरे भूम भांगे, सिंची सुधारस भूमि-मरु... निष्कारण करुणा रस - सागर, वाट चढावे वाट सरू • स० २ षमकाल ना दुर्भागीओ ? ल्यो-ल्यो एनु शरण खरू ; बोध पुरुष गुरुराज प्रभु नुं, सहजानंदघन स्मरण करू. स० ३ [ श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ६८० का पद्य रूप ] (७०) भावना • Jain Educationa International ४-१०-५७ हे काम ! जा बेकाम रे निर्लज ! दूर हटो हे मान ! हे सँग उदय ! जा अस्ताचल पर मौन रहो हे जबान ।.. हे मोह । तेरा न मोह हमको, हम नहीं तेरे गुलाम; ·१ १८-१-५८. हे मोह दया ! जा जा अब झट पट, तुम पर दया हराम...२ हे शिथिलता होजा शिथिल तूं, कभी न आ मम अंग; हे देहाध्यास ! खवास ! भागजा, हमें नहीं कर तंग...३ हे परमगुरु सहजात्म स्वरूपी ! ममहिय करो निवास; तुमरे दर्शन - स्पर्शन से ही नित्य सहजानंद विलास...४ [ श्रीमद् रामचंद्र पत्रांक ७७ पृ० ८२३ ) For Personal and Private Use Only ७७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद राजचन्द्र प्रणीतप्रात्म-सिद्धि भावानुवाद [ प्राचीन हिन्दी पद्य] दोहा मंगल : जो स्वरूप समझे बिना, पायो दुःख अनंत । समझायो तत्पद नमू, श्री सद्गुरु भगवंत ॥ १ ॥ पोटिका : इस काले इस क्षेत्रमें, लुप्तप्राय शिव-राह । समज्ञ हेतु आत्मार्थीको, कहूँ अगोप्य प्रवाह ।।२।। कई क्रियाजड़ हो रहे, शुष्कज्ञानी कितनेक। मोक्षमार्गके नाम पै, करुणा उपजत देख ॥३॥ बाह्य-क्रियामें मगन हैं, अंतर्भेद न लेश । ज्ञान-मार्ग ठुकरात हैं, यहि क्रिया जड़ क्लेश ॥ ४ ॥ 'बंध मोक्ष हैं कल्पना', कथनी कथने शूर । करणी मोहावेश मय, शुष्कज्ञानी वे कूर ॥५॥ वैराग्यादिक सफल तब, जो सह आतमज्ञान । अथवा आतमज्ञानकी, प्राप्ति हेतु परधान ॥ ६ ॥ त्याग विराग न चित्तमें, होत न ताको ज्ञान । ७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटके त्याग विरागमें, सो भी भूले भान ॥ ७ ॥ जहां जहां जो योग्य है, आत्म-ज्ञान त्यागादि । साधनपूर्ति प्रवर्त्तना, आत्मार्थी अप्रमादि ॥ ८ ॥ सेवे सद्गुरु चरनको, तजे स्व- आग्रह - पक्ष । पावे सो परमार्थको, भजे स्व-पदको लक्ष ॥ ६॥ आत्मज्ञान समर्शिता, विचरे उदय प्रयोग । अपूर्ववाणी परमश्रुत, सद्गुरु - लक्षण प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष प्रभु ऐसो लक्ष भये बिना, सुझे न आत्म-विचार || ११ || सद्गुरु के उपदेश बिनु, गम न परत तब उपकार हि क्या बने । गमसों हो आत्मादिक अस्तित्वके, जो दर्शक प्रत्यक्ष संत-वियोग में, हैं आधार अथवा गुरु आज्ञा मिली, जो स्वाध्याय निमता होय विचारिये, नित्य नियम , रोके जीव स्वच्छन्द तव, पावे या विधि पाया मोक्ष सब कहें जिनेन्द्र अदोष || १५ || प्रत्यक्ष सदगुरु योगसों, स्वच्छंद पिंड छुडाय | अन्य उपाय करत यही होवत दुगुणों प्राय ||१६|| स्वच्छंद मत - आग्रह नशे, विलसे सद्गुरु लक्ष । कह्यो याहि सम्यक्त्व है, कारण लखी प्रत्यक्ष ||१७|| Jain Educationa International योग्य || १०|| उपकार । प्रभु - रूप | जिन भूप ॥ १२ ॥ सत्शास्त्र । सुपात्र ||१३|| विशेष । सुप्रवेश || १४ || अवश्य मोक्ष | For Personal and Private Use Only ७ह Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजवंदनसों ना मरे, रिपु मानादि महान । सदगुरु चरण सुशरणसों, अल्प प्रयास प्रयाण || १८ || जा सदगुरु उपदेशतें, पायो केवलज्ञान । गुरु यद्यपि छद्यस्थ हों, विनय करें ऐसो मारग विनयको, कह्यो जिनेन्द्र この भगवान ॥ १६ ॥ अराग । मूलमार्गक सुभाग्य ||२०|| मर्मको, समझे कोइ असद्गुरु इस विनयको, लाभ लहे जो बिन्दु | महामोहनीय कर्मसों, चल्यो जाय भव- सिन्धु ॥२१॥ होय मुमुक्षु जीव सो, याहि समझ अपनात । होय मतार्थी जीव सो, उलट वाट बहि जात ॥२२॥ होय मतार्थी तो उसे, होत न आतम-लक्ष | लक्षण उसी मतार्थीके, कहूं अत्र निपेक्ष ||२३|| मतार्थी लक्षण : बाह्य-त्याग बहिरातमा, तामें सद्गुरु अथवा निजकुलधर्मके, गुरुमें ममत जो जिन देह प्रमाण अरु, समोसरणादि जिन स्वरूप माने यही, बहलावे निज प्रत्यक्ष सद्गुरु योगमें, वर्त्ते दृष्टि असद्गुरुको दृढ़ करे, निज देवादिक गति भंगमें, जो समझे श्रुतज्ञान । माने निजमत- भेषको आग्रह मुक्ति निदान ||२७|| Jain Educationa International भाव ! प्रभाव ||२४|| सिद्धि । For Personal and Private Use Only बुद्धि ॥२५॥ विरुद्ध । मानार्थे भुग्ध ||२६|| Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायो स्वरूप न वृत्तिको, धायो व्रत-अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थको, प्रलुब्ध लौकिक-मान ॥२८॥ अथवा निश्चय-नय गहे, शब्द मात्र नहिँ भाव । लोपे सद्व्यवहारको, तजि सत्साधन नाव ॥२१॥ शानदशा पायी नहीं, साधनदशा न अंक । पावे ताका संग जो, सो डूबत भव-पंक ॥३०॥ यह भी जीव मतार्थ में, निज मानादिक हेतु । पावे नहीं परमार्थको, अन्-अधिकारी केतु ॥३१॥ नहिं कषाय उपशांतता, नहिँ अंतर्वैराग्य । सरलता न मध्यस्थता, यह मतार्थी दुर्भाग्य ॥३॥ लक्षण कहे मतार्थीके, मतार्थ निरसन हेतु । कहूँ अब आत्मार्थीके, आत्म अर्थ सुख-सेतु ॥३३॥ आत्मार्थी-लक्षण : आत्मज्ञान सह साधुता, वे सच्चे गुरु संत । तजे अन्य गुरु कल्पना, आत्मार्थी गुणवंत ॥३४॥ प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिको, गिनत परम उपकार । मन वच तन एकत्वसों, वर्ते आज्ञाधार ।। एकहि होय त्रिकालमें, परमारथको पंथ । प्रेरक उस परमार्थको, सो व्यवहार समंत ॥३६॥ ऐसे दृढ़ श्रद्धानतें, शोधे सद्गुरु योग । काम एक आत्मार्थको, अवर नहीं मन-रोग ॥३७॥ कषायकी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष । ८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवे-खेद प्राणी-दया, तहँ आत्मार्थ निवास ॥२८॥ ऐसी नहिँ सत्पात्रता, तबलों जीव अयोग्य। मोक्षमार्ग पावे नहीं, मिटे न अंतर-रोग ॥३६॥ आवे जब सत्पात्रता, परिणमतहि सबोध । प्रगटे सुखदायक महा, सद्-विचारणा शोध ॥४०॥ ज्यों प्रगटे सुविचारणा, त्यों प्रगटे निज-ज्ञान । जिस ज्ञाने हो मोह-क्षय, पावे पद "निर्वाण ॥४१॥ उत्पादक सुविचारणा, मोक्ष मारग नियंत्र। गुरु-शिष्य-संवाद मिस, कहूं षट्पदी-तंत्र ॥४२॥ ग्रन्थ-विषय : 'आत्मा है' 'सो नित्य है', 'हे कर्त्ता निजकर्म'। 'है भोक्ता अरु 'मोक्ष है', मोक्षोपाय' सुधर्म ॥४३॥ षट् स्थानक संक्षेपमें, षट् दर्शन भी येहि । समझ हेतु परमार्थको, कहे जिनराज विदेहि ॥४४|| (१) शंका-शिष्य उवाच : दृष्टिसों दिखता नहीं, ज्ञात न होवे रूप । स्पर्शादिक अनुभव नहीं, तातें न आत्म-स्वरूप ॥४५॥ अथवा देह हि आतमा, किंवा इन्द्रिय प्राण । मिथ्या है भिन्न मान्यता, मिलत न भिन्न निशान ॥४६॥ अरु होवे यदि आतमा, काहे न प्रगट लखात । लखाय जो होवे यथा, घट पटादि विख्यात ॥४७|| तातें नहिं है आतमा, मिथ्या मोक्ष-उपाय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अंतर-शंका हरो, तरनतारन गुरुराय ! ॥४८॥ समाधान-सद्गुरु उवाच : भासत देहाध्याससों, आत्मा देह समान । किन्तु दोनों भिन्न हैं, लक्षण भिन्न प्रमाण ॥४६॥ भासत देहाध्याससों, आत्मा देह समान । किन्तु दोनों भिन्न हैं, ज्यों खड्ग अरु म्यान ॥५०॥ जो दृष्टा है दृष्टिको, जो जानत है रूप । अबाध्य अनुभव जो रहत, सो है आत्म-स्वरूप ॥५१॥ है इन्द्रिय प्रत्येकको, स्व स्व विषयका ज्ञान । किन्तु पांचों विषयका, ज्ञाता आत्मा जान ॥५२॥ देह न जानत विषयको, जाने न इन्द्रिय प्राण । आत्माकी सत्ता लिए, होत विषय पहिचान ॥५३॥ जागत स्वप्न सुषुप्तिका, ज्ञाता भिन्न लखात । प्रगट रूप चैतन्यमय, सदा चिह्न विख्यात ॥५४॥ जानत घट पट आदि तू, तातें ताको मान । ज्ञाताको मानत नहीं, यह कैसो तुझ ज्ञान ? ॥५५॥ परमवुद्धि कृष-देहमें, स्थूल देह मति अल्प । देह होय जो आतमा, घटे विरोध न स्वल्प ॥५६॥ जड़-जड़ता चित्-चेतना, प्रगट भिन्न स्व स्व भाव । कभी न पावें एकता, दोय स्वतंत्र प्रभाव ॥५७॥ शंका निज अस्तित्वको, करे आप नहिं देह । शंकाकार हि आतमा, अररर ! दिग्-भम एह ॥५८।। ८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) शंका, शिष्य उवाच: आत्माके अस्तित्वके, जो जो कहे प्रमाण । विचार-दृग् हिय-ज्योतसों, भयी प्रतीति प्रधान ॥५६॥ परन्तु शंका दूसरी, आत्मा नहिं अविनाश । देह-योगसों बनत है, देह संगहिं विनाश ।।६०॥ अथवा वस्तु क्षणिक हैं, क्षण क्षणमें पलटात । इस अनुभवसों भी नहीं, आत्मा नित्य लखात ॥६१।। समाधान-सद्गुरु उवाच: देह मात्र संयोग है, अरु जड़ रूपी दृश्य । आत्माकी उत्पत्ति लय, किसके अनुभववश्य ॥६२॥ जाके अनुभववश्य यह, उत्पत्ति-लय-विज्ञान। ताके भिन्न अस्तित्व बिनु, कुछ भी रहत न भान ॥६३।। देहादिक संयोग सब, आत्माके दृश्य । उपजत नहिं संयोगसों, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ जड़तें चिद्-उत्पत्ति अरु, चित्तें जड़-उत्पाद । कभी किसीको होत ना, ऐसो अनुभव-स्वाद ॥६५॥ कोइ संयोगोंसों नहीं, जाकी उत्पत्ति होय । नाश न ताको काहुमें, तातें नित्य हि सोय ॥६६॥ तरतमता क्रोधादिकी, सादिकमें ज्योंहि । पूर्व-जन्म संस्कार यह, जीव नित्यता त्योंहि ॥६॥ आत्मा नित्य हि द्रव्यसों, पलटत हैं पर्याय । बाल युवा वृद्ध तीनमें, एक हि आतमराय ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो क्षण-स्थायी आपका, ज्ञाता सो वक्तार । वक्ता कभी न क्षणिक है, कर अनुभव निरधार ॥६६॥ कभी कोइ भी द्रव्यमा, केवल होत न नाश । आत्मा पावे नाश तब, किसमें मिले ? तलाश ॥७॥ (३) शंका-शिष्य उवाच:- . कर्ता जीव न कर्मको, कर्म हि कर्ता कर्म । अथवा सहज स्वभाव या, कर्म जीवको धर्म ॥७॥ आत्मा सदा असंग अरु, करे प्रकृति हि बन्ध । अथवा ईश्वर प्रेरणा, जातें जीव अबन्ध ।।७२।। तातें मोक्ष उपायको, कोई न हेतु लखात । जीव कर्म-कत्तत्व नहीं, हो यदि तो न नशात ॥७३॥ समाधान-सद्गुरु उवाच: होय न चेतन प्रेरणा, कौन ग्रहे तब कर्म । जड़ स्वभाव नहिँ प्रेरणा, खोजो याको मम ॥४॥ जब चेतन करता नहीं, तब नहिं होवें कर्म । तातें सहज स्वभाव ना, त्योंहि न आतम-धर्म ७५।। आत्मा असंग मात्र जो, क्यों नहिं भासत तोहि । असंग है परमार्थसों, जबकि स्वदृष्टि अमोहि ।।७६।। कर्ता प्रभु भिन्न व्यक्ति ना, प्रभु निज शुद्ध स्वभाव । भिन्न प्रभु प्रेरक गिनत, प्रभु-पद दोष लखाव ।।७७।। ज्ञाननिष्ठ जब चेतना, कर्ता कर्म अभाव । भूले ज्ञायकभाव तब, कर्ता कर्म प्रभाव ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) शंका-शिष्य उवाच : जीव कर्म-कर्ता रहो, किन्तु न भोक्ता सोय । क्या समझे जड़ कर्म जो, फल परिणामी होय ? ॥७६।। फलदाता प्रभुको गिनत, भोक्ता-सिद्धि सुथाप । . परन्तु तातें होत है, ईश्वरता उत्थाप. 100 ईश्वर-सिद्धि बिना कभी, विश्व-नियन्त्र न होय । तथा शुभाशुभ कर्मका, भोग्य स्थान न कोय ।।८१॥ समाधान-सद्गुरु उवाच: भाव-कर्म निज-कल्पना, तातें चेतन रूप । स्फुरणा आतम-वीर्य की, ग्रहण करे जड़-धूप। ८२॥ जहर सुधा जड़ अज्ञ पे, जीव खाय फल पाय । योंहि शुभाशुभ कर्मका, भोक्ता जीव लखाय ॥३॥ एक रंक अरु एक नृप, इत्यादिक जो भेद । कारण बिना न कार्य ये, याहि शुभाशुभ वेध ॥४॥ फलदाता-प्रभुकी यहां, कुछ भी नहीं जरूर । कर्म : स्वभावे परिणमत, होय भोगसों दूर ॥५॥ वे वे भोग्य विशेषके, स्थानक द्रव्य स्वभाव। . गहन बात है शिष्य ! यह, स्वल्प कहा प्रस्ताव ।।८।। (५) शंका-शिष्य उवाच: कर्ता भोक्ता जीव हो, किन्तु न : ताका मोक्ष । बीत्यो : काल अनन्तः पैं, वर्त्त रह्यो यह दोष ।।७।। शुभ करके फल भोगवे, देवादिक गति जाहि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुभ करे नरकादि फल, कम मुक्त न कहांहि ।।८।। समाधान-सदगुरु उवाच : ज्योंहि शुभाशुभ-कर्म-पद, जाने सफल प्रमाण । त्यों तन्निवृत्ति सफलता, तातें मोक्ष सुजाण IICE|| बीत्यो काल अनन्त सो, कर्मासक्ति प्रभाव। वृत्ति-शुभाशुभ संवरत, उपजे मोक्ष स्वभाव ।।१०|| .. देहादिक संयोगका, आत्यंतिक हि वियोग। . . सिद्ध मोक्ष शाश्वत पदे, निज अनन्तः सुख भोग ।।६१॥ (६) शंका-शिष्य उवाच: यदपि मोक्ष-पद हो तदपि, नहिँ अविरोध उपाय । . . . कैसे काल अनन्तकी, जावे कर्म-बलाय ? ॥१२॥ अथवा मत दर्शन बहुत, कहें उपाय अनेक। तामें सत्-मत कौन है ? सूझत नाहिं विवेक ॥१३॥ मोक्ष होय किस जातिमें ? कौन भेषसों मोक्ष ? ताका निश्चय होत ना, बहुत भेद यह दोष ॥१४॥ तातें ऐसी मति भयी, मिले न मोक्षोपाय। मात्र अकेले ज्ञानसों, कैसे भव-दुःख जाय ? ॥६५॥ समाधान पूरण भयो, पाँच उत्तरसों प्राज्ञ । समझू मोक्ष-उपाय तब, उदय उदय सद्भाग्य ॥१६॥ · समाधान सदगुरू उवाच : पांच सदुत्तरकी भयी, आत्मामें सुप्रतीति । .. होगा मोक्षोपायका, समाधान उस रीति ॥णा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मभाव अज्ञान है, मोक्षभाव निज-वास। अंधकार सम अज्ञता, नाशे . ज्ञान-प्रकाश ॥८ जो जो कारण बन्धके, सो हि बन्धको पंथ । तत्-कारण छेदक-दशा, मोक्ष-पंथ भव-अन्त | राग द्वेष अज्ञान ये, कर्म-गन्थि भव-गाह । जासों तास निवृत्ति हो, रत्नत्रयी शिव-राह ॥१०॥ आत्मा सत्-चैतन्यमय, सर्वाभास विमुक्त । जासों केवल पाइये, शिव-मग रीति सुयुक्त ।।१०१॥ कर्म अनन्त प्रकारके, तामें मुख्यत आठ। मोहनीय तामें प्रमुख, तन्नाशक कहूँ पाठ ।।१०२॥ मोहनीय के भेद दो, दर्शन-चारित्र-रोग। औषध बोध अरागता, याहि उपाय अमोघ ॥१०३।। कर्म-बन्ध क्रोधादिसों, नशे क्षमादिकसों हि। सबको अनुभौ प्रगत, यामें संशय क्योंहि ? ॥१०४।। मत-दर्शनका छाँडिके, आग्रह और विकल्प । उक्त मार्ग पै जो चले, रहें जन्म तस अल्प ॥१०५॥ षट्पदके षट् प्रश्न ये, जो पूछे हितकार। ताकी जो सर्वांगता, मोक्ष मार्ग निरधार ॥१०६॥ जाति-भेषको भेद ना, कह्यो मार्ग जो होय। साधे सो मुक्ति लहे, यामें फेर न कोय।।१०७॥ कषायकी उपशांतता, मात्र मोक्ष-अमिलाषु । भवे-खेद अन्तर-दया, ये लक्षण जिज्ञाषु ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता जिज्ञाषु सत्पात्र को, मिल्ने योग सोध । तो पावे सम्यक्त्व अरु, वर्ते अंतर्शोध ॥१०॥ मत दर्शन आग्रह तजे, वर्ते सद्गुरू-लक्ष । लहे शुद्ध-सम्यक्त्व सो, यामें भेद न पक्ष ॥११०॥ वर्स निज स्वभावको, अनुभौ लक्ष प्रतीत । वृत्ति बहे निज भावमें, परमार्थे समकीत ॥११॥ वर्द्ध मान सम्यक्त्व हो, टाले मिथ्याभास। . उदय होय चारित्रको, वीतराग-पद वास ।।११२॥ केवल निज स्वभावको, अखंड वर्ते ज्ञान। कहिये केवलज्ञान यह, याहि सतनु-निर्वाण ॥११३॥ कोटि वर्षको स्वप्न भी, जागत होतहिं नाश । त्योंहि विभाव अनादिको, ज्ञानोदयमें गास ॥११४!! छूटे देहाध्यास तब, नहिं कर्ता तूं कर्म । कर्म-फल-भोक्ता न तुं, याहि धर्मको मर्म ॥११५।। याहि धर्मते मोक्ष है, तू है मोक्ष स्वरूप। अनन्त दर्शन ज्ञान तूं, अव्याबाध स्वरूप ॥११६।। शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति शिव-शर्म। कर विचार तो पायेगा, अधिक कहूं क्या मर्म ।।११७॥ निश्चय ज्ञानी सर्वको, आकर अत्र शमाय । कथके यो धरि मौनता, सहज समाधि जमाय ॥११८।। शिष्यको बोध-बीज-प्राप्ति :- . सद्गुरूके उपदेशसों, पायो अपूर्व भान । निजपद निजमें अनुभव्यो, मिटि गयो मन-अज्ञान ॥११॥ ८६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्यो आतम देव निज, शुद्ध चेतना रूप। अज अजरामर अमल प्रभु, देहातीत स्वरूप ॥१२॥ कर्ता भोक्ता कर्मको, जबलों वृत्ति विभाव । भयो अकर्ता आप तब, वृत्ति बहत निज भाव ॥१२।। अथवा निज परिणाम जो, शुद्ध चेतना रूप । कर्ता भोक्ता आपके,-निर्विकल्प स्वरूप ॥१२२॥ मोक्ष को निज शुद्धता, रत्नत्रयी शिव-पंथ। समझायो संक्षेपसों, सकल मार्ग-निर्गन्थ ॥१२३।। अहो! अहो !! श्री सद् गुरु !!! करुणासिन्धु अपार । इस पामर पै प्रभु कियो, अहो ! अहो !! उपकार !!! ॥१२४।। कासों पू प्रभु-चरण, आत्मातें ‘सब हीन । सो बक्ष्यो प्रभु आपहि, वर्तुं चरणाधीन ॥१२५॥ ये देहादिक आजतें, वत्र्तो प्रभु आधीन । दास दास मैं दास हूँ, आप प्रभुको दीन ।।१२६।। षट् स्थानक समझायके, भिन्न बतायो आप। प्रगट म्यान तलवार वत् , यह उपकार अमाप ॥१२॥ उपसंहार :दर्शन छहों समात हैं, इन घट स्थानक सिन्धु । मनन करत विस्तारसों, संशय रहे न बिन्दु ॥१२८|| आत्मभान्ति सम रोग नहि, सदगुरू वैद्य सजाण । गुरु-आज्ञा सम पथ्य नहिँ, औषध विचार-ध्यान ।।१।। जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य-पुरुषार्थ । ' भवस्थिति आदिक आड ले, मत चूको आत्माथं ॥१३०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिके निश्चय देशना, 'तजो न साधन कोय । धरिक निश्चय लक्षमें, करो साधना सोय ॥१३॥ निश्चय-नय एकान्तसों, अत्र कह्यो नहिं लेश। एकान्ते व्यवहार ना, उभय दृष्टि सापेक्ष ॥१३२।। गच्छ-मतकी जो कल्पना, यह नहिं सद्व्यवहार । भान नहीं निज रूपको, सो निश्चय नहिँ सार ॥१३३॥ जो जो ज्ञानी हो गये, वर्तमान में होय । होवेंगे जो भाविमें, मार्ग-भेद नहिँ कोय ॥१३४।। जीव-शक्ति सब सिद्ध सम, व्यक्त समझसों होय । सदगुरु-आज्ञा जिन-दशा, निमित्तकारण दोय ॥१३५।। उपादानकी आड ले, जो ये तजे निमित्त । पावे नहिं सिद्धत्वको, रहे भान्तिमें स्थित ॥१३६।। मुखसों ज्ञान कथे तदपि, हियसो गयो न मोह । सो पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीको द्रोह ।।१३७॥ दया शान्ति समता क्षमा, सत्य त्याग वैराग्य । होय मुमुक्षु हृदयमें, साधक दशा सुजाग्य ॥१३८।। मोहभाव क्षय हो जहाँ, अथवा होय प्रशान्त । वह कहिये ज्ञानीदशा, अवर कहावे भान्त ॥१३॥ जाके सब जग ऐंठवत् , अथवा स्वप्न समान। वह कहिये ज्ञानीदशा, अवर हि वाचाज्ञान ॥१४०॥ स्थानक पांच विचारिके, वर्ते छछामांहि । पावे स्थानक पाँचवाँ, यामें संशय नाहि ॥१४१॥ तनु रहते जिनकी दशा, वर्ते देहातीत । उन ज्ञानीके चरणमें, हों वंदन अगणित ॥१४२भ श्री सद्गुरु चरणार्पणमस्तु ! - ६१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) षट् पद रहस्य [कर्णाटक देश में गोकाक ग्राम समीपस्थ गुफा में श्रीमदराजचंद्र प्रणीत षट पद-पत्र के रहस्य स्वरूप स्वतंत्र रचना प्रारम्भ १-४-५४] - सद्गुरु-स्तुति दोहा परमकृपालु देव-प्रभु, अहो ! प्रगट महावीर !!! सद्गुरू राज-पदे धरू, श्रीफल स्थल निज शिर...१ ओलखावी निज आतमा, कीधो रंकथी राज : भव भान्ति थी छोडव्यो, अपी आत्म स्वराज...२ अनन्य आत्म-शरण-प्रदा, सद्गुरू युगपरधान : चरण-कमल नी वेदी पर, करूं आत्म बलिदान...३ सप्तधातु-रस भेदी ने, अचिन्त्य परमोल्लास : आज्ञांकित थइ ने वसुं, सद्गुरु चरण आवास...४ सद्गुरु रविकर थी खुली, हृत्कज अंतर दृष्टि : - अनुभव हंस विलास त्यां, सहजानंदघन वृष्टिः . .५ प्रेरणा सद्गुरु-पद वंदन करी, कहुं स्व-अनुभव रीत ; आत्मार्थी संत्संगी तु! सांभल थई एक चित्तः . .६ ___ भूमिका आत्मज्ञान प्रगटाववा, कीजे आत्म-विचार ; अविच्छिन्न तन्मय पणे, षट् पद थी निर्धार... हर For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोत्कृष्ट स्थानक कह्यो, सम्यग्दृष्टि-निवास : षट्-पद आ ज्ञानी जने, सहजानंद विलास...८ हरिगीत छन्द . ... आ शुं बधु ? छे विश्व आ-समुदाय जड़-चेतन तणो, . द्रष्टा जने जड़-दृश्य फिल्म तणो सिनेमा प्रांगणो ; आनंद-सुख-दुख अनुभवे जाणे जुओ चेतन सही , . जाणे न निज पर ने न सुख-दुख अनुभवे ते जड़ अहीं...१ देखाय आ, तेम होय आत्मा केम ते देखाय ना। देखाय ना जड़ आँख थी छे अरूपी चेतना ; ' ज्यां दृश्य छे त्याँ दृश्य-दृष्टि उभय नो द्रष्टा य छे , निज-पर-प्रकाशक आत्मनी चैतन्य सत्ता प्रगट छ...२ हूं कोण ? तु छो सिद्ध सम सत्तामयी आत्मा अहो ! शुदेह हूँ ? ना देह बल थी भिन्न तु बिजली संमो; शु इन्द्रि हुँ ? ना इन्द्रियो छे गोख देह-मकान ना, शाथी कहो ? कहुं अनुभवे शव ने तुजो शमशान मां...३ शु प्राण हुँ ? ना प्राण जड जाणे न गाढ सुषुप्ति मां , अन्तःकरण हुँ ? ना तेहनो तु छोज प्रेरक आतमा ; केम होय प्रेरक जीव ? ज्यां प्रेरक छते ईश्वर खरे ! प्रेरक गणे जो ईश ने तो जीव सत्ता नव ठरे...४ जीव ज नहीं तो दुख कोने ? आत्म साधन कोण करे? सत्संग भक्ति त्याग वैराग्यादि साधन व्यर्थ रे! प्रेरे प्रभु शु जठ हिंसा चोरी जारी मां अरे ! ६३ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक गण जो ईश तो कहे कम ते ईश्वर ठरे ?...५ जेम तूष सहित के रहित बंने अवस्था अक्षत-तणी , तेम बद्ध-मुक्तज जीव-ईश्वर अवस्था एक आत्मनी : छे जीव-शिव-पद, व्यक्ति नहि तोय व्यक्ति रूपे प्रभु भजे, ते जीव-अहँता नष्ट करवा संत सौ युक्ति सजे...६ जो जीव नहिं तो जीववा तु कम तल-पापड बने ? तो पड्यो रहे पत्थरा समो कम अहि तहिं भमतो भमे ? जड ईश शंका कम करे ? तुजीव शंकाशील छो, माटे तु तन थी भिन्न आत्मा छोज छोज विचारी जो... आत्म-अस्तित्व सिद्धि दोहा । तन वस्त्रादिक छेन जो, तो आत्मा पण छेज : निज-निज द्रव्य स्वभाव थी, जड-चेतन बंनेज...१ दृश्य-ज्ञय ज्यां त्यां प्रगट, जाणनार जोनार : स्व-पर-काशक आतमा, चित सत्ता निरधार...२ सत्ता भिन्न जल-ग्लोब थी, बिजली जेम प्रमाण : तेम वस्त्र-तन थी जुदी, चित-सत्ता सप्रमाण...३ आत्मा पद, हुं तो आत्मा छ जड शरीर नथी (२) प्रेम मसाण नी राख नो ढगलो, पल मां विखरे ठोकर थी; मुझ वण ए शव पूजो बालो,ज्ञायकता नहिं सुख-दुख थी. • हुँ १ स्पर्श गंध रस रूप शब्द अने, जाति वर्ण लिंग मुझ मां नथी : फिल्म बेटरी प्रेरक जुदो, तेम देहादिक भिन्न मुझ थी. हुं २ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यचन्द्र मणि दीप कान्ति नी, मुझ प्रकाश वण किम्मत शी ?, प्रति देहे जे शोभनिकता छ, ते मारी जुओ विश्व मथी... अग्नि काष्ठ-आकारे रहे पण, थाय न काष्ठ ए बात नक्की ; शाके लण देखाय नहीं पण, अनुभवाय ते स्वाद थकी हुं० ४२ तनाकार रही शरीर न थाऊँ , लवण जेम जणाऊं सही ; रत्नदीप जेम स्व-पर-प्रकाशक,स्वयं-ज्योति छुप्रगट अहिं. • हुँ। अग्नि जेम उपयोग-चीपीए, पकडाऊं कोई सज्जन थी: प्रयोग थी बिजली माखण जेम सहजानंदघन अनुभव थी हुं०६ । आत्म-नित्यत्त्व-सिद्धि दोहा अनादि देहाध्यास थी, जीव पराश्रय प्रेम : जीणे वस्त्रवत् तन तजें, ग्रहे नवु फरी अम...१ अंते वृत्ति जे तन हती, ते तन वासनाधीन ; पाप पुण्य बे पांख थी, उडे हंसलो दीन...२ सामग्री स्थल पहोंची ने, रचे नवु तन प्रज्ञ ; गहण त्याग तन नु थतां, जन्म मरण कहे अज्ञ...३ जन्म मरण नहिं जीवनो, नित्य जेम नो तेम ; उपजे नवं अजाण ते, रड़े धाय स्तन केम...४ मान्यु देह स्वरूप हुं, पण निज नित्य स्वभाव ; कायम करवा देह ने; तेथी खेले दावः . .५ मरे जीव तो तेहने, मृत्युज्ञान न होय ; मृत्यु ज्ञान वण मृत्यु भय, पामे कदी न कोय...६ पूर्व मृत्यु अनुभव थकी, अहिं मृत्यु भयभीत ; ६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · - साँप मोरादिक वैर थी, सिद्धि जन्म व्यतीत...७ पुनर्जन्म नी परम्परा, जोतां न जड़े आदि ; तेथी सहजानंद कंद, जीव अनंत अनादि जड़ विज्ञान प्रयोग थी, उत्पन्न जीव न थाय; अनुत्पन्न नो नाश नहीं, तेथी नित्य सदाय नाना मोटा रूप मां, नानुं मोटुं न दीव; बाल वृद्ध युवा वये, नानु मोटु न जीव. १० विविध घर मालइ जतां, रत्न- दीप नहिं नाश; तेम विविध देहे जतां, जीव रहे अविनाश ..११ पदः झूलणा छंद नित्य नित्य आतमा नित्यछु : १ भले मरे शत्रुओ, राग द्वेषादिओ, तो पछी मरण भय केम म्हारे ? वीर्य - श्री न्युं माटी नु ढेकुआ, अमर परमाणु-जीव मरे न क्यारे... १ क्षण क्षणे मली - विखरी दशा पलट पण, ह Jain Educationa International जाय शमशान मां जड़-स्वभावे ; दर्पणे दृश्य देखाय पण ते कदा, • नित्य परमाणु निज धर्म दावे ... नि० २ तम देखाय शरीरादि मारा विषे, उभय मली थाय ना एक रूपे ; पण कदी थायना मुझ स्वरूपे • • • नि० ३ For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूय थी मेघ विखरे-बने-आवरे, रवि न जन्मे मरे न दुख धारे ; मुझ निमित्त थी देह उत्पत्ति लय, । हुं न जन्म मरूं शुदुःख म्हारे...नि० ४ मेघ थी पृथ्वी ढंकाय पण सूर्यना, दृश्य ढंकाय कर्मे न आत्मा ; दृश्य तो झेर छे जीव व्याकुल करे, दृश्य मां दृष्टि जोड़े न महात्मा.. नि०५ वगर समझे मर्यो हतो रहीश ज अमर, अमर ने कोण मारे-जीवाड़े ; दुःख अज्ञान टाली अहो सद्गुरु, सहज-आनंदघनता पमाड़े.. नि०६ [गोकाक में अधूरी रचना के अवशिष्ट पद खंडगिरि में रचे गये हैं] जीव-कर्तृत्त्व पद खण्डगिरि ता० १०-१०-५७ राग-कान्हड़ो कर्ता जीव स्वतन्त्र आचारी, तो तु केम रहे छे भिखारी... 'करोति-ज्ञप्ति क्रिया' उभय छे, बंध अबंध प्रकारी; बंध क्रिया थी अनरथ करतो, चेतनता धन हारी...कती० १ क्रोध लोभ मद माया चउविध, हास्य अरति रति छारी ; दुर्गछा भय शोक कामुकी, बंध-क्रिया ए तारी.. 'कर्ता०२ अनुपचार-व्यवहारे आठे, कर्म बांधे ऋण भारी; कर्ता-अभिमाने घर नगरनो, तूं कर्ता उपचारी...कर्ता०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी देह धरी भव भटके, लाख चौरासी मदारी; ज्ञान-क्रिया-कर्ता शुद्ध नय थी, सहजानंद विचारी.. कर्त्ता० ४ जीव मोक्तृत्व पद राग-खम्माच जे जे क्रिया ते ते सर्व स-फल कर्ता-भावे.. .(२) जेवी क्रिया जेवा भावे, तेनुं फल ते ते प्रकारे खाडो खोदे तेज पड़े, अनुभव मां आवे. जे०१ खाय ज्हेर थाय मरण, छतां अनल व्यापे ज्वलन हिम-प्रदेश गमन वदन, दाँत कड़कडावे. जे०२ कषाय अकषाय वहे, बंध मोक्ष आप लहे... बंधे-दुःख मोक्षे-सौख्य, मोक्तृत्व भावे.. जे०३ तज कषाय भज स्वभाव, शुद्ध वीतराग नाव ; सहजानंद-भोक्ता जीव, छो स्वतंत्र दावे. जे०४ मोक्ष-स्वरूप पद ११-१०-५७ जे जीवनो शुद्ध-स्वभाव, कषाय अभाव ; परम-गुरु-जन थी, छे मोक्ष चित्त-शोधन थी... नय-अनुपचार कर्ता-भोक्ता, जीव कषाय-भावे संसr, छूटी शकाय छे ते कषाय विघन थी. छे मोक्ष० १ होय क्रोधादिक नु तीव्रपणुं, वैराग्य बले थाय मंद घणु; अपरिचय अन्-अभ्यासे उपशम क्षय थी छे मोक्ष० २ ६८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ भाव ने कहे छे मंद-कषाय, अने अशुभ भाव ते तीन लाय; तजतां ते शुभाशुभ-अशुद्ध-विभाव यतन थी. छे मोक्ष०३ छूटवां कषाय ते भाव-मोक्ष, देहादि छूटतां द्रव्य-मोक्ष ; ले सहजानंद ए न्याये पद-मोक्ष मथी..छे मोक्ष०४ . मोक्ष नो उपाय पद संत-आज्ञा-भक्ति प्रधान, सुसाध्य निशान, जीवन डोरी, छे मोक्ष मार्ग ए धोरी... भव-द्वार जतां ए अर्गलाज, रोकी राखे जीवने स्व-काज; भव-पार थया एथी केई पापी अघोरी.. छे मोक्ष० १ मिथ्यात्व= दृश्य-दृष्टि प्रयोग, छूटी सधाय प्रभु नो सुयोग ; चित्त-वृत्ति-निरोध, योग-मार्ग पण ओ...री.. 'छे मोक्ष० २ चित्त-वृत्ति अंतर मां ठरतां, प्रगटे चिद्-ज्योति झगमग त्यां ; पथ-ज्ञान सुधा नी भक्ति सु-मार्ग कटोरी.. छे मोक्ष० ३ सम्यग-दृग-ज्ञान-चारित्र त्रयी, बाह्यान्तर त्याग-विरागमयी; सौ मोक्ष-उपाय अपावे, भक्ति पथोरी.. छे मोक्ष० ४ रे ! रे !! जीव !! तु कर प्रभु-भक्ति, सत्संगे ले गुरुगम युक्ति; तो पामे मुक्ति-ज सहजानंद रंग-रोली.. छे मोक्ष०५ छ-पद-विवेक-फल पद ता० १२-१०-५७ ओ बोध छ-पद नो कही गया, गुरुराज अनंती कृपा करी, .. स्व-स्वरूप समजवा अहिं कह्या, हरवा निज भांति तिमिर-सरी; ६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एना विशेष विचार थी, सुविवेक-भानु झगमगे, सप्रमाण लागे सहज ए, फेले चिद्-ज्योति रग रगे; आसन्न भव्ये स्व-श्रद्धा-प्रक्रिया, मिथ्यात्व वमल सौ जाय ठरी ओ०१ जे भाव-निद्रा स्वप्न सृष्टिम अहं-ममता संवरे, सव विभाव-पर्यय-अध्यासे-अकता ते संहरे ; ओ त्रिविध-तापनी खरी दवा, इष्टानिष्ट-परिणति जाय मरी.... संलग्न अशुद्ध विनाशी भावे, हर्ष शोक न उद्भवे, पर-द्रव्य-भाव थी भिन्न, निज चैतन्य-सत्ता अनुभवे ; सर्वात्म दृष्टि स्वभाव-दया, देखी नाशे दृग-मोह अरी' 'अ० ३ आ देह ने आ जीव हुं, अज अजर अमर अरोग छु, संपूर्ण शुद्ध अबाध्य-संवेदन अत्यन्त प्रत्यक्ष नु : अम भेदविज्ञान बले विरम्या, शुद्धज्ञान-सुधारस पान करी... अ०४ सौ आधि-व्याधि-उपाधि-संग, असंग आत्म-समाधिए, अपरोक्ष केवलज्ञान सहजानंदघन रस लहलहे; निज स्वरूप विलासभवन सुशय्या, जागृत उजागृत शयन करी अ०५ सद्गुरु-महिमा पद चौपाई आत्म-विचारे षट्-पद-रीति, ते नक्की लहे आत्म-प्रतीति ; आत्मज्ञान ने आत्म-समाधि, टले तस आधि व्याघि उपाधि...१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्-पद थी सिद्ध आत्म-स्वरूप, जास बोध थी प्रगटे अनूप ; जे प्रगट्य जीव सादि-अनंत, निज सहजानंद रस विलसंत...२ बक्ष्यो निज प्रभु-पद गुरुराय, ते सद्गुरु-गुण व्याख्या न थाय ; गुरु-पद-त्राण अर्यु निज चाम, तोय न चुके ज ते ऋण दाम...३ निष्कारण-करुणा-भण्डार, मुझ सम मूढ करे भव-पार ; छता न देखे कदी गुरुराज, आ मुझ शिष्य के भक्त-समाज"४ स्तवता अचिन्त्य-महिमा जास, प्रगटे आतमज्ञान प्रकाश ; रहो गुरु-पद-रज मुज शिरभाल, चरण हृदय मां थाउं निहाल •.५ अहो गुरु पद ! अहो सद्गुरु-व्यक्ति ! अहो गुरुगम ! सद्बोध ! सुयुक्ति ! अहो गुरु-करुणा ! अहो गुरु-भक्ति ! अहो गुरु-भक्ति ! अहो पथ मुक्ति ! ६ अहो मुझ हृदय-रमण गुरुराज ! अहो गुरु-शरण भवोदधि जहाज ! अहो मुझ जीवन ! त्याग! वैराग्य ! सद्गुरु-शरण लह्यो धन्य भाग्य गुरु-पद-वंदन परमोल्लास, सहजानंद हो भक्ति-प्रकाश ; ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरुराज ! जयगुरु ! जयगुरु !! जयगुरुराज !! बीज-कैवल्य-दशा पद पामशुपामशुपामशु रे ! अ+मे केवलज्ञान हवे पामथु... राग-द्वेष-भूम-पर ज्ञ यो थी, भिन्न एकाकी प्रमाणशु"रे अमे० १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुरु राज कृपाए निश्चल, ज्ञायक भावे म्हालशुरे अमे०२ शक्तिपणे तो स्पष्ट जाण्युं ओ, व्यक्त करी संभालशु...रे अमे० ३ श्रद्धापणे कैवल्य वर्ते छे, मुक्त विभाव जंजाल सु......रे अमे० ४ विचारधारा अनी अखंडित, बीजु तो अ+मने काम शु...रे अमे०५ बधी इच्छाओ अमां विलीन थई, नियेच्५ मुक्तिपुरी जशु.. रे _ अमे०६ मुख्यनये तो छीओज केवली, सहजानंद रस लसलसुं रे अमे०७ [इति छपद-पत्र-रहस्य..] (७३) सद्गुरु नी आत्म-चेष्टा (१३-१०-५७) राग कान्हड़ो अहो ! चैतन्य-चेष्टा गुरुजन नी, ज्यां नहिं अंतजल्पना मन नी... अन्तर्जल्पना जे भाव-मन नी, आठे कर्म नी जननी ; तास निरोध अचपलता धम, निजरा ते कर्म-रज-नी.. अहो० १ मन-चंचल-कर्मे असमाधि+ज, आ म अस्वस्थता-धरणी ; शुद्ध स्वरूपे स्थिरमन स्वास्थ्ये, आत्म समाधि चित्-तरणी.. अहो०२ सव वैभाविक-भाव अनुदय, स्वाभाविकी स्थिति तननी; उदयाधीन मात्र जीवितव्य, साक्षी भावे सौ करणी.. अहो०.३ अम लखी गुरु-अंतरंग-चेष्टा, कीजे तास अनुसरणी ; सद्गुरू-भक्ति मुक्ति नी युक्ति,सहजानंद निसरणी.. अहो०४ १०२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) महा-मोहनीय (३०) स्थानक दोहरा निर्मोही पद साधवा, निर्मोही गुरु राज । चंदू परम कृपालु ने, परा भक्तिए आज ।।१।। व अनेक अति दुःखदा, रौद्र वर्तना जेह । महा मोहनीय कम नु, शास्त्रो लक्षण एह ।।२।। त्रीश स्थानको तेहना, शुद्ध भाव थी आज । प्रतिक्रमण थी हुं चढू सहजानंद जहाज ॥३॥ ढाल-हवे राणी पदमावती । संक्लिष्ट चित्ते मैं हण्या, त्रस जीवना प्राण । पाद घाते जल डूबवी, पहेलु ए मोह ठाण ॥१॥ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं ॥ आंकणी ॥ आर्द्र चर्मादिक शस्त्र थी, तोड्या अंग उपांग । तिरि मानव वध बंधने, बीजा भेद नो संग ॥॥ ते॥ निर अपराधी सादिना गुंगडावी ने मुख। त्रिने प्राणो अपहरया, दीधा असह्य दुख ॥३।। ते०॥ धिखती धरा ना प्यूह थी, वन्हि धूम्र प्रयोगे। जीव आता मैं हण्य मोह तुर्य ना योगे ॥४॥ ते ॥ कत्लखाने क्रूरता धरी, धड़ शीर्ष विदारी। पंचम स्थाने हुं थयो, घोर पाप आचारी ॥५॥ ते० ।। छठे विष योगादि थी, कीधा विश्वासघात । निज नै मार्या कैक ने, थई कालनो भात ॥६॥ ते० ॥ १०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद सप्तम अपलाप थी, हा हा हूं गूढाचारी । द्रव्य भाव प्राणो हण्या, थयों निन्हव शिकारी ||७||०|| ऋषि घातादि पोते करी, परनें दीधा कलंक । अष्टम स्थाने मोह ने, थयो जड़ नो बंक ॥८॥ ते० ॥ नवमें झूठी साक्षिए, कलहे कैक ने जोड्या | नारदीय विद्या वड़े, हसी मुख मरोड्या ॥ ते मुझ० ||६|| शरणागत संतापिया, दशमा मोह ने योग । सत्ता सामग्री भूपादिनी, ध्वंश्या तेहना भोग ॥ ते मुझ० ||१०|| कौमार भावो दाखवी, भोलावी कई कुमारी । एकादशे मन्मथ वशे, थयो बहु अत्याचारी ॥ ते मुझ०||११|| द्वादशे हुं लंपट छतां, ब्रह्मचारी ना डोले । सतीओ भोलववा भूक्यो, खरवत् गायो ना टोले ॥ ते मुझ ॥१२॥ जीवनदाता भूपादि ना, वित्त लोभे लोभायो । छल भेदे वंची आतमा, तेरमें धायो ॥ ते मुझ० ॥ १३ ॥ निज दारिद्र्य हर्त्ता तणी, नबली स्थिति ने जोई। दुख दीधा अपकारिए, चौदमें थयो द्रोही ॥ ते मुझ० ॥ १४ ॥ गुरु नृप सेठ भर्त्तारनी, नागणीवत् चिंती घात । शिष्य मंत्री भृत्य स्त्रीपणे, पंदरमे ठाणे कजात || ते मुझ० ||१५|| प्रजावत्सल नृप नायको, हा मैं मार्या मूढ धी । निदूषण कुल थंभ ने, सोलमें थयो क्रोधी ॥ ते मुझ० ॥ १६ ॥ १०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरे भव सिंधु मध्ये प्राता द्विप नी जेम । गणधरादि उपदेशको, मार्या आणी न रेम || मु० ||१७|| रक्षक जीव छकाय ना, साध्वादि बलात्कारे । धर्म भूष्टताथी गयो, अष्टादश में द्वारे तमुवा१॥ अनंतज्ञानी निर्देशना, बोल्यो अवर्णवाद ! एकोनविंशति मोह थी, लाग्यो नास्तिक मतवाद ॥ मु०॥ १६ ॥ निर्दूषण जिन मार्ग ने, निंदी वीशमें ठाणे । भोला जीव भरमावी ने, जोड्यां कुपथ अन्नाणे ॥तेमुवा२|| श्रुत चारित्र दाता गुरु, निंदा तेहनी कीधी । एकवीशमा ठाणे वरी, पासत्थादिक ऋद्धि ॥ ते मुझ० ॥ २१ ॥ उपकारी गुरु वृंदनी, न करी सेवा दुर्भावे । " अवहेलना अति आचरी, बावीसमें अहं भावे ॥ ते मुझ० ॥ २२ ॥ ठाण वीस मोह छाक थी, महामूढ अन्नाणी । अनुयोगधर श्रुतधारी छ, जाहेर मां वद्यो वाणी ॥ ते मुझ०||२३|| चोवीसमें मोह-गृद्ध हुं, खान-पान मां भारे । तपसी नाम धरावी में, अशनादिक लुट्यां चारे ॥ ते मुझ०||२४|| वैयावच्च वृद्धं ग्लानीनी, न करो छती शक्तिए । बीज विमुखता पच्चीस में, लोभाई प्रतिभक्तिए "ते मुझ० ||२५|| arataमें तीर्थ भेदिका, राज्यादिक विकथा चारे । हिंसक शास्त्र रचनादिथी, बांध्या कर्म जे भारे || ते तुझ० ||२६|| वशीकरणादि प्रयोग थी, जीवो पीडव्या क्षोभे । सतावीस ठाणे चढ्यो, आत्म श्लाघा ना लोभे || ले मुझ० ||२७|| अठयावीस क्षण स्थायी जे, पंच अक्ष ना भोग । लोभायो हुं जग एंठ मां, पाम्यो भ्रान्त्यादिक रोग ॥ ते मुझ०॥२८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १८५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातिशय मय देवद्धि, धरी अश्रद्धा तेमां। निंदा करी मतिमंद में, मोह ओगणत्रीशमां ॥ ते मुझ० ॥ २६ ॥ हुँ जिनदेवो ने जोऊ छु, बोल्यो वृथा अपलाप । त्रीशमें गोशालकपणे, हा हा कीधा में पाप ।। ते मुझ० ॥ ३० ॥ स्थान त्रीश महामोहना, मैं सेव्या वारंवार । मवो भवमा भमता हा हा, हजी तेमां छे प्यार ॥ ते मुझ० ॥३१॥ उपसंहार अधमाधम घोर पापियो, कुल खंपण दीन पामर रंक पतित हुं, पर परिणते लीन ॥ हाथ धरो प्रभु माहरो ॥ ३२॥ अशरण भावे आथडं, नाहीं सदगुण नो अंश । रहायकारी जग को नहीं, नाती जाती के वंश हाथ० ॥ ३३॥ पतित उद्धारक तातजी, करुणालु कृपावंत । शरणे आव्यो छुहुँ ताहरे, परमगुरु भगवंत ॥ हाथ० ॥३४॥ छोडाओ मुझ मोहफंद थी, मारु चाले ना जोर। महरे नजर करो बापजी, मारी तुम हाथे दोर ।। हाथ ॥३५।। आप सामो हुँ पडिक्कमुं, मोह वृंद ने आज । वर संवर क्रियाधीन थई, पामु शिवनगरी राज ॥हाथ०॥३६॥ ॥ कलश हरिगीत ॥ पडिक्कमु सद्गुरूराज सामो मोहराय पद्यावली। योगक्रिया फल त्रय अवंचक भाव आधीनता भली ॥ करी एकता निज सत्व मां उदये अव्यापकता धरी। संवर सधे कृतकृत्य 'सहजानंद' कंदर मां वरी ॥३७॥ १०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) प्रतिक्रमण पद राग माढ [मारी नाड़ तमारे हाथ हरी संभालजो रे चेतन ! निरपक्ष निज वर्तन निज नजर निहालिये रे । निरखी दूषण तत्क्षण अविरत यत्ने टालीये रे । चे० । चाले केम पग शूल वींधायो, शल्य मुक्त अति वेगे धायो। दोष मुक्ति विण मुक्ति पथे केम चालिये रे । चे० ॥१॥ जे जे दूषण पर मां भासे, रहेला ते निज हृदय आवासे । दर्पणवत् प्रतिबिंब पणै सौ भालिये रे। चे० ॥२॥ मेष डाघ निज भाल वसे जे, दर्पण शुद्ध कर्ये न खसे ते । निर्मल ज्ञान जले निज दोष पबालिये रे। चै०॥३॥ निज सुधारथी उद्धर्यु सौ जग, सुधर्या विण उद्धारक ते बग। पर कत्र्तृत्व अहंत्व समूल प्रजालीये रे। चे० ॥४॥ जो जो संत वृद साधनता, कर रे केवल निज शोधनता। शुद्ध बुद्ध थई सहजानंदे, म्हालिये रे । चे० ॥५॥ (७६) निज कर्तव्य पद ढाल-जगत में आतम ध्यान समान, चेतनजी ! तू तारूं संभाल, मूकी अन्य जंजाल.: चेतन० तूंछे कोण ? शुतारू जगत मां ? आप स्वरूप निहाल, द्रव्य थकी तु आत्म पदारथ, नित्य अखंड त्रिकाल । चे० ॥१॥ १०७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I o गंध रस स्पर्श रहित तु, अरूपी अविकार ; असंयोगी अमल अकृत्रिम, ध्रुव शास्वत एक सार | चे० ॥२॥ षड् गुण हानि वृद्धि चक्रात्मक, पर्यय वर्त्तना काल ; लोकाकाश प्रमाण प्रदेशी, क्षेत्र तणो रखवाल | चे० ||३|| स्वभावे प्रत्येक प्रदेशे, गुण गण अनंत अपार ; गुण गुण प्रति पर्याय अनंता, स्व पर उभय प्रकार | ० ||४|| प्रति पर्याये धर्म अनंता, अस्ति नास्ति अधिकार ; 1 ए ज्ञानादिक संपद तारी, जड़ त्यागी धर प्यार | चे० ||५|| ज्ञाता द्रष्टा साक्षी भावे, उपादान सुधार । कर्त्ता भोक्ता सहजानंद नो, अनुभव पंथ स्वीकार | ० | ६ || (७७) कीर्त्ति पद राग-धन्याश्री चेतनजी सुराचो तन नाम | चे० । क्षण स्थायी जड़ पर्यय ए तन, मल मूत्रादिक धाम. . . चेतनजी १ राखी शक्या नहीं स्थायी तीर्थंकर, चक्री नारायण राम.. चे० २ राख थये तन नाम किम्मत शी ? सरे अथी शुरु काम... चेतन ३ माटे तजो जड़ नाम भूमणता, काज सधे विण दाम... चेतनजी ४ देहातीत स्व निर्नामी पद, सहजानंद विश्राम.. चेतनजी ५ (७८) आत्म निन्दा पद राग - आशा महापापी ! संदर भाव उत्थापी...मुझ मुझ सम कोण अधम पर द्रव्ये उपयोग रमणता, आत्म हिंसकता व्यापी । १०८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुं मारूं पर लक्षे भाषण, मृषावाद आलापी । मुझ० ॥१॥ ग्रहण भोगवे पर पुद्गलने, चोरी मैथुन थापी। नाम रूप मूर्खाए राचु, परिगह गाह अद्यापि ॥ मुझ० ॥२॥ अभ्यंतर अविरति रति तो पण, द्रव्य लिंगता छापी। . आश्रव रमणे संवर था, मोक्ष मार्ग अपलापी ॥ मुझ० ॥३॥ आत्म अभाने तत्त्व प्रबोधु, नय एकान्त प्रलापी। अहंभाव निज दृढ़तर पोषु जाणे हुँ ज प्रतापी ।। मुझ० ॥४॥ करूं आलोचन दोष प्रकाशी, निज आचरणा मापी। सहजानंद प्रभु तारक तारो, आप शरण में आपी ॥ मुझ० ॥५॥ . (७९) शब्द ज्ञानी ढाल-वेर वेर नहिं आवे अवसर० शु जाणे व्याकरणी• • अनुभव. (२) कस्तूरी निज डुटी मा पण, लाभ न पामे हरणी । अनु० ॥१॥ अत्तर थी भरपूर भरी पण, गंध न जाणे वरणी । अनु० ।।२।। मणोबंध घृत पान करे पण, खालीखम घी गरणी । अनु० ॥३।। लाखो मण अन्न मुख चावे पण, शक्ति न पामे दरणी। अनु० ॥४॥ पीठे चंदन पण शीतलता, पामे नहिं खर घरणी । अनु० ।।५।। मणि माणेक रत्नो उर मां पण, शोभ न पामे धरणी ।।अनु०॥६॥ भावधर्म स्पर्शन विण निष्फल, तपजप संयम करणी ॥अनु० ॥७॥ शब्दशास्त्र सह भावधर्मता, सहजानंद निसरणी ॥अनु० ॥८॥ १०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) अजपा प्रतीक राग-आशा हंसा ! तुझ समरण मुझ प्यारो, तुज स्मरणे भव पारो हंसा० जाणे छे आबाल भाव थी, खीर नीर व्यवहारो० पय पात्र जल भर ने त्यागी, करे तु दुग्धाहारो। हंसा० ॥१॥ योगीजन तुझ लक्ष धरी ने, छोडी सर्व जंजालो. प्राण वाणी रस तुझ पद जपतां,करे जड़ चेतन फालो हंसा०२॥ ज्ञान ज्योति प्रगटे घट अंदर, वरसे अमृत धारो० मनमयूर हर्षे अति नाचत, अनहद जीत नगारो॥हंसा० ॥३॥ गगने आसन दिव्य सुगंधी, सिद्धि तणो नहिं पारो० तेम छतां तेमां नहिं अटके, सहजानंद सवारो हिंसा०॥४॥ [इस पद का हिन्दी रूप : (८१) भेद-विज्ञान पद राग-दरबारी कान्हड़ो हंसा ! तुझ स्मरण मुझे प्यारो...तुझ स्मरणे भव-पारोह जानत है आबाल काल से, क्षीर-नीर व्यवहारो; पय पात्रे तू जल को त्यागी, करत है दुग्धाहारो हं० १ योगी जन तुझ लक्षे सज्ज हो, त्यागी संसार असारो; प्राण-पाणी-रस तुझ पद जपते, करें जड़-चेतन फारोह० २ ज्ञान ज्योति प्रगटे घट में ही, वर्षे अमृत-धारो; मन मयूर हर्षे अति नाचत ; अनहद जीत-नगारोह०३ गगने आसन दिव्य सुगंधी, सिद्धियाँ को नहीं पारो; तब भी वे तामें नहीं अटके, सहजानंद अपारोहं०४ ११० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) मनोजय मंत्र पद ढाल-वंदना वंदना चंदना रे मुझ मा मुझ मा मुझ मा रे, परभावे चेतन जी मँझ मा । आप स्वभाव घर सौख्य भर्यु छे, ज्ञान आनंद अनुपमा रे ।पर०।। देह खजन धन राग संबन्धे, शाने पड़े भव कूप मां रे ।पर० ॥१॥ इष्ट संयोग ए तो पुण्य तणुफल, ते तो अनित्य स्वरूप मां रेपर एकान्त दुखमय तेम छतां तूं, शाने राचे जड़ धूप मां रे ॥२॥ अनिष्ट संगफल पाप तणुए, होंसे कर्यु छे तें जमा रे॥पर०॥ जेवुवावे ते लणे तेवु फल, धरे पछी सुअणगमा रे ।।पर०॥३॥ इष्ट अनिष्ट मां धर तुसमता उर, विकल्प जाल सवी शमारे।पर। मंत्र मनोजय अजपा अंगीकर,जो सत्सौख्य तणी तमारे ॥पर०॥४॥ मन स्थिरताए प्रगटे सहजानंद, बाजी हवे तुचक मां रे ।पर०॥ अचिंत्य नरभव पामी हवे निज, आत्मसेवा ने मूक मा रे ।पर०॥५॥ (८३) मल-विक्षेप-अज्ञान [सोइ सोई सारी रैन गँवाई. ए चाल] मल विक्षेप अज्ञान त्रणे ए, आत्म साधन मां प्रतिबंधक छ । म० क्षमा विनय निज दोष-अरक्षा, अल्पारंभ-स्वल्प-परिगह जे। मल०१ तेह अनंतानुबंधक-भाव-मल. प्रक्षालन-जल चगुण-गृह छे । मल०२ सद गुरु-आज्ञा-भक्ति परा ते, मल-विक्षेप-शमन औषध छ । मल०३ पर-व्यवसायी-ज्ञान अज्ञान ते, नाशे सद्गुरु बोधे कबंधए । मल०४ सह परमार्थ-साधन मां दुर्लभ, परम साधन प्रत्यक्ष-सत्संग छे । मल०५ संत-वियोगे संत-दशानु, अवलंबन सहजानंद अभंग रे मल० ६ १११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) चेतवणी राग-धन्याश्री पंथिड़ा ! प्रभु भजी ले दिन चार... तन भजतां तन जेल ठेलायो, अशरण आ संसार प० तन धन कुटुंब सजी तजी भटके, चउगति बारंबार पं० क्यां थी आव्यो ? क्यां जावु छे ? रहेशे केटली वार... पं० कत्तव्य शुं छे ? करी रह्यो शुं ? हजु न चेते लगार पं० आत्मार्पण थइ प्रभु पद भजतां, बे घडीए भवपार...पं० माटे था तैयार भजनमां, सहजानंद पथ सार" पं० ० २५-३-५४ से पूर्व । (८५) मन शिक्षा रे मन ! मान तू मेरी बात, क्यों इत उत बही जात... (२) रहे न पत सति परघर भटकत, परहद नृप बंधात: जड़ भी कभी तुझ धर्म न सेवें, तू जड़ता अपनात रे मन० १ काहे को भक्त ! विभक्त प्रभु सों, काहे न लाज मरात ! प्रियतम विन कहीं जात न सति-मन, तू तो भक्त मनात रे मन०२ पंच विषय - रस सेवें इन्द्रियाँ, तुझे तो लातं लात ... काहे तु इष्टानिष्ट मनावत, सुख दुख भूम भरमात रे मन० ३ सुनि के सद्गुरु सीख सुहावनी, मनन करो दिनरातः सहजानंद प्रभु-स्थिर पद खेलो, हंसो सोहं समात रे मन० ४ ... - ११२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) मन-सांधना पद चेतन ! मन भूतड़ वश कीजे, नव क्षण न मेलीजे ।चे। खय कालजु नवलं' मेल्ये, उद्यमी उद्यमे रीजे ; आत्म विचार रुकायं मलावी, सत् साधना साधीजे ।चे० ११॥ द्रव्य गुण पर्यय लक्षण थी, जड़ चेतन परखीजे ; पर स्वामित्व तजी साक्षी थई, जड़ अहत्व हणीजे । ०।२। अज अजरामर ज्ञानानन्दी, सोहं जाप बलि दीजे ; मेरु थंभ गमनागम सौंपी, सुखमण नाथ नथीजे ।०।३। करे मध्य जो अन्य विकल्पो, तेथी जरी न डरीजे; पूर्वोपार्जित आवे टलवा, उदये अण व्यापीजे।।४। श्रमित थये सतसंग सरोवर, उपशम जल झीलवीजे; निर्विकल्पता पलंग तलाई, संतोष पोढवीजे ।चे०१५ . नाद ज्योति अमीरस अधरासन, लब्धि सिद्धि न लीजे; परम कृपालु पाश्व-महावीर, साधनता समरीजे ।।६। बाह्याभ्यंतर त्याग वैराग्ये, सत्पुरुषाथ धरीजे ; दिव्यनयन सहजानन्द प्रगट्ये, मन साधनता सीझे । (८७) विरह पद राग-जोगीया ताल दीपचंदो अरे रे ! हजु मोत न आवे, मने विरह खमाय न वोय । चितुडुं चोरी ठहाला क्यां छुपाया, शोधुं क्या जइ लोय ? नीर विनां जीवे देदरीआं, मछली प्राण ज खोय ।।१।। प्राण पपैये पियु पियु रटते, नांख्युं हृदय विलोय । कण्ठ रंधायुं डसका खाते, तुम कारण रोय रोय ॥२॥ . ११३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुझ दर्शन ने तलसी तलसी, नयणा सूज्यां दोय । निंदरडी वेरण थई वटकी, निशि उजागरां होय ॥३।। खान पान सौ झेर थयुं मुझ, ओसड़ लागे न कोय । तड़फो तडफी तनहुं झूरे, ध्यान आणो तोय ॥४|| अवडं ताणे शीद पियुजी, हांसी टाणुं नोय । सहजानन्द प्रभु तुम दर्शन थी, सहज समाधि होय ॥५।। (८८) रहस्य-पद राग-कालिंगडो त्रिताल सखी मारे आखं जगत भगवान। केने कहुं हुं ? शु' समजावं ? आतम राम अजाण ॥सखी।।१।। जल डूबेला जेम सुणे नहि, मायारत हित वाण । काढवा जातां सामो बूबाड़े, डब्या ने शी शान १ ॥सखी|२|| जेणे पोख्यो गर्भ अंधे शिर, पोषे जिन्दगी प्राण । फोकट चिंता करी करी मूरख, करे आतम धन हाण ॥सखी॥३॥ करे धणीयो जड वहीवट नो, घर धंधो धूल धाण । हांसी आवे सखि सुमति मने तो, जोइ एनुरम खाण ।।सखी||४|| क्रुद्ध करी ने धूल वाली पछी, मांगवा बैठो धान । आप्युबीज ओम् स्वाहा करी ने, केवु करे जो तोफान सखी।।५ दुख आपी ने सुख मांगे शे, दाखवी झूठ लखाण । बेशरमा ने लाज न आवे, करतां झूठ डफाण सखी॥६॥ देह भोगवे देहे करेला, तूं' शी मांडे मोकाण ? छे सुख दुख ए देह कर्म फल, तूं थी भिन्न प्रमाण ॥सखी।।७।। जन्मी मरे छे देह वस्त्र जेम, तूं अजरामर भाण । तूं तारी संभाली चाल्यो जा, सहजानन्द रूठाण ॥सखी॥८॥ ११४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) विरह पद सखि हुं तो अधर रही लटकी । मुझ अबला ने भोलवी व्हाले, प्रेम पंथ पटकी । चितडुं चोरी छानो मानो पछी, नाथ गयो छटकी | स०|१| पीछो पकड़ी पालव झाल्ये, हाथ दीधो झटकी । रात अंधारी पंथ न सूझे, तेथी अहिं अटकी ||स०||२|| भान भूली क्यां जाऊं हिये मुझ, पियु मिलन चटकी । पाय पडु सखि दे खबर पियु, सहजानन्द नट की ||स०||३|| (९०) आत्म-ज्ञान कच्छी - ( काफी) राग - कान्हडौ रे ! असीं आत्मा अय्यु इ' यँ चों'ता, हिन् मुड़धे में असंग रों' ता...रे असी... sa धो अय ही मिट्टी मसाण जी छू अँधे सुतक लग्गेंता । किंय चोवाजे आंऊं ही मुजो ही ? चोंधल चमार रु अंता...रे असीं ? " नात जात नें नां मुडधे जा, पिंढ जा न मंत्र्यु हाँ तां । बाड़ी छोरा घर कियँ थिों मुंजा जुद्धा दिसजें' ता• • •रे असीं २ पक्खी मेले जियँ कुटम् - कबीलो, कोई केंजो न दिसों' ता । हाय वोय' पोय कुल्ला कैथ्यु' असीं, म्मो उतारी फिरों' ता...रे असीं ३ दिस्से जाणे जुक्को ऊज अँय्यां आंऊ, आत्मा सोहँ जप्पों' ता । संत कृपा सें समजी शमाई, सहजानन्द छकों ता· · ·रे असीं ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ११५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) बाबा का तूफान ओ बा ! जो ने बाबा तणु तोफान ! । मोह दूति पेलि कुजा कुमति नो, क्षणमां उडायो प्राण ।१॥ तृष्णा घर ने आग चांपी पछी, पटकी मार्यों अभिमान ।२। काम क्रोध मद लोभ पछाड़ी, मोह नो लीधो जान ।। चेतना लक्ष्मी गोद मां लूटे, सहजानन्द एक तान ।४। (९२) तत्व रुचि पद। मेवाड़ी भाषा में, राग-धन्याश्री माखण पिण्ड जिमाव. माई म्हाणे, माखणपिण्ड जिमाव ! छाछ बाछ म्हाणे दाय न आवे, लागो माखण चाव...१ माई० छाछे लडे हे मनख नराई, जोगी भोगी रंक राव...२ माई० तड़फड़ तड़ फे जल विना मच्छ, जल डूबो नरनाव...३ माई० प्राण पखेरू म्हारो माखण विणत्यू,उड़ सी घड़ी अधपाव...४ माई० क्यूं रोवावे देनी बाई ओ ! वेगे पडू थारे पाव...५ माई० किरपा कर जद माखण दे बाई, सहजानन्दघन दाव...६ माई० इति चेतना माता प्रत्ये विवेक लाल नी प्रार्थना (संत भूरबाई प्रत्ये अनुलक्षी ने सरदारगढ में रचित) (९३) स्व-पर विवेक पर द्रव्ये अकत्वता, उदये व्यापक भाव । राग द्वष. अज्ञान थी, जन्म मरण दुख दाव ॥१॥ पर कर्त्तव्य अभ्यास थी, अनादि आ संसार । निज कर्त्तव्य अभ्यास थी, टले संसरण असार ॥२॥ मच्छ वेध साधक परे; सामे पूर तराय । जाणनार जोनार मां, सुरता एम लवाय ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज सत्त्वे एकत्वता, उदय अव्यापक भाव । ज्ञाता द्रष्टा साक्षीए, उपजे आत्म स्वभाव ॥४॥ सहस्र पत्र पंकज परे, ब्रह्म नलिनी माय। आतम आतमता वरे, सहजानन्दघन त्यांय ॥५॥ (९४) अलख वाबा आयो जी मारो, अलख बाबोजी आयो, ओरत रो थो खालड़ो ओढी, माही आप छिपायो १ आयो० लाख चोरासी नाटक करी ने, सघलोई लोक रिझायो २ आयो० लोक रंजन सो पार न पाये; नाचत आप थकायो ३ आयो० अब तो रिझवे आपरो मालिक, सहजानन्दघन रायो ४ आयो० (९५) वि चार नो विचार नाराच छन्द विचार रे । विचार तु, 'वि' चार नो विचार आ, विचारिए वि चार नित्य, सार तत्त्व पामवा, लखी जुदी वि वार चार, शब्द-पूर्ति सुख प्रदा, अहं तजी विनय सजी, सुसंत शरण ले सदा ॥१॥ विशुद्ध संत-चरण-शरण, हृदय-नयण दे मुदा, विवेक थी स्व-आत्म देह, अनुभवो जुदा जुदा, टले अज्ञान - भांति - ज्ञेय, निष्ठता स्व अनुभवे, असार क्षणिक पंच - विषय, थी विरक्ति उद्भवे ॥२॥ स्वद्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव, नी ज योग - क्षेमता, असंग - मौन - स्वरूप गुप्त, विचर छेद भव-लता, सुदृष्टि - ज्ञान थी स्वरूप, - निष्ट था महारथी, विज्ञानघन विमुक्तानन्द, - सहज ले विचार थी॥३॥ ११७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) दिव्य सन्देश पद राग भैरवी, राग- मालकोश बननार ते तो फरनार नथी...२ संचित टाल्यु टले न छतां ते, छूटे उदये अव्यापक थी, मुक्ति-बंधन जे चाहो छो, स्वाधिन भविष्य सर्जन थी · · · बननार १ तो पछी आत्म-हिते परमाद केम ? गभराओ परमारथ थी, एक भवना थोड़ा सुख माटे, अनंत भव शुं वधारो मथी - बननार २ त्रिविध ताप संतप्त आतमा, शु शीतल करवोज नथी ? धर्म वस्तु बहु गुप्त छतां मले, अपूर्व अंतरशोधन थी. बननार ३ जग मां दुर्लभ सत् - प्रभु सेवा, सत्-गुरु- शास्त्रो सत्संगति, सत्-दृष्टि सत्-ज्ञान- रमण पण, निज कृपा थकी सुलभ अति•••बन०४ तत्त्व रुचि ते स्वकृपा जाणे, ए वण अन्य कृपा व्यर्थी, देव धम-गुरु-शास्त्र- कृपा त्यां, ज्यां सहजानंदघन अर्थी बननार ५ (९७) निज सुधारणा ढाल-वेर वेर नहिं आवे, अवसर तुझ ने तू हि सुधारे... चेत न० (२) तु हिज तुझने तत्त्व प्रबोधे, निश्चय ने व्यवहारे |०|१| ज्ञेय विचारी हेय ने छंडी, उपादेय स्वीकारे चि०|२| निज पर द्रव्य विनिश्चय करवा, ज्ञानकरण उर धारे | ० | ३ | परद्रव्ये निज लक्ष संयोजक, युरंजनकरण संहारे | च०|४| निज द्रव्ये निज लक्ष समावे, गुणकरण हथियारे | चे०|५| निज निज लक्ष एकत्त्वे प्रगटे, सहजानंदघन भारे चि०|६| एम निज निज नो भूप बनावी, तूं हिज तुझ ने तारे ||७| ११८ Jain Educationa International • For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) चैतन्य लक्षणम् इडरगढ कंदरा वै. शु० १२/२००५ (ढाल-चेतेतो चेतावू तुंनेरे) बलूडो अमर तारो रे चेतना माडी ! नथी जेने श्वासो-श्वास, अंधकार के प्रकाश ___स्पर्श-रूप-रस-वास रे.. चे० १ नथी जैने राग द्वेष, नाम ठाम जाति वेष, जड़ नो धरम लेश रे.. चे०२ नथी गति के आगति, भय शोक ने अरति, जुगुप्सा ने हास्य रति रे...चे. ३ नथी जड़ काय भोग, जनम मरण रोग, पर संयोग वियोग रे.. चे० ४ नथी जेने तृष्णा धोध, लोभ मान माया क्रोध, अविरति के अवोध रे...घे ५ चले जे न अभि माहि, अल मांहि गले नाहि, . . छेदन भेदन कांइ रे. चे० । एतो छ अनंतज्ञान, चरण - दर्शनवान, . क्षायिक नवे निधान रे...चे० ७ शुद्ध बुद्ध अविकार, शास्वत अचल चार, अखंड स्वरूप धार रे.. चे - धन्य माड़ी! तारौ जायो, रोम रोम मां सुहायो, ___ सहजानंद सुहायो रे...चे० ६ लक्ष्मीजी नो बाबो लालजी स्वर्गवास थतां तेमने सांत्वन अर्थे बाबा ना आत्मा विषे नु ख्याल करवा नुपद । ११६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) स्व पर विवेक अन्तर्मुखी लक्ष्य सिवाना, भादवा सुदि ५/२००५ जणाय ने देखाय जे, तेमां लक्ष न आप, जाणनार जोनार मां, चेतन ! था थिर थाप १ जागाय ने देखाय जे, ते तो पर जड़ रूप, जाणनार जोनार तु, सहजानन्दघन भूप २ देव गुरु धर्म तुरंतु, ध्याता ध्येय में ध्यान, देह देवल थी भिन्न छे, जेम खडग ने म्यान ३ पर जड़ लक्ष अभ्यास थी, जन्म मरण दुख थाय, आप आपना ध्यान थी, जन्म मरण दुख जाय ४ माटे तज पर लक्ष नें, कर निज लक्ष अभ्यास, प्राण वाणी रस मां भली, सहजानन्द विलास ५ (१००) भाव लग्न' पद सिवाना १-१०-४६ चालतु तो राम सुमर जग लड़वा दे० १२० Jain Educationa International हूँ तो अमर बनी सत्संग करो.. हूँ तो स्वामी श्री चैतन्य प्रभु था, लग्न कर्यु मैं बात खरी; शुं गुण ग्राम करू एना हूं, शक्ति नहीं मुझ मांहि जरी । हूँ तो० १ जन्म मरण रोगो नहिं जेने, इच्छादिक नहीं दोष सरी तन धन परिजन शत्रु मित्रता, नष्ट थया कामादि अरि । हूँ तो० २ ; १. कुमारी सरला व मधु निमित्ते बनेलुं For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव-सुख दायक निज-गुण नायक, अक्षर अक्षय ऋद्धि भरी ; सच्चिदानन्द सहज स्वरूपी; भवसागर जल तरण तरी । हूँ तो० ३ सर्व भाव शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा, जिन-ब्रह्मा-शिव राम-हरि ; सुखणी थई हुं सखि साच कहूँ छ, नाथ चरण नुं शरण वरी । हूँ तो०४ जन्म मरण रोगोए रोगी, मुरतीआथी सृष्टि भरी; कामी केदी ने जे परणे, जाय चौरासी मां तेह मरी । हूं तो०५ माटे सेवो नाथ निरंजन, शुद्ध प्रेमरस हृदय धरी; सहजानन्द लयलीन सुमतिए, सरल मधुरी बात करी । हूँ तो०६ (१०१) छप्पय गढ सीधाणा १-१०-४१ नाद करत है साद, जिया तूं मत सो प्यारे! मोह नींद कर त्याग, रहो पर परिणत न्यारे ; स्व स्वरूप कर याद, अहं सो सोहं भावे ; ज्ञाता द्रष्टा शुद्ध, रहो तुम आप स्वभावे ब्रह्म-रन्ध्र में ब्रह्मनाद ॐ ऐसी धून मचात है सहजानन्दघन राज ताज हर्षत शीर्ष हिलात है १ _ (१०२) उपजाति छंद ता० १२-३-५४ शरीर नो धर्म विशीर्ण जाणी, आराध आत्मा निज सत्व पाणी ; शरण्य छे एक स्व आत्म तत्त्व, तेथी तजै दैहिक संग सत्व १ १२१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) सुमति झवेर संवाद मारवाड़ पाली गिरि-कंदरा २००६ मार्ग सु०७ [ देवी सुमति निज सखी गृह द्वारे नीचे प्रमाणे गाती प्रवेश करे छेझवेरव्हेन–सखि सुमति ! अली तुं शुं गाय छे ? सुमतिव्हेन-निज आत्मोद्धार मां प्रवर्ततां थएला अनुभव ने गाऊं छु समाजोद्धार नी भुंगल फुकती मुज सखि ने ते वखते मार्गदर्शक थइ पड़े झवेरव्हेन--अलि फरी थी गाव! सुमति गाय छे झवेर बहेन दिंग थई विचार कूप मां निमग्न थाय छे, सखि नुं स्वागत करवानुय भुली जाय छे । ॐ अवधूत ] राग-पूरबी . जोयूं मैं धर्माचार्य धींग ...जोयु मत ममता रस छाक छकाने, नाचे तागड़ धींग जोयु ०१ जड़ किरिया आडम्बर तोपे, पोषे बाहिर लींग; आप भमे जग ने भरमावे, अंधो अंध घडिंग.. जोयु ०२ धर्म मर्म विण करे भाटाइ, करे मूर्ख में दींग ; मोह नींद मां पूंपू पादे, चावी वायवडिंग जोयु ०३ गुणीजन ने कनडे जेम औषध, होमियोपेथिक हींग ; मोहजाल मां फंसे फंसावे, जेम साबर ने सींग. जोयु ०४ बुडी मर्यु ढांकणी भर जल मां, भारत भूपति वृंद ; वारो आव्यो हवे तमारो, शाने ताणो नींद...जोयु ०५ द्वेष रहित हुं साच कहूं छु, अनुभव - हेडींग ; सहजानंद प्रभु महेर करे तो, थाय ए सीधा सडींग...जोयु ०६ १२२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) विदेही-दशा चारभुजारोड सं० २००७ नाथ कैसे आपो आप मिटायो? भाव विदेही पायो.. नाथ० आप अरूपी तन जड़ रूपी, कैसे बंध लगायो ? बंध विहीन होवे क्यों अनुभव, जन्म मरण दुखदायो. नाथ० बंध होत जो रूपी-अरूपी, क्यों नभ-मेघ न ठायो ? जड़-छादन दुख कारण तब क्यों, धन सौ रवि न दुखायो.. नाथ० उभय मिलन विन बंध न होवे, भाव अभिन्न कहायो, भावे बंधन भावे मुक्ति, क्यों उपदेश सुनायो.. नाथ० आत्म अभाने शेयनिष्ट हो, अपनो बंध मनायो, ज्ञाननिष्ट हो आपो मेटी, सहजानन्द पद रायो.. नाथ० (१०५) स्वदेश-पद चारभुजारोड सं २००७ मूक ने खटपट संघली शाणा ! थाने झट निज देश रवाना; अण उल्लंध्य एक छत्र अखंडित, वर्त्त अहिं जम आणा, आवी अचानक करी क्रूरता, लूटे जमडो प्राणा • मू०१ सुर नर चक्रि हरि बलदेवा, राय, रंक, नृप राणा,. तन धन परिजन मोहे गाफल, गफलत मां लूटाणा. • मू० २ जे माटे भमतो आव्यो अहिं, रही मुसाफरखाना, सावधान थई शीघ्र करी ले, शिर धरी सद्गुरु आणा. • मू० ३ लेण देण खाता पतवी ने, वसूल करी निज नाणा, सबल वलावे प्होंची जा तु, सहजानन्द ठेकाणा- मू० ४ १२३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) चेतवणी पद ( कच्छी भाषा में ) चारभुजारोड ता० १८-१०-१६५१ अत्ति सुत्तो तु ढंगुं पसरवी, मुरबा बाजी विज्झें तो हारी । हल्यो कदें भा ! पुग्गण पुग्गण शैरतु', खणी पुंजी सुन्नी सीम विरच थाकी सुत्तो पण, मध्यें अथ पिंढवारी । रात अंधारीं * ॐ ये ॥१॥ 1 भारी । ६ • उभ्भा ही लुंटण चार चोर ने, छल्लेला खवीस दिसू ही डाक " नें रांकाश रे, घोड्या बैण डिब्वारी' || औं ये ||२|| हूँ उभ्भो गुरनार १० ने चित्तरो, " सत्त भगाड़ो १२ मों फाडो । कारो 13 सप्प बड्डी फेंण कड्ढे ने, अरचे 2 डसण तोय अनाड़ी दी मुन्न१४ में त्रीं मुसरें डाकु, जगो न उठ् उठ् गाफल न्यार मुंजदां, १५ हैया तु अख्यु १६ उग्गाड़ी ये ॥४॥ " " १७ .. १९ सज्ज' " सराइ बे" उड्डाय खटली "दई हिन्नी के हत्थ ताली । उड्डी अद्धर पुज्ज शेर घटें सुम्म, सेजानन्द पाथारी ॥ अँ ये ॥५॥ १२४ कंध दाडी ॐ ये ॥३॥ १ मुक्ति २ ज्ञानकी ३ संसार ४ अविरति ५ चार कषाय ६ राग द्वेष ७ रति अरति जुगुप्सा मिथ्यात्व ८ कयाल ६ पेलो १० हास्य ११ शोक १२ सात भय १३ काम १४ मन-वचन-काय दण्ड योग १५ सद् गुरु १६ ज्ञाननेत्र १७ संयम १८ बेस १६ अष्ट प्रवचन माता २० श्रेणी मांडी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) मनो-निग्रह पद चाल-पंथिडा ! प्रभु भजिले दिन चार... कण्ट्रोलर ! कर निज मन कण्ट्रोल कर...(२) . अन्न धन तन कण्ट्रोल तो ए वण, तुस खंडन डामाडोल • कं० जेम मच्छ ध्यान हेतु बग-संयम, विषय हेतु रंग रोल.. शोभे पर उपदेशे एवो, वागे फूटो रोल.. क. स्वांग सजी केम करे नफटाइ, पेट भराई लोल • कं० झेर पी ने शु अमर थशे तु, चेत ! चेत !! रे टोल.. कं० आत्मा छ हुं साच कहुं छ, नहिं तो खुलशे पोल.. कं० था होशियार ! झट मन वश करीले, सहजानन्द अमोल.. कं० ता० २५-३-५४ से पूर्व (१०८) अध्यात्म शिल्पी सम्बोधन ओ शिल्पी ! आत्म कला विकसावो, लेवा असली सुख नो ल्हावो... देह भाव तजी आत्म स्वभाव सजी, सुप्त चेतन ने जगावो... बाह्य चेतना अंतरंग लावी, आतम भावना भावो.. ओ० १ तन-मन-वचन-विकल्प कर्ममल, ए जड़ संग हटावो... प्रज्ञा छीणी विवेक हथोड़े, चैतन्य मूर्लि घडावो.. ओ०२ आत्म प्रदेशे प्रभु छबि चितरी, चित्त प्रभु छबि मां जमावो... परमगुरु सहजात्म स्वरूपे, प्रभु सम निज ने ध्यावो.. ओ०३ प्रभु पद निज सम सत्ता सही, भेद अभेदे शमावो... सहजानंदघन निजघन स्वामी, आत्म स्वराज्य ज पावो.. ओ०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) पद-पद राग-धन्याश्री चेतन ! शा पद ने तु रहाय ? आप अक्षर पद राय... चे० १ अक्षरानक्षर पद बे जग मां, सत्यासत्य सुणाय... चे० २ अमल अकृत्रिम शास्वत सत्पद, तद्भिन्न असत् के वाय ... चे० ३ हरि-बल-चक्री इन्द्रादिक पद, संगांगेज वहायचे० ४ भांत थई जगओंठ समाते, सेव्यां बहु हाय हायचे० ५ संतकृपाए जाये, थई, जड़ पद स्पृहा विदाय'चे० ६ सहजानंदघन सायर उलट्यो, आप स्वपदे समायचे० ७ १२६ (११०) चेतावनी पद पावापुरी द्वि० वै० सु० १४ सं० २०१० प्रभात "उठ हिंद वीर युवका", ए ढब ) कहेशे अंते रोई रे कई ना करी शक्यो... अरर ! हाय हाय, यमदूत आवी ने धक्यो यम० अरे० ॥ समय खोयो सोई, विषयोन्माद मां छक्यो...विष० अरे० आप भान भूली, पर ने मैं मेरो बक्यो पर० अरे० पुण्यस्वाद लीन, पर जड़ ज्ञेय नै तक्यो• • • पर जड० अरे० . अज्ञ थई स्वधर्म, सहजानंद नै ढक्यो " सह० अरे० Jain Educationa International अरे कई ना करी शक्यो For Personal and Private Use Only ** Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) चेतावणी पावापुरी ज्येष्ठ २०१० [उठ हिंद वीर युवका ! - ए ढब ] जाग जाग रे प्रमादि ! मोह नींद खोल... प्रमादि... मोह नींद में गँवायो, समय अति अमोल बाँ०प्र० मैं- मेरो करी बझायो, स्वप्न राज ढोल• • •ब०प्र० स्वप्न राज वैभवे क्यों, नचत कुमति बोल ... वै० प्र० सहजानंद खोली नयना, मेट मोह पोल न० प्र० (११२) आत्म-परिचय नाम सहजानंद मेरा नाम सहजानंद ... अगम-देश अलख-नगर-वासी मैं निर्द्ध द्व... नाम० १ सद्गुरु-गम-तात मेरे, स्वानुभूति - मात; स्याद्वाद कुल है मेरा, सद्- विवेक-भात नाम० २ सम्यक-दर्शन- देव मेरे, गुरु है सम्यक ज्ञान; आत्म-स्थिरता धर्म मेरा, साधन स्वरूप ध्यान• नाम० ३ समिति ही है प्रवृत्ति मेरी, गुप्ति ही आराम; शुद्ध-चेतना प्रिया सह, रमत हूं निष्काम... नाम० ४ परिचय यही अल्प मेरा, तन का तन से पूछ ! तन परिचय जड़ ही है सब, क्यों मरोड़े मूँछ ? नाम० ५ Jain Educationa International शरद पूर्णिमा २०१० For Personal and Private Use Only १२७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) उपदेश पद अलखगुफा (गोकाक ) २५३-५४ [दिलमां दिवड़ो थाय. • •ए ढब भा पंच विषय विक्षेप, झेरी चेप, वमी थाओ चंगा, उल्लसे सहजानंद गंगा; जो विषयपत्ति अ.नंददाता, तो केम थाको ते भोगवता ! ज्यारे आवो शरणे विषय-निवृत्ति-प्रसंगा. उल्लसे०...१ विषयेच्छा पूर्ति पराधीन छे, पण तास-निर्वृत्ति स्वाधीन छ; रहो स्पर्श-गंध-रस-रूप-रवेज असंगा। उल्लसे ०२ विषयेच्छा-पूर्ति प्रमाद-वहा, आरंभ परिग्रह पाप महा ! लहो निवृत्तिए निज, आत्म प्रतीति अभगा · उल्लसे० ३ विषयेच्छा टिकट छे चार गति, निवृत्ति आपे स्वस्वरूप-स्थिति; करो विषयातीत थई प्रतिक्षण सत्संगा. रल्लसे० ४ विषयाधीन खोयो आत्मप्रभु, निर्वृतिए प्रगटे ज्ञान विभु; तजो व्यर्थ चिन्तन-बकवाद-आचरण दंगा "उल्लसे०५ (११४) प्रात्मा पद६३५४ [दिलमां दिवड़ो थाय.. ए ढब ए थाय न कदि बीमार, त्रिलोकीसार, जड़ तन न्यारो, प्रियतम आनंदघन म्हारो ए चिद्धातुमय परमशान्त, छे एक स्वभावि न आदि अंत; . अडग अकाग्र असंख्य प्रदेशाधारो प्रियतम० १ पुरुषाकारो चिन्मय देही, कफ-वात-पित्त वर्जित गेही; रस-स्पर्श-गंध रवरूपनो ले न सहारो.. प्रियतम० २ ओ अज अजरामर असंयोगी, जड़ नो नहीं कर्ता नहिं भोगी; नहिं योगी-अयोगी शुद्ध-उपयोग-सितारो.. प्रियतम० ३ अणे बंध प्रथा दूरे नांखी, थयो कर्म कर्मफल नो साखी; चैतन्य लक्ष्मी कहे भव्य ! भजो मुझ प्यारो"प्रियतम०४ १२८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) अपने को मजो पद .. पावापुरी २८-६-५३ भज मन सहजानंद स्व-शक्ति.... निरावरण निज ज्ञान-चेतना, कारण-प्रभु गही युक्ति परम परिणामिक स्वभावस्थित, अनंत चतुष्टय भक्ति ... . सेवत स्वाति-बंद परमोल्लासे, पावत मौक्तिक शुक्ति... रत्नत्रय एकत्वे सेवत, कार्य प्रभु पद व्यक्ति... आपको सेवत आपको पावे, शुद्ध-बुद्ध-परिमुक्ति... (११६) सद्गुरु-सत्संग राग-धन्याश्री १५.३-५४ साधक ! कर सद्गुरु सत्संग... द्रव्य, क्षेत्र, ने काल, भाव थी, जेओ अमम असंग सा० ज्ञायक आत्म स्वभाव मां जेनी, स्थिरता चित्त तरंग सा० द्रव्य, भाव-नोक, उदय नां, केवल साक्षी प्रसंग.. सा० कर्म कर्मफल त्यागी धरे एक, ज्ञान-चेतना रंग...सा० आप आपमां आपथी विलसे, सहजानंद अभंग...सा० (११७) शरीर पद २८-३.५४ दिलमां दिवड़ो थाय.. ए ढब आ वात-पित्त-कफ मल जड़ पुद्गल, अवस्था बदले, कदि द्रव्य ध्रुवता न टले..." क्षण क्षण प्रति मल विखरावु, वर्णादि गुण नुं पलटावु, ए पुदगल-पर्ययधर्म, न परने कनड़े कदि०१ १२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे द्रव्य स्वभावै अविनाशी, स्व चतुष्ठय निज घर नो वासी; ___ परमाणु जीव कदि कोइ थी, बने न बगड़े.. कदि० २ सौ द्रव्य स्वसत्ताए ज सत्, पण पर सत्ताए सौ असत् ; नहिं कोई परस्पर कर्ता भोक्ता सघले. कदि०३ तो पित्ताशय शाथी बगड्यु? तेथी आनंदधन ने दुःख शु? अम धर्म-मर्म सहजानंद नोबत गगड़े "कदि०४ (११८) संसार मार्ग पद २८-३-५४ [चाल-मार वतन आ मार वतन-ए ढब] अम थयु पतन थयु तारु पतन, चेतन ए अनादिय तारु पतन । दृष्टि-दृश्य परस्पर बांधी, मिथ्यात्वे कर्यु आत्म-वमन 'अम० दृष्टि-मोह चण्डाल चौकड़ी, कर्यो अंध हरी हृदय नयन अम० आत्म अज्ञाने चरम नेत्र थी, स्वरूप खाते खतव्यो तनः अम० देह हुंज दृढ़ देहाध्यासे, जड़-चल-जग ॲठवाड़ रमन • अम० पोषत निशदिन गंदी काया, को मूत्र-मल बहु जल-अन्न.. अम राग-द्वेष भवबीज लणे नित्य, खेड़े पंच विषय विष-वन अम० उत्पत्ति-व्यय जड़ पर्यय-धर्मो, ते माने निज जन्म मरण"अम० केदी हतो नव मास जे गटरे ते भोगववा उगत-मन. • अम० अन्य-केदी जे निज जन मान्या, ममताए करे तेनु जतन."अम० अज्ञ भान्ति-अविरति ठग-द्वारे, गिरवी मूक्या त्रणे रतन अभ० घउगति चोपड़ खेली हार्यों, रत्नत्रयी सहजानंदघन'"अम० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) उपशम श्रेणिए विध्न राग भैरवी मारग मां लँट पांच जणी...(२) देखड़ावी त्रण-लोक सिनेमा, पहेली लूटे बनी ठनी; आत्मा भूलवे दृष्टि फसावे, दृश्ये सुख नहिं एक कणी.. मारग० १ गाम-मूर्छना-ताल-लये थी, सप्त स्वरे अंबर-गुजणी; अगम-रेडिओ गान आलापी, लूटे बीजी गायकणी मारग०२ दिव्य-पुष्प-रज दिव्य-सुगंधी, हीना अतर-फुलेल तणी; महक फेलावी लूट चलावे, लूटारी त्रीजी सूंगणी · मारग० ३ सहस्रदले कर्णिका थी रस, वरसाचे एक धार छणी%B अमृतधारा कही ललचावे, लूटारी चौथी मेघणी; मारग०४ दिव्य स्पर्श थी फसवे पांचमी, दिव्य विषय जड़ नागफणी; सहजानन्दधन उपशम श्रेणी, पटकावे वृत्तिओ ठगणी; मारग०५ (१२०) मोक्षमार्ग पद २८-३-५४ - [चाल-मारुचतन आ मारुवतन] भव्य ! करोजतन, भव्य करो जतन निजरत्नत्रयी ने करो जतन; दृश्य प्रपंच थी दृष्टि हटावी, द्रष्टामा करीले स्थापन भव्य० अनंतानुबंधी कषाय चउ, दर्शनमोह नु थाय वमन...भव्य० दृष्टि-दृश्य नी गांठ कपातां, प्रगटे गुण सन्यग-दर्शन भव्य० आत्मानुभव-लक्ष-प्रतीति. प्रगट जणाय देहादिक भिन्न भव्य० टले अज्ञान ज्ञान गुण सम्यक् . श्रद्धा ज्ञाने स्वरूप रमण "भव्यक आत्म प्रदेशे स्थिरता सम्यक, चारित्र गुण ए आत्मवतन भव्यक रत्नत्रयी एकत्त्व अभ्यासे, प्रगटे केवलज्ञान स्वधन भव्य० सिद्ध-बुद्ध-परिमुक्त ए चेतन, कृतकृत्य सहजानंदघन "भव्य० १३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) कषायाधीनता पद. ता) ३०-४-५४ राग भैरवी अरे ! चारे कषाई अजा तफड़ावे...२ एक लीलुछम-घास' बतावी, अज चंचल मन ललचावे; छलांग मारी बाड़ ने ठेकी, अज पर हद खावा धावे.. चारे० १ पा पा पगले पाछो हटतो, सुना५ जंगल मां लावे; छानो छप आडे थी बीजे, छल बल थी पकड्यो दावे चारे० २ धब धब थबकारे अज-हैयु पण पौबारे नहिं फावे; थर थर थर थर कंपित तनडे, अज में-में-पिंगल गावे.. चारे० ३ भवाँ चडावी सोटी मारी, सड़सड़ाट त्रीजो चलवे; चौथौ फक्कड़ अक्कड़ चाले, छाती फुलवी मूछ तावे चारे०४ सहजानंदघन परवशता थी, कषाई-खाना आवे...; अजरामर अज लालचथी एम, निज हद कूदी दुख पावे "चारे० ५ (१२२) कषाय-विजय पद ३०-४५४ राग भैरवी अहो ! अज कषाई चारे पटके...(२) स्व-एटले धन भाव-ज्ञायकता, स्वभाव मर्म गही छटके; ज्ञायक-धन निज जीवन जाणी, कषाइओ सामो त्रट के.. अहो० १ १ आत्मा २ विषयो ३ संयम मर्यादा ४ इन्द्रियो ५ अनीति ६ दंभ ७ भागवामा ८ क्रोध , मान । - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम निधान-ज्ञान एक ताने, परम प्रसाद मुख मटके; क्षमा विनय ऋजुतादिक प्रगट्या, गस्युक्रोध-तन एक बटके"अहो०२ परम-विनय दोरे मन निज मां, ज्या अहंता गाडी अटके; देह भिन्न निज आत्म लखी ने, मान मरोड्यु एक झटके ''अहो०३ मणि बजाने काच किम्मत शी ? प्रकाश त्यां केम तिमिर टके; सरल सत्य ने झुठ विवेके, माया माथु धड़ लटके "अहो० ४ टली ममता त्यां परिगह-गहनी, लब्धि सिद्धि थी पणव टके; ज्ञान कोष ना सम्यक् तोषे, लोभ लणी चूरण फटके 'अहो०५ अनंत बल समूह व्यूह थी, घात्या घनघाती कटके; सर्वतंत्र स्वतंत्र थइ अन, सहजानंदधन सुव गटके .."अहो० ६ (१२३) ज्ञान-चेतना मस्ती (राग मालकोश) २०-६-५४ [चाल-अवसर, वेर वेर नहिं आवे] भयो मेरो मनुओं बेपरवाह, अहं-ममता को बेड़ी फेड़ो, सजधज आत्म उत्साह भयौ० अंतर-जप विकल्प संहारी, मार भगाई चाह भयौ० कर्म-कर्मफल चेतमता को, दीन्हो अग्नि-दाह.. भयौ० पारतंत्र्य पर-निज को मिटायौ, आप स्वतंत्र सनाह भयौ० निज कुलवट की रीति निभाई, पत राखी वाह वाह भयौ० तीन लोक में आण फेलाई, आप शाहन को शाह भयौ० ज्ञान च तना संग में विलस, सहजानंद अथाह भयौ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) निजानुभूति २६-६.५४ [राग-ओ दीनबन्धु ! ओ दोनबंधु ! मारो सलगी गयो संसार] वयों जयकार ! जय जयकार, मारो सलगी गयो संसार " जन्मान्तर ना सद्गुरु शरणे, तत्त्व अभ्यास्यो शुद्धाचरणे; लही सत्संग आधार, मैं तो काल लब्धि अनुसार " वयाँ १ सहज वीर्य-सुख-दर्शन-ज्ञाने, निरावरण प्रभु निरख्यो छाने; अचिन्त्य गुण भण्डार, थयु मनडुं त्यां एकतार वयो• २ देह-देवल नो देव निहाली, जड़-चिद् गन्थी समूल प्रजाली; लाधो मैं सम्यक्त्व सार, मारो सफल थयो अवतार.. वयो० ३ स्व-संवेद्य प्रत्यक्ष आ घट मां, कारण प्रभुने भेट्यो निकटमां; भास्यो अभिन्न देदार, टली जड़ सुख-दुख-भूमजाल. • वयो०४ चारित्र मोह करूं हवे चूरण, केवल बीज थी केवल पूरण; व्यक्त कार्य किरतार, सहजानंदघन पद सार.. वो०५ (१२५) निजदोष बंधन २६-४-५५ कव्वाली जे जे इच्छेनुपूर्वे, ते ते मले अत्यारे, जे जे इच्छयु न पूर्वे, ते तो मले न क्यारे...१ जे मोह भावे इच्छयु, निजने मुझावा जेवु, तन संग बंध नादि, फली ने मल्युज तेवु'...२ तेथी मुंझाय छे तु, पण छे ए दोष केनो ? छे निमित्त मात्र तेने, दे छे तु दोष शे'ने ?...३ १३४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो हष शोक शानो ? तज मोह रे अभागी! निज दोष थी बंधायो, छटे ए दोष त्यागी...४ समभाव थी सही ले, राख्या रहे न कर्मों; आवे तने छोडववा, था केम तू निशर्मों ! ५ अने न जो तने जो, सहजात्म स्वरूप द्रष्टा; स्थिर ज्ञान मां ठरे तो, छो सहजानन्द स्रष्टा...६ (१२६) ब्रह्मचारी जी के प्रश्नों के उत्तर (१) अगास से ब्रह्मचारी गोवर्द्धनदासजी का प्रश्नमय दोहा :-प्रश्न : अक काय बे रूप थई, एक रहे परघात ! मरेलो हणे जीवतो, उत्तर द्यो ! शी बात ? गुरुदेव का उत्तर :-घाति अघाति रूप बे, कर्म वर्गणा एक। __ मरी मारे धुर अन्य ने, उत्तर एज विवेक ।। आत्मा ना छः कारक स्वतंत्र थता आत्मा पोते पोता बड़े पोता माटे पोतामां थी पोता मां पोतानेज जोतो जाणतो थको विलसी (रमणता-करी) रह्यो छ । (२) एक लघु कथा पर ब्रह्मचारीजो ने गुरुदेव को लिखा जिस पर विशेष विवरण करते हुए गुरुदेव ने निम्नोक्त दोहे लिखे : माल बोकडो खाय ने, खाय मांकडो मार; मन मारी तन मां रहे, संत विरल संसार...१ माल मांकड़ो खाय ने, खाय बोकड़ो मार; तेम क्रिया जड़ तप तपी, तन सुकवे मन प्यार...२ १३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाय मांकडो बोकडो, पोषे मन तन अम; मरे गोसाई गोकलो शुक ज्ञानी पण तेम ३ चित्त अशांति थाय त्यां, स्वात्म वृत्ति ने भाल; वृत्ति विचार कर्या थकी, जाय विकल्प जंजाल ४ . (१२७) प्रेरणा-व भावना ज्यों बंध-स्पर्श न जल-कमल में, क्षोर-नीर न एक ज्यों जल-उष्णता असंयुक्त ज्यों, अरु नियत नोर तरंग त्योंतन, गति, कषायो, जन्म-मृत्यु संग आत्मा शेष है, पर कनक-भूषण ज्यों स्व-आत्मा चिद्-गुणे अविशेष है; १ ओस-बुंद ज्यों क्षणभर रे, यह ससार है; तज खटपट झट क. ले रे, सत्संग सार है। २ । जब हो सच्चे गुरु का सत्संग रे, _____ तब से न गमे संसारी-प्रसंग रे; परम-कृपालु-छबि हिय-दृग झलके रे, . मन-मरकट तब कहीं नहीं भटके रे,...३ चलते फिरते प्रगट प्रभु देखरे; मेरा जीना सफल तब लेखू रे। मैं-प्रभु में प्रभु-मुझ में समावू रे, . सहजानन्द-समाधि रमावू रे...४ शुद्धता विचारे ध्यावे, शुद्धता में केली करे, शुद्धता में स्थिर रहे, अमृत धारा वरसे रे। १। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा नट नर्सवत् साक्षी हो, करो कुटुम्ब व्यवहार । मैं मेरापन छोड़ ज्यों, धाय खेलावे वाल ॥२॥ काहे तू इत उत फिरै, सिद्ध होन के काज । मैं मेरापन छोड़ दे, है यह सुगम इलाज ॥२॥ २-४-५४ प्रिय सत्संगी! ल्यो दिव्य संदेशडो रे, करजो सतत अभ्यास, नित्य जीवन घडतर घडजो सदा रे, सहजानन्द विलास ; प्रिय० धूनदर्शन ज्ञान रमण एक तान । करतां प्रगटे अनुभव ज्ञान ।। देह आत्म जेम खङ्ग ने म्यान । टले भान्ति अविरति अज्ञान ॥१॥ ज्ञाता द्रष्टा शास्वत धाम । सच्चिदानन्द आतम राम॥ ध्याता, ध्यान, ध्येय गतकांम । हुँ सेवक ने हुँ छ स्वाम ॥२॥ दोहराआपज दुखी आप थी, क्या करवी पोकार ? दुख कारण ने पोषतो, अंत ज थाय खुवार । (१२८) आर्या छंद २६-४-५५ भीषण नरक गति माँ तिर्यंच गति मां कुदेव-नर-गति मां; पाम्यो तुतीव्र दुःख, भाव रे जिन भावना, जीव !...१ १३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६ } लोकनालि-दर्शन ॥दोहा॥ न जड़-मान-मतार्थिता, अनुकूलता दासत्व । विषय-मूढ स्वच्छंद ना, सो आत्मार्थी सत्व । १॥ न क्रिया जड़ शुक-ज्ञान ना, ना पर-रंजक-वृत्ति । दृष्टिराग हठवाद ना, यह सत्संगति-रीति ॥२॥ संयम तप अकषायता, सम-सुख-दुख चित्त-वृत्ति। शुद्ध भाव अधिकारी सो, सन्मति मुमुक्ष प्रवृत्ति ॥३॥ सन्मति सत्संगे रहंत, करत ही सत्श्रुति-पान । शुद्ध स्वभावे परिणमत, पावें प्रातिभ-ज्ञान ॥४॥ बाह्यभाव विरेच कर, पूरक अन्तर्भाव। परम भाव कुंभक बले, ध्यावे शुद्ध स्वभाव ॥५॥ बंकनाल षटचक्रको, भेदत शोधत पिण्ड । दिव्य नयन देखे अहो ! व्यापक सकल ब्रह्मण्ड ॥६॥ नाभिचक्र स्थिर ज्योत से, द्वीप समुद्रादि अशेष । खण्ड देशवन नगर गृह, लखतहिं व्यक्ति विशेष ॥७॥ अधोलोक तल चक्र क्रम, सुर असुर व्यंतरादि । सप्त नरक नारक लखत, दुखिये जीव प्रमादि ।।८।। उर्ध्व-उर्ध्व चक्र क्रमे, उदरे ज्योतिश्चक्र । कल्पवासी की श्रेणियाँ, प्रति पांसडीए वक्र ।।६।। गीवाए वेयको, अनुदिश अनुत्तर सिद्ध । शिर गोलक चक्र क्रमे, दूरदेशी मृद्ध ॥१०॥ १३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भू तल कमल में, वैक्रिय-लब्धि प्रकाश । आहारक वामे अहो ! संयमधर को खास ॥११॥ दक्षिण स्तन-तल कमल में, तैजस मापक तंत्र । वामे कृष्ण राजी अहो ! कार्मण-मापक यंत्र ॥१२॥ ज्यों ज्यों संवरता सधत, त्यों कार्मण-मल नाश । कमल श्वेतता अनुसरे, यही निशानी खास ॥१३॥ मिट्टी शुद्ध किये पिछे, चश्मा दुर्बिन होत ! कषाय भाव असंग यह; चित्त शुद्धि की ज्योत ॥१४॥ दुर्बिन छोटी चीज को, बड़ी दिखावत ज्योंहि । योग दृष्टि तारतम्यता, चर्म चक्षु सह योंहि ।।१५।। द्रव्य क्षेत्र कालादिका, सिद्धान्ते परिमाण ! योग दृष्टि सापेक्ष वे, चर्म दृष्टि अप्रमाण ॥१६॥ अगम 'अलोक' हि आतमा, लोके निज में लोक । प्रत्यक्षता प्रातिभज्ञान, व्यापक लोकालोक ॥१७॥ स्व-पर गति आगति तथा, भूत भविष्य प्रपंच । कलिकाले ही गम्य है, न धरौ शंका रंच ॥१८॥ लोक पुरुष संस्थान यह, धर्म ध्यान अनुभूति। ज्ञेय ज्ञान की भिन्नता, प्रगट स्व-पर सुप्रतीति ।।१।। स्व-पर प्रतीति बले सहज, वृत्तियां आत्माधीन । क्षायिक समकित प्रगटता, दर्शन मोह प्रक्षीण ॥२०॥ लोकनाली दर्शन यही, आनंदघन आधीन । क्या जानौं मतिमंद मैं, सत्पुरुषार्थ विहीन ॥२१॥ - १३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) शब्द ज्ञानी पद नं० ७६ का हिन्दी-रूप अनुभव क्या जाने व्याकरणी ॥ अनुभव० । कस्तूरी निज नाभि में पर, लाभ न पावै हिरनी ॥१!! इत्तर से भरपूर भरी पर, गंध न जाने बरनी ॥२॥ कितना ही घत-पान करै पर, खाली खम घी-छननी ॥३॥ लाखों मन अन्न मुख खावै पर, शक्ति न पावै गिरनी ।।४।। पीठे चंदन पर शीतलता, पावै नहीं खर-घरनी ॥५॥ मणि माणिक रत्नों उर में पर, शोभ न पावै धरनी ॥६॥ भाव धर्म स्पर्शन बिन निफल, तप जप संयम करनी ॥७॥ शब्द शास्त्र सह भाव-धर्मता, सहजानन्द निसरनी ।।८।। (१३१) विरह की सार्थकता हरिगीत-छंद चर-अचर मिल हैं देह धारी जीव तीन प्रकार के। आनन्दघन भी दुखी भी ढोंगी यही संसार के ।। आनन्दघन जो आत्म में परमात्म अनुभव से छके । हैं तृप्त अपने आप से वे सन्त आत्मा पा चुके ॥१॥ जिज्ञासु, योगी, भक्त तीन प्रकार के दुखिया सही। परमार्थ की जिनके हृदय में विरह-आगि सुलग रही ।। तत्त्वावबोध-स्व-योग प्रभु के लिये ही अकुला रहें। वे इन्द्र-राज-विभूति-पद कीर्त्यादि को न कभी चहें ॥२॥ १४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढोंगी स्वआत्मा भूल करके मोह मद चकचूर हैं। उन्हें नहीं है नित्य-जीवन की गरज विषयी रहें । अनवरत भोगों के उपासक सज रहें भव-रोग को । रौरव नरक की भी नहीं परवाह वे चहें भोग को ॥३॥ सुख-दुखाभासी ढोंगियों के भेद दो हैं भव-वने । सुखमास भोगों में चिपक कर भमत हैं विष-मद-सने || हैं जले अन्तर्दाह से सुख की झलक दिखला रहे । वे अन्य प्राणी कुचलने में आप गौरव ढो रहे || ४ || दुखभास भोगों के लिये ही छटपटाते हैं सदा । वे दुखी - सा रहते सदा उन्हें न दुख असली कदा || मुखभासियों की करें इर्षा लहें चैन नहीं कभी । सत्साधना के अनधिकारी मूढ हैं ढोंगी सभी ॥५॥ जीवन वही आनन्द गंगा जहां लहराती रहे । या हृदयानंदावरण को अनवरत विरहानल पर ढोंग अपनाना यही है टिकट विभूम रेल की । दर दर भटक शिर पटकना यही शेर है बद फेल की ।। ६ ।। दहे || ॥ अतः विरह साधक-जीवन का है आवश्यक साधन महा । जिसकी कृपा से मिलें साधक साध्य में अपने अहा ! जिज्ञासु तत्व अभेदता प्रभु भक्त योगी योग में | क्रमशः त्रिभेद अभेद हो रहें छके सहजानन्द में || ७ || · Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only 20 १४१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) आत्म-स्वरूप दोहा मुझ निर्मम सम घर हूं, मुझ आलंबन हुंज । देहादि अहं मम बधु, सो वोसरावं छज ॥१॥ मुझ दृष्टि मां हूँ ज हूँ, ज्ञान चारित्र हूँ ज । संवर योगे हूं खरे, प्रत्याख्याने हूं ज ॥२॥ जन्म मृत्यु दुख मां वधे, अरे एकलो हूँ ज। भान्ति थी जन्म्यो मुओ, पण अहो अमर छू ज ॥३॥ शास्वत दर्शन ज्ञानमय, एक मुझ आतम राम । अन्य संयोगी भाव सौ, तेनुं मने न काम ॥४॥ त्रिविधे त्रिविधे वोसिरे, दुश्चेष्टा करी जेह । त्रिविधे सामायिक करू, निर्विकल्प गुण गेह ॥५॥ वैर नथी मने कोई थी, सौथी समता पीन। सौ आशा वोसरावी ने, न्यारू समाधि लीन ॥६॥ दृश्य अदृश्य करी अने, अदृश्य ने दृश्य रूप। ध्यावं अलख स्वभूप ने, सहज समाधि स्वरूप ॥७॥ आप्त वैद्य शंका मुक्त ही आप्त है, शंका सब मोह सैन्य । दर्शन-मोह विमुक्त जिन, क्षायिक दृष्टि जघन्य ।।१।। घन घातिक अरि-हंत जिन, सर्वोत्कृष्ट विश्वास्य । विकल सकल-जति मध्य जिन, आप्त त्रिविधि रहस्य ॥२॥ त्रिविध आत्मा आत्म वश अंतरातमा, परवश सो बहिरात्म। आत्म-सिद्ध परमातमा, त्रिविध अवस्था आत्म ॥२॥ वृत्ति-परवश सो हीजडौ, स्ववश वृत्ति सतिरूप। परम - पुरुष • पति भक्तिए, प्रसवें आत्म - स्वरूप ॥२॥ १४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) भेद विज्ञान । ___ खण्डगिरि विजयादशमी ३-१०-५७ राग-कान्हडो भिन्न छु सर्वथी सर्व प्रकारे, म्हारो कोई न संगी संसारे.. भि० कोई न प्रिय-अप्रिय शत्रु-मित्र, हर्ष शोक शो म्हारे १ मानापमान ने जन्म-मृत्यु द्वन्द्व, लाभ अलाभ न क्यारे भि० १ म्यान-खडग ज्यम देह संबन्ध मुझ, अबद्ध-स्पृष्ट सहारे; नभ ज्यम सहु परभाव कुवासना, मुझ सम-घर थी व्हारे.. भि० निर्विकल्प प्रकृष्ट शान्त हग-ज्ञान सुधारस धारे ;... ज्ञायक मात्र स्व अनुभव मित हूँ, विर# स्वात्माकारे "भि० ३ केवल शुद्ध चैतन्यघन मूर्ति, एक अखण्ड त्रिकाले ; परमोत्कृष्ट अचिंत्य 'सहजानंद मुक्त सुख-दुख भूम जाले; भि० ४ (१३४) भेद-विज्ञान पद हिन्दी राग केदार भिन्न हूँ सब से सब ही प्रकारे, मेरो कोई न संगी संसारे भिक कोई न प्रिय अप्रिह शत्रु-मित्र, हर्ष शोक न झारे० मानापमान रु जन्म-मृत्यु द्वंद्व, लाभ-हानि न हमारे · भि०१ म्यान-खड्ग ज्यों देह संबंध मुझे, अबद्ध-स्पृष्ट सहारे, नभ ज्यों सब परभाव कुवासना, मुझ शम घर से न्यारेभि० २ निर्विकल्प प्रकृष्ट शान्त दृग-ज्ञान सुधारस धारे, ज्ञायक मात्र स्व अनुभव मित हूँ, विरमू स्वात्माकारे भि० ३ केवल शुद्ध चैतन्यघन मूर्ति, एक अ वण्ड त्रिकाले, परमोत्कृष्ट अचिन्त्य सहजानंद, मुक्त सुख-दुख-भूम जाले. भि०४ १४३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) श्रद्धा-रहस्य ता०५-१०-५७ राग-आशा समझो श्रद्धा प्रयोग प्रक्रिया, गुप्त रहस्य सुधीया.. स० इष्ट वस्तु ने जोबा जाणवा, अंधारे ज्यम दीया, चेतना बेटरी चांप चांपी ने, फेले चिद-ज्योति स्वकीया; स० १ धारण पोषण क्षिप्त ज्योतिर्नु, कार्य पर्यन्त रूढ़िया, श्रत+दधाति इति श्रद्धाए, शब्द व्युत्पत्ति शुद्धिआ. स० २ दृष्टि-दृश्यनु मिथ-परस्पर, भाव संग द्योतक 'या'; मिथ्या श्रद्धा दर्शन मोहक, आत्म-भांति लहे जीया. स० ३ क्षिप्त ज्योति न पाळु समावु, 'सम्य' ते आतम-हिया; आप आपने शोधी ठरवा, स्वार्थे 'क' प्रत्यय आ; स० ४ सम्यक-श्रद्धा अर्थ निष्पत्ति ए, शब्द ब्रह्म मथ लीया; आतम दर्शन-ज्ञान-रमण मां, कार्य करी साधकीया; "स०५ सम्यक अंकित ज्योति सम्यक्त्वए, सर्व गुणांश उघडिया; देह भिन्न केवल चिन्मूर्ति, सहजानंदघन प्रिया.. स०६ (१३६) अनन्तानुबन्धी कषाय स्वरूप पद ६-१०.५७ (चन्दना बन्दना वन्दना रे.. ए ढब] जो-जो उभा सामे भटा रे, अनन्तानुबंधी चार चोरटा, चोरटा चोरटा चोरटा रे, अनन्तानुबंधी चार चोरटा... असीम परिग्रह फांसे फंसावी, तृष्णा समुद्र जल गटगटा रे.. .१ सत्संग प्रेम पीयूष हरी ले, ए छे अनंत लोभ नी लटा रे...२ १४४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्र वचक छल दंभ कपट ए, जड़ लाभे दाव अटपटा रे...३ कंटक सम निज दोष ढकावे, शिव-मग ठग माया छटारे ४ संतजीभे पग मेली ठेली मग, मन चली चाल उवटा रे...५ ज्ञान अंधे भव धंधे धपावे, ए छे गुमान गज नी घटारे... ६ सत्पथ सत्साधन संत-द्रोहे, आशातना ए चटपटारे अखे लाली तन-तापे धू, जारी, क्रोध फणीधर नी फटारे...८ चारे कषाय अनन्तानुबंधी ए, लूटे सम्यक्त्व-धन नी अटारे... दर्शन - मोह तोषे भ्रम पोषे, आत्म स्वभाव मुख घुंघटारे १० सत्संग- प्रेम निज दोष अरक्षा, संताज्ञा शरणे हटा रे... ११ अनुभवपथ-पंथी सहजानंद, आत्मसिद्धि द्वार खटखटारे... १२ प्रत्याख्यानी कषाय स्वरूप (१३७) ...७ Jain Educationa International ... राग- होरी अविरति क्षोभ जमावे, अप्रत्याख्यान- तावे. दिग्भूम रोग गयो य छता ए, स्वास्थ्य लाभ न पावे; प्रवृत्ति वण निवृत्ति काले पण, क्वचित अस्थिर स्थिर भावे आतम-लक्ष खंडावे• • •अवि० १ For Personal and Private Use Only ७-१०-५७ ज्ञाने जे पर- द्रव्य-भाव नी, त्याग अवस्था कहावे; भ=नहीं प्रत्याख्यान = प्रतिज्ञा, ठरवा देन स्वभावे; आत्म-प्रतीति छतां ए अवि० २ १४५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र कुटुंब समाज देश नी, फरजो उदये आवे; । ते ते चिन्ता चिन्तित चितडु, गृहस्थी गाड़ी चलावे. आत्म प्रदेश कंपावे.. अवि०३ पद-रक्षा अभिमान प्रवाहे, परिगह चिन्त लोभावे नीति धर्म रक्षा छाने थी, माया क्रोध करावे; निर्वृत्ति प्रवृत्ति समावे.. अवि०४ कषाय ए अप्रत्याख्यानी, आत्म-प्रतीत प्रभावे; सहजानन्दघन सम्यक् बलथी जीती निवृत्त थावे; देशविरति अपनावे.."अवि०५ (१३८) प्रत्याख्यानी कषाय-स्वरूप ७-१०-५७ राग-सारंग जीतो ठग प्रत्याख्यान ने...(२) अप्रत्याख्यानी जे चारे, लोभ-क्रोध-छल-मान ने जीत्या ते निज आकृति बदली, प्रवृत्ति समय छले तने जी०१ प्रबृत्ति-निर्वृत्तिमय जागृत काले, भजो स्वरूप निशान ने, तेल-धार ज्यम करो अखंडित, तजो न अजपा जाप ने जी०२ अमूल्य अवसर व्यर्थ न खोवो, गाड़ी आवी स्टेशने; झबके मोती लेज परोवी, पड्या पछी झट उठने जी०३ आत्म-प्रतीति-लक्ष अखंडित, निद्रा-जागति मां बने; तो ते सर्वविरति धर साधु, पदवी सहजानन्दघने जी०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९) संज्वलन-कषाय-स्वरुप राग-आशा ७-१०-५७ साधो भाई ! अप्रमत्त-पद लीजे, समय प्रमाद न कीजे.. सा० सम्यक्-ज्वलने चारे संघनी, ममता लोभ कहीजे... शिष्य हिते वक्रोक्ति माया, गुरूपद मान हणीजे.. सा० १ प्रत्यनीक प्रति शिक्षा क्रोधे, बोधे भव्य बोधीजे... एम संघ रखवाली करतां, उद्भव ज्वलन शमीजे.. सा० २ स्वरूप लक्षे योग-प्रवृत्ति, पंच समिति वहीजे... संयमित तन रक्षा काजे, तेथी पण विरमीजे.. सा० ३ आत्म-प्रतीति-लक्ष अखंडित, तोय स्वरूप-स्थिति छीजे, अखण्ड स्वानुभूति-च्युति ए, प्रमत्त-भाष तरीजे. सा० ४ मंद कषाय-संज्वलन जीती, अप्रमत्त थई जीजे... स्वरूप-गुप्त-असंग-मौन रही, सहजानंद रस पीजे.. ता० ५ (१४०) विरह खण्डगिरि ८-१०-५७ लागी मोहे पियु मिलन की चटकी . .(२) पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, चउ दिसि भू-तीरथ की: नदी-विवर गिरि-गह्वर खेटक, ग्राम नगर वन भटकी- लागी० १ तप जप ब्रत यम नियमादिक सह, शास्त्र पुराणे अटकी : व्यर्थ भये सब साधन अब तक, सच्चेगुरु बिन लटकी. लागी०२ १४७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परख बिना कच्चे गुरु- पद पर बनी अंध शिर पटकी : . देव धर्म - गुरु सतत उपासत, हटी न चाल घुंघट की· · लागी० ३ पियु- मिलन - विधि पूछत ही कहें, बातें अंट संट की : तातें तैसे कच्चे गुरु सों, अब मुझ मति छुटकी • • लागी० ४ कलिकालें सच्चे गुरु दुर्लभ, यही चिन्ता खटकी : यदि मिलें, लहं पिय-मिलन-विधि, सहजानन्द घट की लागी०५ (१४१) विरह राग-होरी मेरे घट सुलगी होरी - किस विध जीउं मैं गौरी पियु पियु रटतो पंखी पपैयो, सुन पियु सुमरन जोरी पियु पियु पियु पियु सांस उसांसे, रटत रटत भई बौरी प्रियतम मिलन में भोरी मेरे० १ ज्यों ज्यों सांस निसांसा बाढत, बफ बफ ऐंजिन को री त्यों त्यों विरहानल तनु व्यापत, नखशिख जारत लौ री... जीवन आशा विछोरी मेरे० २ अँसुअन धारा अविरत वरसत, तपत बुझात न मोरी बूझत जठरानल विरहानल - बाढ़त अचरिज ओरी : १४८ • Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ८-१०-५७ सूझत नयन कपोली मेरे० ३ धबधबधबगत हियगत धमनी, तड़फत जिय मछलो री किस कमलासन नाथ विराजत, सहजानन्द छको री : तजि के विरहिनी भौंरी मेरे०४ ... ... . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) असली-नशा खण्डगिरि ६-१०-५७ राग-होरी . सद्गुरु भंग पिलाई...लाली अँखियन छाई... आप छकी दोय छकी मोरी नयनां, तन मन तपत बुझाई : व्यापी रोमे रोम खुमारी, अधर रहे मुसकाई प्रेम सुधारस पाई"स० १ वीणा घंट सितार बांसुरी, नौबत डफ तबलाई : धौ धौ धप मप धननन वाजे, शंख मृदंग शहनाई . अनहद शोर मचाई...स० २ कोटी चंदा सूर प्रकाशे, बीज चमक चमकाईखिली अमल कमल पाँखुरियां, दिव्य सुगंध फैलाई ___सूघत भौंरी अघाई."स० ३ चिन्मय-सहजानंदघन-मूरति, आप विराजत आई : सहस्रदली शय्या पै पियुजी, अर्की गे अपनाई श्रद्धा सुमति वधाई. • •स० ४ (१४३) सच्चे भक्त खण्डगिरि ६-१०-५७ सच्चे भक्त न हों मन-चोर.... उदय प्राप्त परिग्रह तन धन, राज समाज की दोर : अहँ-मम विहीन ट्रष्टी हो वे रहें, कर्म योगी कठोर "सच्चे० १ प्रभु-पद-वेदी मन बलिदाने, तकें न फल की ओर, प्राप्त परिस्थिति समरस विलसत, सु व दुख कल्पना तोर . स ०२ लाभ अलाभ जन्म मृत्यु द्वन्द्व, सभी विकल्प मरोर ; भूति-भगवन न्याये सब में, प्रभु दर्शन शिर मौर.. सच्चे० ३ रहें निराश दास प्रभु के, स्मरण निरंतर जोर : सहजानंदधन प्रभुपद सेवी, जारें कर्म अघोर.. सच्चे०४ १४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) प्रेरणा __ खण्डगिरी ६-१०-५७ राग-मालकोष क्यों चोरो प्रभु को देकर मन... देकर मन तुम देकर मन...क्यों... लेकर सर्वार्पण की प्रतिज्ञा, प्रतिपालन को करो जतन : दत्त वस्तु को अदत्त-ग्रहण से, लागे श्रेष्ठो-पद लांच्छन "क्यो० १ कर्म-बंध होवत अहं-मम से, मन दोषो यही परिभृमण : पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जेल शयन क्यों० २ सभी परिग्रह मन अधीन है, मन चोरत हो सभी हरण : । भोगे-मैथुन झूठ ने हिंसा, पंच पाप में होत पतन क्यों०३ मन ही संसार असार अशुचि, मन-मुक्ति यही सिद्ध-वतन : सहजानंद प्रभु-पद मन बलिकर, मुक्त भक्त हो करो भजन "क्यों०४ (१४५) सत्संग-रंग खण्डगिरी १०-१०-५७ राग-खम्माच साचो सत्संग रंग, द्वन्द्व जंग जीते. साचो० कल्पना-तरंग व्यंग, वासना-अनंग भंग : तृष्णा-गंग छल छलंग, ढंग भये रीते. साचो० १ क्रोध-अनल मान-गरल, मोह-तरल मिथ्या-बरल : . भये खरल अमल-कमल, आप सरल चित्ते"साचो० २ त्रिविध ताप पाप काप, आप आप-रूप व्यापः सहजानंदघन अमाप, छाप संत नीके "साचो० ३ १५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) मंगल - वाक्या हरिगीत छंद विद्या भण्यो टली नहिं अविद्या, फरे तु भव - फालके, शास्त्रो कण्ठागू छतां वृत्ति-जय ना कर्यो उपदेश दे; खण्डगिरी १४-१०-५७ 'ड्याविना मन, शिर- मुंडी साधु अनंती वार थई, आचार्य थइ न सुधार्यो आत्माचार पेटभरो रही . . . १ मृग-जल स्नपित बन्ध्या सुता पोंखे तने नभ-पुष्प थी, रे जीव ! क्यम चेततो नथी ? लेवा भमे सुख जड़ मथी; वाछा मायिक-सुख सर्व नी छोड्या विना छुटको नथी, आ वचन श्रवण करी त्वरा थी चढ अभ्यास-पथे पथी...२ परिभ्रमण काल अनादि थी साधन अनन्ता तें कर्या, पण ते थयां सौ व्यर्थ सद्गुरु-गम विना उलटा फल्यां; एक संत न मल्या सत् सुण्यं श्रद्धयुं नहिं तें मात्र ते, मल्ये सुण्ये श्रद्धये आत्म थी भणकार मुक्ति नो थशे. ३ कोई पण प्रकारे शोधी- परखी संत-पद-पूजारी बन, मन-वचन-तन नैवेद्य तर्पी आत्म-अप कर प्रशन्न; दंभ रहित आराधशे, जो परम प्रेमे संत - आज्ञा तो सर्व मायिक - वासना तुझ ज्ञान घर थी भागशे...४ उपर्युक्त वाक्यो मान्य मंगल रूप संत- अनंत नां, आगम- अनंता संत वाक्ये शब्दे - शब्द- एकेक मां; अक्षरे पथ- मोक्ष प्राप्त - पमाड़शे, सहजानंदघन - पद पामशे...५ छे आत्म मां बे 'गुरुराज -‍ -भक्ति भक्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १५१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) साधकीय-त्रणदोष राग धन्याश्री १४-१०-५७ विशुद्ध आतम-ध्यान.. जीवने...मोक्ष-साधन बलवान... प्राप्ति तेहनी थाय कदापि न, वण निज आतम-ज्ञान• •जीवने० १ ते सद्बोधे ते सद्गुरु ना, आश्रय-संग-बहुमान.. जीवने० २ थयो अद्यापि ते संत्संग निष्फल, वण सद्गुरु ओल वाण.. जीवने० ३ 'हुँ जाणुं छं-हुँ समझुं छु, ए डहापण अभिमान जीवने० ४ 'परिग्रह-प्रेम' थवा दे न संत पर, प्रेम असूट अकाम जीवने०५ 'अपकीर्ति-अपमान-लोक-भय, परम-विनय धन हाण.. जीवने० ६ सन्निपात-त्रिदोषे दुषित-मन, थाय न संत-पिछाण 'जीवने० ७ तास निमित्त-कारण 'असत्संग', स्वच्छंद, छे उपादान "जीवने०८ आडां नडे संत-आज्ञा-भक्ति मां, तोय न चते अजाण.. जीवने०६ चेती सद्गुरु-शरण सनाथे, सहजानंद निधान • जीवने० १० (१४८) मूल भूल राग कान्हड़ो १५-१०-५७ जीवडो पोते पोता नी भूले, अमथों भांति हिंडोले झूले... तेथी सत्सुख ने वियोगो, दर्शन मोह त्रिशूले; सुख शोधे निज तत्त्व-अबोधे, त्रिविध-दव भव चले जीवडो० १ वार अनंती नरक-निगोदे, दुखियो आग-बबूले; स्थावर-जंगम तिर्यंच-स्वांगे, रगडायो जल-शूले.. जीवड़ो २ देवपणे निज दैवत खोई, विषय लोलुपी भूले; दुर्लभ मानवता ने बगोवे, वक्र-जडो थइ फूले "जीवड़ो०३ फुट-बॉल ज्यम मूढ कूटातो, जो निज भूल कबूले; सत्संगे लहे तो सहजानन्द, नहिं तो चूल थी ऊले.. जीवड़ो० ४ १५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) मन ना १८ विघ्नो [धोबीड़ा तुं धोजे मन र्नु घोतियु रे, ए ढव] दोषो अढार कहुं सांभलो रे, मन ना निगह मां विघ्न रे; मनोजये तत्त्वज्ञानथी रे, तारो स्व-आतम सुज्ञ रे.. दो० १ आलस' अनियमित-ऊंघर्बु रे, विशेष- आहार उन्माद रे; माया -प्रपंच विलासता रे, काम -अनियमित-अमर्याद रे.. दो०२ तुच्छ वस्तु थी फुलावयूँ रे, रस-गारवा -लुब्ध प्रयोग रे कारण विना ज कमावq परे, आप-वडाइअतिभोगारे.. दो० ३ पारका अनिष्ट ने-इच्छवुरे, माझा नो स्नेहा गुमान रे एक्के सुनियम न साधवो रे,आव-जा अनुचित स्थान रे...दो०४ दोषो अष्टादश नाशथी रे, करो मनोजय भव्य रे; सधे स्वरूप-लक्ष बहुलता रे, सहजानन्द प्राप्तव्य रे...दो०५ (१५०) सम्यक्त्व नां पाँच लक्षणो खंडगिरि २३-१०-१७ राग-खम्माच आत्मदशा पांच चिन्ह 'समकित' स्वभावे... अरे जीव ! थोभ !! थोभ !!! केम लहे भान्ति-क्षोभ ? साचो निर्वेद बाह-वत्तना छोडावे...आ०१ शोधी एक साचा-संत, चरण-शरण मां वसंत बोध वचने तल्लीन, बेसी-'श्रद्धा' नावे...आ० २ उदित-उदयागामी-लाय, कषाय-वृत्ति शमाय 3; 'प्रशम'-जले न्हाय ते, कमाय शांति दाके...आ०३ देह भिन्न आप सुखी, देहाध्यासी सर्व दुखी; दुखी-दुखे दिल 'दया' ज, स्वात्म तुल्य भावे...आ४ सर्व चाह-गाह मरी, तेज शाहन शाही खरी; 'संवेगे' . सहजानन्द मुक्ति-राह. धावे...आ०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) अमी-वर्षा नूतन वर्षाभिनंदन वि० सं० २०१४ का० सु० १ ता० २४|१०.५७ राग-मालकोश वर्षो प्रभु अमी- वर्षा सदा... (२) संवर-धम सुमर्म प्रबोधे, बोधी समाधि स्व-संपदा; तत्व सत्त्व सम्यक्त्व स्वभावे, हग-ज्ञाने समता यदा... व० १ प्रभु-पद स्वरूप - विलास भवन मां, रमता राम रमे तदा; भासन स्थिरता आत्म स्वरूपे, श्री सहजानन्दघन रस प्रदा... व० २ (१५२) उपदेश कव्वाली खंडगिरि २५-१०-५७ हे जीव ! तू भूमा मत, कहूं बात तेरे हित की; आनंद है अंतर में, सम-श्रेणि खोज चित्त की ... १ जो रत्न चित् निधि के, अप्राप्य जड़ निधि से; निर्दोष शांति आनंद, हैं प्राप्य चित् निधि से ... २ बहिरंग जड़ खजाना, चित्- कोष अन्तरंगे; क्यों विषम-श्रेणि भटके, तू पंच विषय संगे... ३ तज कर्म-कर्मफलदा, द्वय चेतनावलंबन; भज ज्ञान चेतना को होगा निरावलंबन...४ प्रत्यक्ष अनुभवेगा, आनंद गंग तत्क्षण; तब सहजानंदघन तू ! कहलाएगा विचक्षण !... ५ (१५३) चार अवस्थाएं राग- आशा ज्ञान- सुधारस - डेरी.... रहें सुषुप्त बंधेरी; द्रव्य भाव सुषुप्ति अवस्था, मृतक प्राय अंधेरी... अवधू० १ स्वप्न - सृष्टि ज्यों देहादिक पर, अहं मम भूत लगेरी; आत्म अभाने द्वंद्व-अशांति, स्वप्न अवस्था ठगेरी... अवधू २ १५४ अवधू! तुर्या अवस्था तेरी, आत्मज्ञान अरु देहभान दोय, · Jain Educationa International For Personal and Private Use Only २५-१०-५७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्-श्रद्धा योग प्रयोगे, स्व-पर-विज्ञान सधेरी; . आतम-दर्शन-ज्ञान-रमणता, जाग्रति साधक चेरी...अवधू० ३ पूर्ण केवल-चैतन्य-घन मूर्ति, मुक्त जीवन भव-फेरी; अनंत-चतुष्ठय. भूप स्वरूपे, तूर्या अवस्था येरी...अवधू० ४ सद्गुरूराज कृपाबल से ये, स्वप्न सुषुप्ति नशे री; जागत उज्जागत्त हो अपना, सहजानंद विलसे री...अवधू० ५ __(१५४) शीलोपदेश ८-१.५८ क्षत्रियकुंड-हिल प्रवेश-पोष दशमी २०१४ ।। पराभक्ति पढो सुमति ! सुशीला तुम बनो सच्ची; प्रभु की भक्ति बिन तेरी, महिमा शील की कच्ची...१ शरीर भिन्न आत्म-ज्योति में, रहे चित्त वृत्ति लीन यदा; यही चारित्र धम यही, सुशील-स्वभाव सौख्य-प्रदा...२ कुशील-तन से लहे जीव नर्क, तन सुशीले नृ-स्वर्गीय-भोग; शुद्धात्म-सुशील से मुक्ति, सधे प्रभु भक्ति से यह योग...३ अतः प्रभु-भक्ति की युक्ति, पठित हो दे परीक्षा शील; रमो निज शुद्ध सहजानंद, वमो यह दुखद भव मंजिल...४ चित्रकाच्य १ अकविंशति-दल-कमल-बद्ध दोहाशम दम खम गम अममता । मन मह-मग सम-सीम ।। महि मह मठ यम-भ्रम मरा । नम नम मम-मति हिम ॥१॥ चित्रकाव्य २ द्वाविंशति-दल-कमल-बद्ध-दोहा । जिन चरनन नत-नयन मन-मनन जनन विज्ञान ॥ अरि-बन-खनन-हनन शरन धन ! धन! नर-तन शान ॥२॥ १५५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) ज्ञानमीमांसा के दोहे देहरादून-तपोधन ता० २०.५-५८ [लाला दीपचन्दजी जैन के आग्रह से स्वकृत ज्ञानमीमांसा से उद्धत एक अंश का हिन्दी अनुवाद-] केवल पर व्यवसाय जहँ, अप्रमाण अज्ञान । मान्य स्व-पर व्यवसायता, साधकीय सद्ज्ञान ॥१॥ केवल निज व्यवसायी है, केवलज्ञान स्वरूप । यही लक्ष्य अभ्यास से, प्रगटत आतम-भूप ॥२॥ सुमति मार्गानुसारिता, कुमति-उन्मार्ग-खान । संत-बोध ही सुश्रुत है, कुश्रु त अन्ध जबान ॥३॥ सत्पथ हद लंगत नहीं, अतीन्द्रिय अवधिज्ञान । केवल रूपी जड़ लखत, विभंग-अवधि-अज्ञान ॥४॥ पर - मनः पर्यय भी जहाँ, पावें पर्यवसान । समाधिष्ठ-मन पथिक का, सो मनःपर्यव ज्ञान ॥५॥ चलत पंथ भी ज्यों सभी, मार्ग बाह्य भी गम्य । नहीं चाह यदि बाह्य की, तब केवल पथ रम्य ॥६॥ केवल-पथ परमावधिज, यही परमावधि ज्ञान। तहाँ विश्व - सर्वज्ञता, सो सर्वावधि ज्ञान ॥७॥ सर्वावधि से ज्ञात जह, लोकालोक स्वरूप । ज्ञान त्रिकालिक विश्व का, यही सर्वज्ञ स्वरूप ॥८॥ ज्ञात फिर फिर क्यों लखें, ज्ञप्ति-तृप्ति अभंग। आप आप में परिणमत, केवलज्ञान असंग ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति-श्रुत-अवधि-मनः पयव, स्वापेक्षक चिद्-अंश । ये प्रातिम तारतम्यता, तिमिर-अज्ञता-ध्वंश ॥१०॥ प्रातिभ केवल बीज है, अरुणोदय चिद् ज्योत । तस फल केवलज्ञान घन, सूर्योदय उद्योत ॥११॥ द्रव्य भाव पर ज्ञय का, संग नहीं लवलेश । मात्र अकेला ज्ञान ही, केवलज्ञान विशेष ॥१२॥ उपयोगे उपयोग की, घनता सधी अखंड। कार्य स्वभावी निर्विकल्प, केवलज्ञान अमंद ।।१३।। अरुण प्रकाशे सूर्यवत् , ज्यों सबही देखंत । त्योंहि प्रातिभ-ज्योति से, स्व-पर प्रत्यक्ष लखंत ॥१४॥ लखत स्व-स्वरूप सिद्ध सम, देह'-भिन्न असंग। शुद्ध - बुद्ध चैतन्यधन, सहजानंद अभंग ॥१५॥ १ त्रिविध कर्म (१५६) शीलोपदेश पीर सं० २४८५ का सु० १३ महालक्ष्मी, ऊन ता०२४-११-५८ राग धन्याधी सतीयां ! रहो दृढ़ शील प्रवास ! शील ही ब्रह्म निवास"स. जगत ऐंठ अड-वीर्य अचौर्य, अमूर्छित चित जास; शील जीवन ही सत्य अहिंसा, अंतर-ज्योति-प्रकाश"स० १ शील विराधत फल देखो, डुक्करी जनन प्रयास ; कुक्कड़ी कुत्तियां गधियां रडियां जीवन धिक धिक तास"स०२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतत चालो पुरुष व्याघ्रन सों, धूर्त्त कामी प्रिय भास ; तकें शिकार ज्यों बुगला मच्छ को करो न रंच विश्वास - स० ३ हुआ अग्नि भी जल शीतल ज्यों, महिमा शील सुवास ; शील निष्ट महासती सीताजी, पद प्रणमुं सोल्लास स० ४ स्वरूप लक्षे योग प्रवर्त्तत, आत्मनिष्ठ अभ्यास ; शील ब्रह्म निष्ठा परमार्थिक ! सहजानंद विलासस० ५ (१५७) शीलेापदेश राग-धन्याश्री रे० १ रे सति ! तज नर पशु जन संग, पडत शील में भंग गरे० सुघत सुघत लपकत लंपट, मृगनयनी मृदु अंग ; सदा अतृप्त नर- व्याघ्र व्याधमन, नयन वक्र मुख व्यंग फुत्कारें फणिधर ज्यों फुत फुत, फांदत कुनर भुजंग ; डंकत व्यापे विषम विकलता, धधकत अनल अनंग... रे०२ अर र र ! यौवन बाग उजाडें, वानर-नर विकलंग ; कोमल कलियाँ कुम्पल फल सब, तोड़ मरोड़ अपंग रे० ३ जहाँ से निकले तहाँ चाटत छी ! मुत्र पुरीष सुरंग ; लड मरें नर कुत्ते हरामी, करत परस्पर जंग रे०४ १५८ महालक्ष्मी ऊन ता० २४-११-५८ दगावाज नर बाज तके नित, ज्यों तीतर शिशु तंग ; सावधान हो शील धर्मं भज, सहजानंद अभंग २०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) महेश शिवधाड़ी-बीकानेर २५-१-५६ मानव जो भजे जिनेन्द्र महेश, तो छूटे भव क्लेश मानव... स्तवन स्मरण करी श्वास उश्वासे, भजतां प्रभु ने हमेश; रटतां जिन पद निज पद पामे, आत्म स्वरूप स्वदेश: • •मानव... ममता मोह मान मदमारी, मन धरी आत्म प्रदेश ; हे जिवड़ा तु भज प्रभु ने नित्य, तज रे प्रमाद अशेष. मानव... शमाई जा निज आत्म भवन मां, समजी जुदो तन-वेश ; जीवन मुक्त सहजानन्दघन था, साचो. देव महेश• • •मानव... (१५९) प्रार्थना . . . . शिववाड़ी-बीकानेर ३०-१-५६ चंचल चित चिहुं दिशि भटकत है (२) दुर्दम दुर्गम दुर्पथ दौडत, दोष दावानल पटकत है."चं० मार्ग-महंत मानवता मौडत, मन्मथ मोहे अटकत है..'चं० मारत मारत मस्तक हंटर, मानत नहीं अति नटखट है.. चं० साह्य करो प्रभु सहजानंदघन, तेरो शरण एक ही सत है"चं० (१६०) योग-दृष्टि-समुच्चय सार पद .. हरिगीत ४-२-५६ तृण तेज सम-भा खेद-क्षय, अद्वेष यम मित्रा महीं छाणाग्नि-भा अनु द्वेग जिज्ञासा नियम तारा अहीं काष्टाग्नि-भा अविक्षेप सुश्रषा सधे आसन बला अनुत्थान, दीप प्रभा श्रवण प्राणायामी दीपा भला"१ रत्ना-भ, भान्तिक्षय, स्थिरा, निज बोध प्रत्याहारणा तारा-भ कान्ता, अन्यमुद् क्षय, गुणमीमांसा धारणा भवरोग-क्षय रवि-भा प्रभा मां ध्यान सत्प्रतिपत्ति ज्याँ आसंग-क्षय शशि भा परा स्व प्रवृत्ति सहज समाधि त्यां...२ १५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) प्रेरणा ४-२-५४ जीया तू दीया जला दिल का (२) जीव शरीर जुदा दिखला ज्यों, खली तेल तिलका. जी० भंग अनादिव मोह ग्रंथि हो, आत्म भौति छिलका“जी० वमन विरेचन रांगद्वष कर, शाम्य धर्म झलका.. जीय रीति ऋषिजन भीति भगा हो, सहजानन्द हलका" जी० (१६२) सत्संग प्रेरणा अबंचक त्रयी ४-२-५३ प्रतिदिन नियमित सत्संग करो..(२) भाव विशुद्ध संत-शरण गृही, योग-अवंचक मंच ठरो.. प्रक वर्शत क्च तन-मन आज्ञाधीन, किरिया अवंचक राह खरो...५० तीर्थपति निज जिनपद पावत, फल अवंचक भांति हरो"प्र० रामपुरी आराम स्वधामे, सहजानंदघन सिद्धि वरो.. प्र० (१६३) मन पंछी पद १५-१०-५६ चंचल मन-पंछी चुप रहो! पंख बिना उडत रे अंधा! इधर-उधर क्यों झांकत हो... हाथ विहीन कछु हाथ न आवत, पांव विहीन क्यों फांदत हो...चं० मुख विहीन क्यों मुख मरोडत, नाक विहीन नकटाइ करो"चं० रे बधिर ! सुन बास हमारी, सहजानन्द प्रभु शरण यहोवं० १६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) निज चेतावनी पद ११-२-६० जीया तू चेत सके तो चेत, शिर पर काल झपाटा देत... दुर्योधन दुःशासन बन्दे ! कीन्ही छल भर पेटः देख ! देख ! अभिमानी कौरव, दल बल मटियामेट : जीया० १ गर्वी रावण से लंपट भी, गये रसातल खेट : मान्धाता सरिखे नृसिंह केई, हारे मरघट लेट ; जीया० २ डूब मरा सुभूम से लोभी, निधि रिद्धि सैन्य समेत ; शक्री चक्री अर्ध चक्री यहां, सब की होत फजेत : जीया० ३ ता ते लोभ मान छल त्यागी, करी शुद्ध हिय खेत : सुपात्रता सत्संग योग से, सहजानंद पद लेत : जीया० ४ (१६५) सात्विक आहार-दान विधि रामकुटी आत्म-विज्ञान भवन हृषिकेष ५-५-६० नमोस्तु ! नमोस्तु ! तिष्ठो ! तिष्ठो! - आवो पधारो गुरुराज ! रंक झोपड़ी में प्राशुक अन्न जल काज रंक झोंपड़ी में निर्जन निर्मल इसी जंगल में, दास ने सजाया साजरंक० कुटी दिवार अंगन मृदु मृण्मय, फूस का छाया है छाज रंक० उपर छायी गारवेल अति शीतल, चटाई चंदोवा प्याज रंक० शिला चट्टानमय पाटा तखत ये, विराजो यहां शिरताज रंक० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांव पखारू' अर्घ उतारू, करूं क्षुधा तृषा इलाज रंक ० मिट्टी बरतन में मट्ठा विलोया, मीठा विशुद्ध सत्तू स्वाद • रंक ० तुंबी पात्रे प्राशुक गंगोदक, शुद्ध फलादि प्रसाद रंक० मन वचन तन भोजन शुद्ध है, करो सिद्ध भक्ति महाराज... रंक ० ना हो विलंब अब हंस तडफत है, आरोगो गरीबनवाज... रं० आहारदान के चिर मनोरथ, फूले फले अहो ! आज • रंक० जय हो जय ! जग निर्मथ-चर्या, स्व-पर निस्तारक जहाज... रंक ० अहो दानं ! अहो दानं ! वदे देव, सहजानन्द स्वराज• • • रंक० . (१६६) स्याद्वाद वैशिष्ठ्य हंसा ! रूठ गये तुम कैसे ? सुनि ॐ शान्ति ध्वनि भक्तन की, समझे अर्थ असे वे नूतन जन चिर परिचित तुम, विधि निषेध जहाँ जैसे • • • ६०१ शब्द शब्द के अर्थ विभिन्नता, आशय भाव विशेषे ; अर्थ-ग्रहण सापेक्ष सुनय विधि, कही स्याद्वाद जिनेशे "हं० ३ ... हृषिकेश ६-५-६० राग-द्वेष अज्ञान मिटत है, जिन सिद्धान्त प्रवेशे ; सहजानन्द रस धारा वर्षत, आत्म प्रदेश-प्रदेशे डं० ३ १६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) धूप-दशमी रहस्य राजपुर, सुगन्ध-दशमी १-६-६० भादवा सुदि १० सं० २०१६ राग-पूर्वी मैं ऊजव, धूप-दशमी व्रत चंग; प्रगटी अनुभव गंग.. मैं.. तन-मन्दिर ज्ञायक वेदी स्थित, चिन्मूरति सरबंग ; दश दिशि-अंबर तान चंदोवा, छत्र त्रिरत्न अभंग- म०१ गुरुगम-बल षट्-चारों भेदत, चक्र-व्यूह क्रम अंग ; चक्र-चक्र प्रगटे चिद् ज्योति, दश दीपक मन रंग...२ महाशान्ति अभिषेक सुधारा, सुधा-वृष्टि उत्तमंग ; प्रतिचक्र कमलाकृति विकसत, महके दिव्य-सुगंध.. मैं० ३ दशों द्वार दश-मुख घट संवर, खेवू धूप-दशांग ; उडत धूम्र कार्मण आरति,-दश-शिख दश-ध्वज रंग ""मैं० ४ दिव्य ध्वनि दश भेद संगीते, पढ दश पूजा उमंग ; धान्य-सप्त धातु स्वस्तिक कर, मेट चौगति-संग.. म०५ सुगंध-दशमी पर्व उद्यापन, रहस्य यही अंतरंग; अनुभव पथ पावे कोई बिरला, सहजानन्द सुरंग...म०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) नूतन वर्षाभिनन्दन-पद पीरात् २४८७ का शु० १ २१-१०-६० (गजल) चेतन तुम्हें सदा हो, नूतन वर्षाभिनंदन... जयकार हो तुम्हारा, स्व स्वागताभिवंदन...१ मारा मारा फिरा तूं, बीता मिथ्यात्व जीवन ; पर हाथ कुछ न आया, पाया न आत्मदर्शन...२ पुण्योदये तुझे जब, मिला वीतराग स्पर्शन; तब परमगुरु प्रतापे, समझा स्व और परधन...३ स्व-अर्थ-धन तुम्हारा, चैतन्य भाव पावन ; जड़भाव धन पराया, तज कर किया विशुद्ध मन...४ परज्ञेय भिन्न केवल-चिद ज्योति पिण्ड सोहम् ; सोहं की लौ लगा कर, प्रविनष्ट क्षोभ मोहम्"५ दबी चेतना प्रगटी जब, निज क्षेत्र-वर्ष नूतन ; सहजात्म-स्वरूप निष्ठित, स्वतंत्र सहजानंदधन...६ (१६६) प्रेरणा-पद उदरामसर-धोरा-गुफा ११-११-६० चाल-[जब तेरी डोली निकाली जायगी ] ला दिखादे अपने वहीवट की बही लाभ-हानि हिसाब तूं बतला सही...१ दीर्घ-निद्रा काल झटपट आ रहा पर परिणति में समय क्यों खो रहा...२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद रोज में चल वसेगा तू' कहां? दर्द दिल का नहीं मिटा अब तक यहां...३ जीव फिर भी चेतता नहीं क्यों अरे ! जैन नाम धरा न जीता मोह रे...४ नर-पशुता छोड अब नरसिंह बनो ; रणभूमि में मोह-क्षोभ सुभट हनो...५ ईतर झंझट छोड आत्म-साधन करो; शम परायण सहजानन्द स्व-पद वरो"६ (१७०) पद होली ता० २४-२-६१ . राग-होरी पिय संग खेलू मैं होली, प्रेम खजाना खोली.. पिय० गुप्ति गढ चढ बंकनाल-मग, गये हम दशम-प्रतोली, अशोक-वन अनुभूति-महल में, ज्ञान गुलाल भर झोली रंग दी पियु मुह-मौली.. पियु० १ घट-पंकज-केसर चुन-चुन कर, पांडु-शिला पर घोली, मिला सुधारस भर पिचकारी, पियु छिडकें हम चोली; हम पियु पिंड डुबोली पियु० २ पियु भी हम सर्वाग डुबोकर, पाप कालिमा धोली ; वाजत अनहद बाजे अद्भुत, नाचत परिकर टोली; दिव्य संगीत ठठोली "पियु०३ ब्रह्माग्नि सर्वांग ही धधकत, कर्म कंडे की होली ; क्षायिक भावे खाक उडा फिर, बैठ स्वरूप खटोली ; सहजानन्द रंग रोली पियु०४ १६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) प्रेरणा देह दुर्लभ नर की नर ! तुझ को मिली, वीत गई उम्मर न आये निज गली १ लाख यत्न करो बहिर्मुख सुख नहीं, लक्ष द्रष्ट्रा में धरो न फिरो कहीं २ रांकडा तुम बांकडा बन जाओगे, काय वच मन भिन्न निज धन पाओगे ३ जैन सच्चा हो जिनेश्वर पथ चले, नर स्व-सहजानन्द-पद में जा मिले ४ (१७२) जिन-वाणी-स्तुति अनन्त-अनन्त भाव भेद से भरी जो भली, अनन्त-अनन्त नय निक्षेपे ध्याख्यानी है सकल जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी-भवाब्धि मोक्ष-चारिणी प्रमाणी है उपमा देने का जिसे गर्व रखना ही व्यर्थ, देने से दाता की मति मपाई मैं मानी है अहो ! राजचंद्र बाल ख्याल में न लेते इसे, जिनेश्वर-वाणी कोई विरले ही जानी है ॥१॥ [श्रीमद् राजचंद्र कृत गुजराती स्तुति का हिन्दी रूपान्तर ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) मंगल दीपक रहस्य पद हम्पी १७-४-६२ जग मग जग मग जग मग हीया, . प्रगटाया प्रभु मांगलिक-दीया, अपने घट किया मांगलिक दीया, . अहं मम गालक अर्थ-प्रक्रिया...१ केवल दर्शन-ज्ञान स्वकीया द्विविध चेतना निज रस प्रिया : · भूम तम विघ्न विनाशक क्रिया अनंतवीर्य अरि-अंत करी या...२ अनंत चतुष्टय स्वाधीन जीया, मंग-स्व सहजानंद-पद लीया : मंगल दीप रहस्य सुधीया ! ___अंतरंग विधि अनुभवनीया...३ (१७४) नूतन दम्पति ने मंगल आशीष दोहा १२-५-६२ भोग शरीर संसार ए, छे अनादि भव रोग। चिकित्सक थइ ने हरो, सहजानंद सुयोग ॥१॥ व्यभिचार न थवा कह्यो, दम्पति धर्म आचार। करो धम अंकुश थी, काम अर्थ व्यवहार ॥२॥ विना धर्म अंकुश थी, काम अर्थ ज अनर्थ । धर्मा कुशे मोक्ष दे, एज काम में अर्थ ॥३॥ सहजानंद स्वरूप छे, निर्विकार चिद्र प विकार विष ने विरेचतां, सहजानंद अनूप ॥४॥ आशीस म्हारा वांचजो, नूतन दंपति आज धर्म मर्याद न छोडजो, सहजानंद जहाज ||५|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) प्रेरणा शरद पूनम २०२० (हम्पी) ता० ३-१०-६३ हां रे शुद्ध प्रेमी सत्संगी सौ आवजो हो राज ! जंगल मां भक्तो नी झुपड़ी... हारे मले देशी साथे तेड़ी लावजो हो राज ! जं० देशी आत्म बुद्धि धरे, आत्म स्वरूप मां प्रज्ञ ; आत्म बुद्धि जड़-देह मां, ते परदेशी अज्ञ... हारे परदेशी नो संग नवि जोड़जो हो राज. जं० १ धर्म क्रिया परदेशी नी, अन्तर्लक्ष विहीन ... तप-जप किरिया खप करी, भवो भव भटके दीन ; हारे दृष्टि अंधा ना धंधा ए तोउजो हो राज 'जं० २ वाह्य क्रिया वेषादि मां, बलग्या दृष्टि अंध; गच्छ मत ममता थी लड़े, लहै न धर्म सुगंध... हारे तेथी खोटी चर्चा नवि छेड़जो हो राज जं. ३ संत इशारो सांभली, करो निज लक्षे भक्ति; देह भान भूल्ये सधे, सहजानन्दधन युक्ति .. हारे तमे शिक्षा ए न्याय थी तोलजो हो राज जं० ४ शरण-स्मरण गुरुराज नु, एक ज निष्टा होय आत्म-ज्ञान-समाधि ने, पामे नियमा सोय. जं. हारे हैयु भक्ति ना रंगे रंगावजो हो राज. जं०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) सांवत्सरिक खामणा २०२० भा० सु० ४ गुरुवार ता० १०-६-६४ गजल-कव्वाली खमा सर्व जीवो ने, थयां होय दोष जे म्हारा; भवो भव ना बधा खमजो, क्षमा धर्मे रही प्यारा...१ कर हूं पण क्षमा सौ ना, थयां होय दोष म्हारी प्रत्ये; परस्पर खमो खमावी नै, आराधक आपणे थइये २ निःशल्य थवा तणी ए रीत, सर्वज्ञ बतावी छ । हृदय नी शुद्धता करवा, प्रणाली आत्म हितकर ए...३ मिच्छामि दुक्कडं मागु, परम गुरुराज नी साखे ; करो स्वीकार सौ जीवो, ओ सहजानंदघन भाखे...४ (१७७) महासती महिमा १५-६-६४ जगमाता मैंने देखी अद्भुत मूरति, अ० जग० जिन्हें प्रगट सर्वांग आतमा, हो गई नष्ट मिथ्यात्व मती.. जग० पैर चुंबत है अष्ट महासिद्धि, नव निधि रिधि विस्तृत अती.. जग० गगन विहारे महाविदेहे; वंदे शास्वत तीर्थपति • जग० कभी जायँ ए द्वीप नंदीश्वर, देव-देवी सह करें भक्ती.. जग० कभी जाय ए इन्द्रसभा में, धार्मिक संवादे सुरति जग० विनय करें इन्द्रादिक फिर भी, गर्व न धरें अकल विभूति जग० ऐसी अदभुत आत्मदशा पर, महिमा न जाने अल्पमती.. जग० बाह्य वेश व्यवहार देख कर, कर्म बांधे कोई निंद्यमती.. जग० बंदो निंदो हर्षे शोक नहीं, सदा रहें निज अलख मस्ती. अग० धन-धन हे धनदेवी महासती, आशीष सहजानंद वती.. जग० १६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) धर्ममाता धनबाई धन-धन धर्म माता धनबाई, मेरी नैया पार लगाई - धन० सात हजार वर्षों पर मैं था, रुद्रमुनि मिथ्यात्वी बड़ा ही धन० आत्म-भान विनु तप तपता था, कंठ भुजा रुद्राक्ष सजाई धन० मिथ्या देव गुरु धर्म प्रचारक, कर्त्ता-धर्त्ता मान बड़ाई... धन० व्याधिग्रस्त असहाय बना तब, महासति तुम करुणा वरसाई धन० खान पान औषध उपचारे, स्वस्थ बनाया निच्छलताई "धन० जैन धर्म का मर्म बताया, जैनी बनाया ढोंग छुडाई धन० क्रमशः हुआ मैं जिनदत्तसूरी, युगप्रधान आचार्य बड़ा ही धन० अब मैं हूँ देवेन्द्रदेव यहाँ, गुरु स्थानीय शक्रेन्द्र सभाइ धन० अगले भव भव मुक्त बनूंगा, हे सति ! ये सब तेरी कृपाइ धन० प्रत्यक्ष हो गुरु दत्तसूरि वर, निज घटना यह मुझको सुनाई धन० सहजानंदघन प्रमुदित होकर, शीघ्र ही पद्यारूढ बनाई ... धन० (१७६) अलख बाबो १७० देख्यो री मैंने अलख बाबो जी ऐसो (२) औरत को ये स्वांग सजा कर, ला सत्पुरुप ही जैसो· · दे० सहजानंद रस छाक छक्यो फिरे, सुरनर सेव्य अशेषो· · · दे० अंतर सावधान निज ज्ञाने, बहिरंग विचित्र निवेशो... दे० लोक दिखावन खावत - पीवत, हंसे हसावे को कैसो " दे० अंधी दुनियां समझ न पावै, करे प्रवर्त्तन तैसो " " दे० धन धनुबाबो परख्यो हरख्यो मैं, जैसो देख्यो कहूँ तैसो. दे० Jain Educationa International ... For Personal and Private Use Only १-१-६५ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) अनुपम बाग [कुनूर-नीलगिरि] वै० १५.२०२२ आये हम अनुपम बाग कुटीर . अनुपम बाग कुटीर आये० अनुभव-रस परिपुष्ट होइ जहां, बहत सुज्ञान सलील ; आतम-हंस किलोल करत यहां, रोम हंसावे समीर"आये०१ त्रिविध ताप उताप न लागत, मेटत भव भय पीर... उन्नत नीलगिरी शृंग बैठत, होवत सबही अमीर.. आये०२ कुनूर भी सुनूर बनत यहां; छी लर होत गंभीर ; सहजानंदघन विलसत निशिदिन, रमता राम सुधीर.. आये०३ (१८१) प्रेरणा ता. ६.४.६७ पद कच्छी भाषा में औयें कित्त सुत्तो तु टंगु पसारी मुरखा! बाजी वों तो हारी... (२) मोह निधर जे सुपने में तु, भक्के उधरखी भाई ! जड़-काया के पिंढ रूपें मंत्री, केडी कयें मुडसाई.. ॲयें. १ तोजो-मुंजो कयें वाटणी, तें में कैंये लड़ाई; घडीक सुखी ने घडीक दुखी मंत्री, केडी कैंयें नफटाई.. #यें० २ घडीक टोंक हैं मुरके, धुरके-धडीक दंध किकडाइ दुस्का भरी-भरी घडीक रूंएं तु, घडीक फुन्ने हिच्चकाई.. ॲयें०३ जाग-जाग तुं अख्यु उध्घाडी, न्यार स्वरूप अच्छाई, अयें मुक्त संसार सुपन सें, सहजानन्द सवाई.. अँ०४ १७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) खामणा ८-६.६७ थया अमे खमी-खमावी निःशंक, बेसी राज प्रभु अंक...थया० काल अनादि नो अनन्तानुबंधी, सिलक हतो भव-पंक; परमकृपालु शरणे जातां, आत्मा थयो निःकलंक. थया०१ शाता नो भिखारी भटक्यो, चोर्यासी मां रंक; परम कृपालु कृपा थी हवे तो, सहजानंद सटकथया० २ (१८३) नव दम्पत्ति आशीर्वाद हम्पी १६-२-१९६६ भोग शरीर संसार यह, है अनादि भव रोग ; चिकित्सा इसकी कहूं, सहजानंद सुयोग...१ बचने को व्यभिचार से, दम्पति धर्म आचार ; करौ धर्म अंकूश से, काम अर्थ व्यवहार..२ बिना धर्म अंकूश ये, काम अर्थ ही अनर्थ ; धर्माकुश से मोक्षप्रद, येही काम अरु अर्थ...३ जन्मान्तर संस्कारवश, उदित विकार ही कर्म ; आत्म भान समता बलै, शमन करौ यही धर्म...४ देह कुटुम्ब समाज अरु, देश राष्ट्र ऋण बन्ध ; उऋण होने के लिए, करौ स्वधर्म सम्बन्ध...५ पति पत्नी यह देह है, हम सहजात्म-स्वरूप ; जैसे सिद्ध भगवान हैं, निर्विकार चिद्र प...६ १७२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्विकार प्रभु ध्यान से, उद्भूत विषय विकार ; विष भी अमृत होत है, लग्न-जीवन का सार...७ धर्म सुदर्शन चक्र से, कर्म रिपु बल नाश ; जड़ चेतन भिन्न होत है, प्रगटे ज्ञान प्रकाश...८ आशीष मेरा आपको, नूतन दम्पति आज ; धर्मी सुखी रहो सदा, सहजानंदघन राज... (१८४) श्रीजिनरत्नसूरि गुरू स्तुति गुरुराया अहो गुरुराया रे जिनरत्नसूरि गुरुराया, आज आचारज पद पाया रे, जिन० ( आंकडी ) शाह भीमसिंह ओसवंसी तस, तेजबाई वरजाया, ओगणी अड़तीसे लायजा नगरे, इहभव जन्म धराया रे जि० १ व्यवहारिक कला कौशल्यमय, जीवन लघुवय पाया, क्षणभंगुर निज देह पिछानी, वैराग रंगे रंगाया रे, जि० २ खरतर गच्छपति मोहन मुनिवर, शांत महंत कहाया, कर्मविपाक सुप्रवचन सुनकर, प्रतिबोधामृत पाया रे, जि० ३ ओगणी अठावन विक्रम संवत् , रेवदर अर्बुद छाया, मुनि शिरताज श्रीराजमुनि गुरू, मुनि पदवी बक्षाया रे, जि० ४ काव्य कोष छंद न्याय ज्योतिष अरु, व्याकरणे चित्त लाया, आगम प्रकरण पठनतया निज, त्याग रंग विकसाया रे, जि०५ क्षमार्जव मार्जव मुक्त्यादि, यतिधर्मे महकाया, क्लेश कुपंथ कदागह, परिगह, त्यागी ममता माया रे, जि० ६ १७३ www.jainelibr Jain Educationa International For Personal and Private Use Only For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकल आहार निहार वृत्तिधर, एकासन तप ठाया, देश विदेश गुरू उगू विहारे, केइक भव्य बूझाव्या रे, जि० ७ ओगणी छासठमें लश्कर नगरे, श्रीजिनयशः सूरि राया, योगोद्वहन सह आंबील तपकर, गणिवर पद विभूषाया रे, जि०८ संघ आगह सह मुम्बापुरी में, जिनऋद्धिसूरि राया, सूरि मंत्र अनुष्ठान पुरस्सर, सूरिपदे स्थपवाया रे, जि० ६ ओगणी सताणव धवल आषाढे, सप्तमी गुरु अशाया, महोत्सव दशदिन अवनव रंगे, बढते नूर सवाया रे, जि० १० छत्रीस गुणगण सज्ज हुए गुरू, जन तन मन हर्षाया, यत्किंचित गुरूजीवनदर्शन, भद्र आनंद न माया रे, जि० ११ (१८५) मांगु क्षत पद आप कनेथी मूंगी मागणी मार्गां अक्षत पद आप कनेथी, आप कनेथी गुरू ! आप कनेथी, मूंगी० (आंकडी) छे अविनाशी अर्थ अक्षत नो, शुद्ध अक्षत लावु तेथी, अक्षत० १ नवतत्वो छे बीजभूत जेहना करू नंद्यावर्त्त अथी, अक्षत० २ ज्ञान दर्शन ने चारित्रमयी ते, ढगली करू त्रण जेथी, अक्षत० ३ सिद्धशिला पर ठाम छे जेहनो, अर्द्ध चंद्राकार एथी, अक्षत० ४ अक्षत पद फल लेवा मुकु छु, गहुंली उपर फल तेथी, अक्षत०५ अहवा संकेतथी शिव पद मागु, वांदीने त्रिकरणेथी, अक्षत०६ तारक बुद्धि करी करुणा गुरू, वांचो व्याख्यान आप तेथी, अक्षत० ७ मुक्ति दर्शक आप वाणी सुणी ने, व्रति बने भवि जेथी, अक्षत०८ श्री 'जिनरत्न' त्रयी प्रगटावी, भः पामे सुख एथी, अक्षत १७४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) जिनरत्नसूरि ने वंदना . वंदना वंदना वंदना रे, जिनरत्नसूरि ने वंदना, गुरू वंदन प्रेम आनंद ना रे, जिन० (आंकडी) छ? अठ्ठम तप अग्नि ज्वालाए, साधन कर्म निकंदना रे, जि० १ थाणा नगरीए रही चौमासु, बोधन भविजन वृदना रे, जि०२ परण्या भूपाल श्रीपाल ए नगरे, नरपति मातुल नंदना रे, जि० ३ शुद्ध भावे श्रीनवपद पूज्या, पुष्पो गृही अरविंद ना रे, जि० ४ तीर्थ तणी ए प्राचीनता नी, कोई काले थई खंडना रे, जि०५ तेह उद्धार ने कारण आपे, हाथ धरी चैत्य मंडना रे, जि०६ अद्भुत उत्तुंग रचना करावी, टाली ने केइ विटंबना रे, जि०७ विध विध कोरणीमय पट रचना,मयणा श्रीपाल तास अंबना रे, जि० एह प्रसाद छे आप गुरूवर नो, उज्वल कीर्ति अमंदना रे, जि०६ खरतर गच्छपति रिद्धिसूरि गुरू,महके गुलाब तनु स्यंदना रे, जि०१० चित्त जंप्यु दोय दर्शन थी, ग्रीष्मे ज्यु बावरी चंदना रे, जि० ५१ सुशिष्य रत्नसूरि संघ सकले, भद्र भावे करी वंदना रे, जि० १२ ___(१८७) सुणो अम अर्ज जरी (सिद्धाचल...क्रोडो प्रणाम, ए चाल) श्रीजिनरत्नसूरि ! सुणो अम अर्ज जरी ( आंकड़ी) अम भाग्ये गुरू आप पधार्या, दुष्काले जलधर अणधार्या ; __ चातक प्यास हरी...सुणो० १ कल्पवृक्ष ज्यु मरुस्थली मां, मुम्बापुरी नी लालवाड़ी मां ; प्रगट्या तरण तरी...सुणो० २ १७५ vain Educationa International Jain Educationa International For Personal and Private Use Only For Personal and Private Use only www.jaineilbran Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुर गिरा अमृत वरसावी, भगवती सूत्र नुं पान करावी ; गौतम प्रश्नोत्तरी...सुणो० ३ तदुपरांत भावना अधिकारे, कथा विक्रम भूपति अति भारे ; श्रवणीय सुरस भरी. सुणो० ४ वाणी सुणी कठीआरा आपे, दूर थया गुरू आप प्रतापे ; ___ अंतर उर्मि ठरी...सुणो० ५ दर्शक पूजक अधिक संख्याए, केई जोड्या व्रत जप तपस्याए ; आपी बूटी खरी...सुणो० ६ अति उपकार कयों गुरू अम पर, पूर्ण चढावो श्राद्ध श्रेणी पर; . त्यां लगी अहिं विचरी...सुणो० ७ भगवती सूत्र ने पूर्ण कर्या विण, संघ रजा आपे कारण किण ; रहेजो स्थिरता करी...सुणो० ८ जो न बुझावे प्यास सरोवर, तो शु गोपद आश हे गुरूवर ! न्याय विचार धरी. • सुणो० ॥ बीड़ खेड़ी ने बाग बनाव्यो, फल आपे कम विण सिंचाव्यो ? तेम अम स्थिति नरी...सुणो० १० आप संगति नो खप छे अमोने, तेहथीज विनति करीए तमोने; करो चौमास फरी.. सुणो० ११ माटे गुरूवर अत्र विराजो, देशनामृत थी अमने निवाजो; दयालु दया करी...सुणो० १२ रवजी सेठ आदि सहु संघे, विनति करे छे अतिहि उमंगे; नयणे नेह धरी. सुणो० १३ ओगणी अठ्ठाणुं ज्ञानपंचमीए, गुरूवर नमी दुःखदवे उपशमीए; श्रेय विचार करी. • सुणो० १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) रत्नसूरिराज ने हुं वंदना करू रत्नसूरि राज ने हुं वंदना करू, वंदना करूं गुरुवर वंदना करू, रत्न० आप देशनामृतो ने हृदय मां धरू, हृदय० गुरुवर हृदय मां० रत्न ०१ वस्तुतः एहीज जैन धर्म छे खरू, धर्म० गुरु ० धर्म० रत्न० २ कामी रागी रुद्र पीर केम त्यां जब, केम० गुरु ० केस० रत्न० ३ भर्यो छे मिथ्यात्व जेमा केम ते स्तयुं, केम० गुरु० केम० रत्न० ४ शुद्ध देव धर्म गुरु पाय हुं पडु, पाय० गुरु ० पाय० रत्न० ५ जीवदयामयी अहिंसक जीवन हुँ घडुं, जीव० गुरु ० जीव० रत्न०६ माया क्रोध मान लाभ शीघ्र उपशमं शीघ्र गुरु० शीघ्र० रत्न० ७ सत्य वचन केलवी असत्य ने वसुं, अस० गुरु० अस० रत्न० ८ अणपूछ अनेरी कोई वस्तु ना गहुँ, वस्तु० गुरु ० वस्तु० रत्न०६ ब्रह्मचर्य स्नान थी पवित्र हुं रहुं, पवि० गुरु० पवि० रत्न० १० दुष्ट विषय वासना ने तप तपी दमुं तप० गुरु ० तप० रत्न० ११ परिग्रह त्यागी आत्म रमणता रमुं, रम० गुरु० रम० रत्न० १२ पंच ए महाव्रतो थी कर्मने दहूं, कर्म० गुरु ० कम० रत्न० १३ साद्यनंत भद्रकारी मुक्ति मां रहूं, मुक्ति० गुरु० मुक्ति० रत्न० १४ " (१८९) चालो मली एक संगे साहेलड़ी चालो मली एक संगे साहेलड़ी ! सूत्र सांभलवा, सूत्र सांभलवा आत्म ओलखवा चालो... ( आंकडी ) जीव अजीव पुण्य पाप तत्वादि, जैन दर्शन ना दीवा. सा० १ शुद्ध देव गुरु धर्म पिछाणी, प्रेमे अमृत रस पीवा. सा० २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १७७ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान माया काम क्रोध क्लेशादि, छंडी ए सर्व विभावा. सा० ३ दुःखदायक राग द्वेष विध्वंशी, मुक्ति मारग मां जावा. सा०४ घाती अघाती अष्ट कर्म संहारी, अमल अक्षय पद लेवा. सा०५ जैनधर्म नो सार ज छे ए, करो कारज सहु एवा. सा०६ भाखे भवि उपकार ने कारण, सूत्र श्री देवाधिदेवा. सा० ७ तेथी साहेलडी श्रवणे सुणी ने, चाखो अमृत फल मेवा. सा०८ शमी दमी जिनरत्नसूरि वर, प्राये निगथी जेवा. सा०६ तास नमी भद्र आनंद पावे, वरसी रह्या मेघ नेवा. सा० १० नोट :- नं. १८४ से नं० १८६ तक की रचनाएं सं० १९:७-८ में बम्बई मे गुंफित हैं । और "रत्नप्रभा" से उद्धृत की गई हैं। (१९०) श्री जिनरत्नसूरि गहूंलो (राग-श्री सिद्धाचल ने सेवो भवियाँ) रत्नसूरि गुरुराज ने वंदन, वंदन वारंवार तुमने ॥ आंकड़ी॥ पर उपकारी दयानिधी रे, पर दुख भंजणहार गुरुजी ॥१॥ पतित उधारण प्राणीया रे, परम कृपालु मुनिराज गुरुजी। अंतरचक्षु उघाडीया रे, आतमज्ञान कराय गुरुनी ॥२॥ जंबूद्वीप ना दक्षिण भरते, मध्यखंड मनोहार गुरुजी। ते मांहे सुंदर अति शोभे, कच्छदेश सुखकार गुरुजी ॥३॥ जन्म लियो गुरु लायजा गामे, श्रावक कुल शणगार गुरुजी। माता तेजबाई उर अवतरीया, पिता भीमशी भाई नाम गुरुजी॥४॥ छोडी मोह संसार नु रे, आप 'थया अणगार गुरुजी। तीन रत्न ने साधवा रे, वरवा निज सुख सार गुरुजी ॥५॥ १७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांत दान्त समता सिंधु रे, बाह्यांतर तप धार गरुजी। जग जन ने प्रतिबोधवा रे, करता उग विहार गुरुजी ॥६॥ मधुर ध्वनि दिये देशना रे, अमृत सम गुरु वाण गुरुजी। भविजन आगल वर्णवा रे, सूधी जिनवर आण गुरुजी ||७|| एम अनेक गुणे भर्या रे, चरण करण ना भंडार गुरुजी। रत्नसूरि गुरु पद नमु रे, मुझ मन प्रेम अपार गुरुजी ॥८॥ (१९१) श्रीजिनरत्नसूरि गहूंली (राग सिद्धाचल ना वासी तुमने क्रोडों प्रणाम) रत्नसूरि गुरुराज तुमने लाखों वंदन, तुमने लाखों वंदन । बाल ब्रह्मचारी गुरुराया, पुण्ये तुमारा में दर्शन पाया। सफल थयो अवतार, तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न० ॥१॥ दुनिया नी माया ने लोडी, मन ने धम ध्याने जोड़ी। लीधो संजमभार तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न० ॥२॥ कंचन सम छे काया गोरी, जीवो ने शिव-मार्गे दोरी। करो छो बहु उपकार, तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न० ॥३॥ प्रमाण नय ने तत्व जाणों, जैनधर्म ना मर्म ने माणो। दर्शन आनंदकार, तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न० ॥ ४॥ उपदेश शैली अपरंपार, जाणे सुणीए वारवार । संसार तारणहार, तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न० ॥५॥ तुम मुख दर्शन करवा काजे, मुंबई शहर थी आव्या आजे । हैये हर्ष अपार, तुमने लाखों वंदन ॥रत्न० ॥६॥ आवतु चौमासु मुंबई शहेरे, अम विनंती करिये मेहरे। स्वीकारो. गुरुराज, तुमने लाखों वंदन ॥ रत्न०॥७॥ ये दोनों सं० २००० में प्रकाशित भद्र-पुष्पमाला १७६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) दादा श्री जिनचन्द्रसूरि प्रार्थना राग-भारत का डंका आलम में । दादाजी श्रीजिनचंद्रसुरि, गुरु दर्शन अमने आपो ने; गुरु दर्शन अमने आपो ने, अम दुःख दोहग सहु कापो ने दा० १ श्रीसंघ तणी छिन्न भिन्न दशा, छेदी करी एकता थापो ने; निर्नायकता दूरे करवा, अम युगप्रधान एक आपो ने.. दा०२ जिनरत्नत्रयी अवलंबनना, सुणीए उपदेश आलापो ने; सुणी वीनति अम बालाओनी, सद्बुद्धि सहु ने आपो ने.. दा० ३ [ स० २००३ में प्रकाशित गुजराती 'पच प्रतिक्रमण सूत्र' में प्रकाशित ] -::(१६३) समज-सार चारभुजा रोड आश्विन सं० २००७ जड़-चेतन अधिकार :पूर्ण ब्रह्म शुद्धातमा, चिदानंद सद्राज; परम कृपालु स्वरूपने, नमु अभिन्न थई आज...१ 'स्यात्' पदांकित शब्द-ब्रह्म, कृपा शारदा माय; स्वानंदे निजमां रमु, समज-सार प्रगटाय...२ शुद्ध चिन्मूर्ति ते छता, छे स्व-परिणति अशुद्ध रागादिक मल अशुद्धता, थाय समज थी शुद्ध ..३ साध्य शुद्ध निज आतमा, तास थापना सिद्ध अविच्छिन्न सेवन थकी, साधक थाय समृद्ध...४ १८० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध स्वरूप मन मन्दिरे, पधरावी सोल्लास; समज हेतु सुविचारथी, करू तास सहवास...५ उपज-स्थिति-लय प्रति समय, ऐक्य, परिणमन नित्य; अनंत गुण पर्ययमयी, चिदुसत्ता निज सत्य... ६ निज चिद सत्ता - बीजने, ज्ञान भवनमा वाइ; स्थिरता रक्षक सोंपीने, रहुं अचिन्त सदाइ...७ दर्शन ज्ञाने रमणता, ओ सनातन स्व-धर्म राग-द्वेष- अज्ञानमां, रमवु ते परधर्म... ८ धर्मी धर्मज एकता, सहजानंद विलास; धर्मविमुखता धर्मीनी, दुःख संतति आवास...ह पर घर गत सति पत दहे, जडथित चेतन राय; पर हद नृप केदी बने, निज हद सुखद सदाय...१० काम भोग बंधन कथा, जगमां सुलभ असार; चिदानंद अनुभव कथा, दुर्लभ केवल सार... ११ चिदानन्द अनुभव विना, जे जाण्युं ते धूल; अनुभव-पथ आरोहवा, त्याज्य प्रथम ए शूल• • • १२ स्वानुभूति गुरू सोंपी ने, निःशल्य मन निर्धार; मुमुक्षुता बख्तर सजी, था चेतन ! होशियार... १३ Jain Educationa International संत-बोध : छति ऋद्धि पण भान नहीं, तेथी माँगे भीख; तुज वैभव तुज दाखवु, माने जो हित सीख... १४ For Personal and Private Use Only १८१ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यात् पदांकित शब्दब्रह्म, ने संवेदन साख; युक्ति बोधथी तुज कहुँ, सुण रे ! थई थिर थाप...१५ ज्योत घटादिक उभयनो, द्योतक दीपक जेम; - चेतन ! ज्ञायक भाव तुज, स्व-पर प्रकाशक तेम...१६ दाह्याकार छतां दहन, दाह्य पणुन धराय - ज्ञेयाकार छतां ज तु, ज्ञेयपणे नव थाय...१७ दर्पण जल गत बिम्बना, जल दर्पणता पाय; तेम दृश्य ज्ञेय बिम्बथी, चेतनता न पमाय...१८ ज्ञय ज्ञान अनुभव समय, सोहं सोहं थाय; ... ते स्वरूप तुजनो सदा, ज्ञायक भाव बदाय...१६ क्षीर-जल न्याय अनादिथी, तुज सम्बन्ध जड़ साथ; . पण तु-तु जड-जड सदा, सौ सौ निज निज नाथ...२० अनंत अवस्था पिंड तु, एक अछेद्य अभेद; सत्य दृष्टिए छो सदा, निर्विकल्प निर्वेद..२१ पामर जन प्रतिबोधवा, चारित्र दर्शन ज्ञान; प्रमत्ताप्रमत्त भेदादि सौ, वे'वार मात्र प्रमाण. . .२२ चूरि आदि पर कालिमा, पन्नर वला पर्यत; सोल वलानी दृष्टिए, कनक अशुद्धतावंत...२३ जड संगे चेतन रह्यो, गुणठाणांत पर्यंत; सिद्धस्वरूपनी दृष्टिए, तेम अशुद्धतावंत...२४ अशुद्ध विषय व्यवहारनो, निश्चय शुद्ध प्रमाण; निज निज स्थाने सत्य पण, विरोध आपस जाण...२५ १८२ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमारथ उपदेशवा, साधन छे व्यवहार; समज इशारा थी लहे, मुंगा बाल गमार...२६ पंक मिश्र जल जोइने, तरस्यो रहे अजाण; कतक चूर्ण प्रयोगथी, पीए शुद्ध जल जाण. . २७ कतक चूर्ण प्रयोग सम, निश्चयनय विज्ञान; जड-चेतन भिन्नता करी, प्रगटावे निज ज्ञान....८ श्रु तज्ञाने अनुभव करे, ज्ञायक शुद्ध स्वरूप, । श्रुतधारी श्रुत-केवली, भाखे त्रिभुवन भूप...२६ निश्चय ज्ञान ते आतमा, गुण गुणी एक अभिन्न; अक्षत कण एक ज थकी, पाक ज्ञानता पीन...३० निश्चय विण व्यवहारनो, नियमा फल संसार; निश्चयने अवलंबीने, चिदानन्दघन सार...३१ शुद्धात्मा शुद्ध नय बले, जाण्यो जाय त्रिकाल; तदनुकूल व्यवहार विण, कदी न लागे भाल...३२ जड-चेतन नवतत्त्वनी, शुद्ध नय बले प्रतीत; हेयोपादेय ज्ञेयथी, सम्यग्दर्शन रीत...३३ बंध पर्याय समीपमा, नव तस्यो छे सत्य; मुक्त स्वभाव समीपमा, जाणो तेज असत्य...३४ नय निक्षेप प्रमाण पण, तेमज सत्यासत्य; . शुद्ध स्वरूपनी प्राप्तिमां, निज निज स्थाने पथ्य....३५ जल निमग्न जल कमल, स्पर्श परस्पर सत्य; कमल स्वभाव समीपमा, पण ते स्पर्श असत्य...३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वांग कालमां स्पर्शता, जड चेतननी सत्य; . पण चैतन्य स्वभाव थी, बंध स्पर्श असत्य...३७ नाना पाने माटीनु, अनेक पणुज सत्य; __ माटी पिंड स्वभावथी, पण ते जाणो असत्य...३८ नर-देवादिक स्वांगथी, अनेक पणुज सत्य; स्वांग मुक्त चेतन तणु, अनेक पणु असत्य...३६ भरती-ओटनी दृष्टिए, अथिर पणुछ सत्य; ___ पण समुद्र स्वभाव थी, अथिर पणु ज असत्य...४० स्वांग गहण ने त्याग थी, अथिर पणुछ सत्य; पण चैतन्य स्वभाव थी, अथिर पणु ज असत्य...४१ पीत आदि गुण भेद थी, विशेषत्व छ सत्य; . पण सुवर्ण स्वभाव थी, विशेषत्व असत्य...४२ ज्ञानादिक गुण भेद थी, विशेषत्व छे सत्य पण चैतन्य स्वभाव थी, विशेषत्व असत्य • •४३ अग्नि स्थित जल देखतां, तप्तपणुछ सत्य; __ पण ते नीर स्वभावथी, तप्तपणु ज असत्य...४४ जड निमित्त भान्ति धर्ये, छे सुख-दुःख ज सत्य; पण शुद्ध सम्यग-दर्शने, ते सुख-दुःख असत्य...४५ वर्तमान हालत कही, दाखवे चेतन भूल; । राय छतां भीख मागीने, कां करो कीर्ति धूल ? ४६ स्वभाव घर दाखल थवा, जगवे छे व्यवहार; . . सीडी तजी ऊपर चढ़ो, अ अनो उपकार...४७ १८४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमां निजनी कल्पना, करवी ते संकल्प; ज्ञय भेदथी ज्ञानमां, भेद थवो ते विकल्प..४८ विकल्प संकल्पे भय, ए अशुद्ध वे' वार; निर्विकल्प अभ्यास मां, बाधक हेय असार...४६ अबद्ध - स्पृष्ट- अनन्य ने, अचल-असंग चिदरूप; अविशेष जे दाखवे, ते शुद्ध नय नय- भूप ५० आत्माकार सामान्य ने, ज्ञेयाकार विशेष; ज्ञानभेद धुर सुखद छे, अन्य पमाडे क्लेश... ५१ शाकाकार सामान्य जे, लूण लुब्ध स्वादंत; ज्ञेयाकार सामान्य पण, ज्ञान मूढ न छिबन्त ५२ ज्ञेयाकार सामान्य ते ज्ञान लीन थाय सँत; • पारंगत श्रुत सिन्धुनो, जन्म मरण दुःख अन्त• • ५३ दर्शन - ज्ञाने रमणता, सेव्य सदा मुनिराय; रत्नत्रयीनी एकता, निश्चय चेतन राय · · ·५४ जाणी श्रद्धी सेवतां धनार्थीओ धनवंत; - लेम मुमुक्षु यत्नथी, चेतन सेव लहंत... ५५ तन तन-भाव तन कर्ममां, हुपद वर्ते ज्यांय; .५६ देहाध्यास अज्ञानता, दुःख दावानल त्यांप... तन धन परिजन जाति के, देश नगर वन गेह; पर जड चेतन लक्षथी, वर्षे विकल्प मेह• • ५७ -आ, आ-हुँ, मारू -आ, हुं अनो, आ ठीक; ŵ हृतुं मारू आ, हुं हतो-ओनो, आ ज अठीक...५८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १८५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थशे मारू आ भाविमा हुँ पण एनो थईश; . एम कल्पना मेघ थी, निपजे राग ने रीश...५४ राग द्वेष वशता लहे, मूढ स्वरूप अजाण; निर्विकल्प उपयोग मां, रमे ज्ञानी चिद् भाण. . .६० ज्ञान-अंध मोहित-मति, रही कल्पना युक्त ; बद्ध-अबद्ध पर द्रव्यमां, राखे ममत अयुक्त ६१ चेतनता जड ना लहे, जड़ता चेतन राय ; जड़-चेतननी एकता, नियमा कदी न धाय...६. जड़ने हुँ- मारूं कहे, अरे! मुरख शिरताज ; सर्वाभासे रहित तु; सदानन्द चिद्राज...६३ शिष्य :उपासना साकार नी, असिद्ध ठरे भव पाज; दहे आत्म जुदा गण्ये, समजावो गुरुराज !...६४ गुरु:उदयाश्रित चिद्भावना, तन चेष्टाए जणाय ; चर्या संत स्वरूपनी, साधक साधन थाय...६५ प्रभु मुद्रा जग पुज्य छे, समता शिक्षण हेत ; उदये अणव्यापक रही, साधक शिवपद लेत"६६ प्रभु मुद्रा सहवासथी, प्रभु गुण गण सेवाय , प्रभु सेव्ये निज सेवना, सेवक सेव्य ज थाय"६७ विण गुण लक्षी सेवना, जड-सेवा सही फोक ; ... __ महेल मात्र सेवन थकी, नृप सेवा रण-पोक...६८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन परिणामने प्राप्त जे, द्रव्येद्रिय सम्बन्ध . भेद ज्ञान करवत थकी, वेरी ज्ञानी अबंध..६४ ज्ञान खण्ड खण्ड दाखवे, भावेन्द्रिय विक्षेप; अखण्ड निज चिदशक्तिए, थाय ज्ञानी निर्लेप...७० ग्राह्य-गाहक लक्षणी, इन्द्रिय विषय प्रपंच ; ज्ञय, ज्ञायक सांकर्य माँ, धरे न ममता रंच.७१ मन इन्द्रियथी आत्मा , प्रत्याहारी लक्ष ; प्रभु गुण गण हृदये धरे, साधु जितेन्द्रिय दक्ष...७२ मोहादिकना उदयने, स्वरूपथी भिन्न जाण ; भाव्य-भावक सांकर्यथी, रहे अलेप सुजान"७३ लब्धि सिद्धि मोह दूतिका, उभी अध विच पंथ, छलाय ना तस छल थकी; जितमोही निग्रंथ...७४ शुक्लध्यान हथियारथी, मोह सैन्य करी अंत ; रमे अचिंत्य स्वराज्यमां, क्षीणमोही भगवंत...७५ विभाव मात्र अस्पृश्य छे, तेथी अडे न संत ; - ज्ञान तेज पच्चखाण छे, ज्ञाने स्पर्शन अंत७४ गही पर वस्तु भूल थी, समजे तेह छंडाय, शरीरादि जड भाव सौ; संतथी अम तजाय.७७ राग-द्वेष-मोहादि सौ, नथी माहरां एह ; हुं केवल उपयोगमय, भाव अममता तेह..७८ तन धन परिवारादि सौ, नथी माहरां कोय ; हुं केवल उपयोगमय, द्रव्य अममता सोय".७६ १८७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंज्योति चैतन्यघन, शुद्ध-बुद्ध सुखधाम; ......... सदा अरूपी एक हुं, मुज भिन्नथी शुकाम १८० तूस सहित अक्षत अने; अक्षत तूस रहित ; तेम स्वरूप अमानता; जणो जीव-शिव रीत"८१ विभूम चादर ओढीने, थयो चेतन नटराय ; है जग रंगथल नाटक करे, विभिन्न स्वांग सजाय...८२ करे अज्ञ प्रेक्षकजनो, नट स्वरूप विचार ; 'स्वांग सहित' नटरूपता, एक करे निर्धार...८३ 'स्वांग-मात्र' नटको' कहे, 'स्वांग भाव' ने कोय; . 'शुभाशुभ परिणामता' नट स्वरूप ते होय. . .८४ को' परिणाम-प्रवाहने, नाट्य-क्रिया कहे अन्य ; . 'पुण्य-पाप' नटको, वदे, नट सु ब-दुःव अधन्य"८५ स्वांग जन्य ओ परिणति, नट रूप थाय केम ? - देहादिक सौ परिणति, आत्म स्वरूप न तेम"८६ नाठ्यक्रिया तन्मय करी, द्रव्य लहे नटराय ; मुख्ये ते जड द्रव्य व्यय, अष्ठ कममां थाय...८७ मोह-मदिरा पानथी, छक्यो रहे दिनरात ; भान्तिज चश्मे असतमा, सत्श्रद्धा अपनात...CE जडात्म बुद्ध जडजने, देखे जाणे सदाय ; ... निज स्वरूप दर्शन अने ज्ञान-पटल प्रगटाय.. आत्म वीर्य अपव्यय करे, वीर्य विघ्नः गुटिकाय; भोग लाभना दान थी, निजानंद अंतराय...१० १८८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजानन्द अवरोधथी, तीव्र विकलता पाय ; धरे ममत ते टालवा, स्वांगे विविध उपाय"६१ प्राप्त स्वांग जीरण थए, आयु टिकिट ले धाई ; चारे गति चौदे भुवन, भटके भांड भवाई" विविध जाति कुल उचित जे, ऊंच-नीच केई स्वांग; . विविध नाम मुद्रा सहित, खरीदे नट पी भांग "६३ विविध वर्ण रस गंध ने, स्पर्श शब्द आकार ; . अंगोपांगने इन्द्रियो, स्वांगे विविध प्रकार"१४ अल्पाधिक स्थिति धारका, सूक्ष्म स्यूल केई-केई ; अनेकालय एकालया, समना अमना लेई. . .६५ अवे'वार वे'वारिया, एक रूप बहु रूप ; थिर-अथिरा केई संगहे, स्वांग चेतन नट भूप"६६ जघन्य मध्यम उत्कृष्टा, राग-द्वेष अज्ञान ; * भाव शुभाशुभ खर्चीने, खरीदे नाट्य सामान ६७ तीव्र मोह उन्मत्त थई, नाचे विविध प्रकार ; पृथ्वी अग्नि जल वायु ने वनस्पति तनधार" शंख कोडा ने अलसिया, कीडी ईयल, घीमेल ; . . भृगादिक थई ने करे, इग-विगलनो खेल'." जल थल नभचर स्वांगमां, पशु पक्षी बहु जात ; छल कपट अधिवेकथी, कर्यो खेल विख्यात...१०० छेदन भेदन ताडना, वध बंधन ने दाह, इनाममा त्यां बहु समय, वो दुःख प्रवाह१०१ १८६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम शोक मद लोभने, दुर्गच्छा अरति क्रोध ; मायादिक लदवद थई, थयो नारक नट योध.१०२ नर्कागार नचनक्रिया, मुख थी कहीं न जाय ; नारक स्वांग इनाम थी, नट भणे त्राय-त्राय...१०३ आर्य अनार्य नरादिनां, विविध मानव अवतार; भूत-प्रेत सुर असुरना, देव स्वांग बहुवार १०४ लाख चौरासी योनि कृत, स्वाँग अनंतानंत ; शात-अशाता वेदनी 'अविरति' फल स्वादत...१०५ छल्ले मानव स्वाँगमां, लही 'विरति' नट साज, संयम गुणथानक क्रमे, बन्यो संत नटराज...१०६ यम नियम आसन अने, प्राणायाम प्रयोग ; तन-इन्द्रिय-मन जय करे, साधीने हठयोग".१०७ मन एकाग सुविचार थी, तन चेतन भिन्न जाण ; दुःख कारण तन भाव तज, भाव विदेही प्रमाण १०८ राजयोग आरूढ थई, प्रत्याहारी लक्ष ; __ आत्म-धारणा दृढ करे, स्वसंवेदन दक्ष...१०६ ध्यान सुकान अडोल धर, लीन समाधि स्वरूप; ___लब्धि सिद्धि वृन्द लोभथी, लपसे नहिं चिद्भप...११० क्षपकश्रेणी वंशे चढी, मोह केफ करी अन्त ; अंते पर जड स्वांग तज, आप थयो भगवन्त'१११ नृत्यक्रिया काले कदी, वध्यो घटयो न क्याय 3; हतो रह्यो तेवो ज ते, नबाई शी ए माय ?...११२ १६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय अस्त क्रम मोहनो, हतो इ गुणठाणंत ; मोह - नृत्य, संसारनो, एक साथ ही अन्त• • • ११३ होत आत्म स्वरूप तो, केम थाय तस अन्त ? अविनाशी चेतन सदा, जाणे विरला सन्तः • •११४ जड चेतन सम्बन्ध त्यां, हतो क्षीर-जल जेम ; क्षीर-क्षीर जल - जल सदा, जड़ चेतन पण तेम. . . ११५ प्रगट लक्षणे भिन्न नी, कदि न मिश्रता थाय ; स्वभाव निज-निज नो तज्ये, निज अभाव अंकाय...११६. द्योत अंधारे मिश्रता, सम्भव नहीं त्रिकाल ; जड़ चेततनी मिश्रता, कल्पना ज वाग्जाल ११७ 'नपति जाय' लोको कहे, भूप सैन्य ने देख; भूप सैन्य स्वरूप न भूपनुं, स्वाँग रूप नट तेम ; सैन्यनी एकता, स्वाँगे नट तेम लेख...११८ तनांत तन भावादि को, आत्म स्वरूप न एम... ११६ भेद ज्ञान कर निज कर बड़े, विभूम वस्त्र उतार; थाय मौनता मनतणी, ए ज समज नो सार• • •१२० मनने मौन करावीने, मुखथी करवी बात ; मुख मौनी मनथी बके, एज जीवनी घात... १२१ समजसार नो प्रथम ए, जड़-चेतन अधिकार ; हवे सुणं गुरु वाणीमां, कर्त्ता - कर्म विचार ... १२२ इति जड़-चेतन अधिकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १६१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कर्ता-कर्म अधिकार :- (अव्यवस्थित-अपूर्ण संकलना) व्याप्य व्यापक न्यायथी, कर्ता-कर्म प्रवृत्ति ; अभिन्न सत्तामय सदा, द्रव्य अवस्था वृत्ति...१ जेह सत्व छे ब्यापके, तेज व्याप्यमां जाण ; उभय स्वरूप एकत्वता, अखंड द्रव्य प्रमाण २ सर्व अवस्था व्यापतो, व्यापक द्रव्य के' बाय ; एक अवस्था रूप ते, नामे व्याप्य बदाय...३ व्याप्ये व्यापकतो छतो, व्यापक कर्ता जाण ; ____ व्यापकनु जे कार्य ते व्याप्य ज कर्म प्रमाण ४ कर्म सधे बे कारणे, निमित्त ने उपादान ; उपादान निज रूप ने, सदा निमित्त पर जाण'५ उपादान के पूर्व ने, उत्तरावस्था कर्न ; कर्त्ता नु ज स्वरूप छे, त्रणे अभिन्न ए मर्म...६ . कर्ता कोण ? निमित्त को' ? कोण स्वपरर्नु कर्म ? शुद्ध दृष्टिए ज्यां लगी, जणाय नहिं ए मर्म...७ . न्यां लगी ज पर कर्म नो, कर्ता निजने जाण ; पर चिन्ता तन्मय थई, पामे दुःख अजाण...८ प्राप्य निर्वयं विकार्य ए, कर्त्तानां त्रण काज ; निज द्रव्याश्रित थाय छे, अ अनुभूत अवाज... नबीन कम निर्वयं ने, विकार्य कृत विकार ; .. उभय रहित जे प्राप्त ते, प्राप्य कर्म निर्धार...१० १९२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्य विकार्य निवत्यमय, निज कर्मज- सदाय, . गहे परिणमे उपजे, पण पर कर्म न थाय...११ नूतन अणु पण ना बने, बने न तास विकार; . मूर्त गहण पण थाय ना, चेतनथीं निर्धार..१२ कर्ता परनो पर ज छे, निज स्वभावनो आप; - उभय परस्पर निमित्त पण, परमो न शके व्याप...१३ व्याप्य व्यापकता सदा, तस्वरूपमा होय कर्ता कर्मपणुज पण, तेमज तेमा जोय...१४ निज अवस्थामांज ते, व्यापे द्रव्य सदाय, चेतन-चेतनभावमा, जड भावे जड राय...१५ कर्ता जड परिणामनो, जड ज होय त्रिकाल ; - ज्ञान परिणतिनो, सदा, कर्ता चेतन भाल...१६ घट परिणामना ज्ञाननो, का छे कुम्भार'; घट परिणमने निमित्त छ, घट कर्ता न लगार...१७ जड़ परिणामना ज्ञाननो, कर्ता चेतन होय ___ ड परिणमने निमित्त पण, जड-कर्ता नहीं सोय...१८ व्याप्यच्यापक भाव, छे, घट-माटीमा जेम ; ... घट कुम्भारे ते नहि, जड-चेतन पण तेम...१६ उष्ण जले बाटी पचे, पण जल पाचक नोय; पाचक धर्म छे अग्निनु, शुद्ध दृष्टिए जोय.२० जल अग्नि संयोगथी, लहे उष्णता जेह; उष्ण धर्म ते अग्निनु, जल स्वभाव न तेह...२१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग द्वेष मोहादि ने, चेतनमां देखाय ; . जड निमित्त ज सौ जडज ते, चेतननां केम थाय...२२ चेतनने मोहादिनो, छे संयोग सम्बन्ध ; . __ मोह युक्त जाणण क्रिया, मोह-क्रिया ज स-बन्ध...२३ अज्ञाने मोहादि नी, कर्ता-कर्म प्रवृत्ति ; तास निमित्त जड एकटु, थाय सहज निज वृत्ति २४ जड-चेतन निज निज पणे, मली रहे एक थान ; कहेवाय ते बन्ध जे, थाय निमित्त अज्ञान...२५ मोहादि कर्तृत्वथी, बंध अनादि प्रवाह ; इतरेतराश्रय दोष विण, भूलवे चेतन राहः ..२६ चेतनने निज ज्ञाननो, छे तादात्म्य सम्बन्ध सहज थाय जाणण क्रिया, पान-क्रिया ज अबंध...२७ ज्ञान-मोहादिक भिन्नता, ज्यां लगी य न जणाय ; टले न बंध अज्ञानता, आत्म समाधि न थाय...२८ ज्ञाने मल मोहादि ए, जेम जल मल सेवाल; ज्ञान ढांकी व्याकुल करे, उपजे आत्म जंजाल...२६ जल-सेवाल एक ज नहीं, तेम मोहादि ज्ञान, . ज्ञान-ज्ञान मोह-मोह छे, उभय मिलन अज्ञान...३० जाणे नहीं निजने कदा, ए मोहादि विकार; कर्या बिना ते थाय ना, जड निमित्त ज निर्धार...३१ अछती वस्तु छतां टकी, चिद् सत्तानी सहाय ; . रहायक ने कनडे ह हा ! ए अचरज मुज थाय...३२ १६४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ज दुःखी आपथी, क्या करवी पोकार; दुःख कारण ने पोषतो, आप ज थाय खुवार...३३ निजमाथी निपजावी ने, निज पर करी सवार; भार वहन दुःखथी डरे, ए मूरख सरदार...३४ दुःख कारण जाणे छते, पण विरमे नहीं जेह; जाण्यु ते सौ छे वृथा, कह्यो अज्ञानी एह...३५ जणावीने विरमावतो, दुःख कारणथी जेह ; तेज ज्ञान प्रमाण छे, ज्ञाने दुःखनो छेह...३६ भेदज्ञान छींणी वडे, भेदीने अज्ञान ; ज्ञान-मोह भिन्नता करी, वसे सन्त निज भान...३७ वहाण पकड सिन्धु वमल, वमल शम्ये छंडाय 3; विकल्प वमल शमावीने, मोह पकड दूर थाय. . .३८ चल अनित्य मोहादिए, वाई वेगादिक जेम ; . . अशरण दुःख दुःखफल ज ते, थाय ताहरां केम ? ३६ स्वभावथी विज्ञानघन, तुं चिद-ज्योति अनन्त ; षट् कारकथी पार शुद्ध, अखंड अनुभववन्त...४० दर्शन ज्ञाने पूर्ण ने, अजरामर एक सत्व ; अड निमित्त ज-जड मुक्त तुं, छो पारमार्थिक तत्त्व...४१ मोहादिक अन्तरंग ने, वर्णादिक बहिरंग, नियमा ए जड संगथी, ज्ञानी रहे असंग...४२ [विविध पुदगल कर्म ने, जाणे जाण सदाय ; - ग्रहण परिणमन उपजन, पण तेनु नव थाय...४३ १६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध निज परिणाम ने, जाणे जाण : सदाय, गहण परिणमन उपमन, पण परतुं नव थाय...४४ सुख दुःखादि जड कर्मफल, जाणे जाणः सदाय ; ग्रहण -परिणमन उपजन, पण तेनुं नव थाय"४५ रहे एम जड द्रव्य पण, निज भावे ज सदाय ग्रहण परिणमन उपजन, चेतननु नव थाय...४६ जीवभाव हेतु लही, जड परिणमन ज थाय ; हेतु-लही जड कमेनो, अज्ञ जड़े मोहाय."४७ निमित्त नैमित्तिकपणुं, जीव-भाव-जड-भाव ; उभय परस्पर निमिचथी, कर्ता थाय विभाव."४८ जीव भाव जड ना करे, जड भावो नहीं जीव ; - आप आपणा भावना, कर्त्ता बेऊ सदैव "४६ जाणे करे रमे सदा, चेतन आप स्वभाव ; करे भोगवे ना कदी, नियमा ते जड भाव]-५० ॐ नमः सहजात्म स्वरूपाय (१९४) ज्ञान-मीमांसा मंगल दोहा परमगुरु पद-कज नमूः ॐ सहजात्म स्वरूप ; ... .. परम कृपालु देव प्रभु, सहजानंदघन भूप...१ जिन पथ द्योतक मोहरिपु, मुमुक्षु जन-विश्राम; दुर्भग हारफ-कल्पतरू, प्रणमु आतमराम...२ १६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन-ज्ञान-सामान्य हुँ, स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष; __पंच पूज्य ना पूज्य ने, पूजू तनी पर पक्ष...३ आत्म ज्ञान-दाता प्रभु, सदगुरु युग-प्रधान; घरण कमल बेदी परे, करूं आत्म बलिदान...४ विशुद्ध दर्शन ज्ञानघन, सस आश्रम आसाद्य शिवकर साम्य लहुं अहो ! शरणापन्न थइ सद्य...५ क पीठिका दोहा :प्रवचन अंजन दृष्टिए, संत-बोध-रस-पान; करू मिमांसा व्यक्त ए, प्रातिभ-केवलज्ञान...६ शक्रीचक्री पद ना ममे, फल चारित्र सराग; गमे एक निज आत्म-पद, फल चारित्रअराग . ७ मोह-क्षोभ विहीम जे, आत्मा नो परिणाम; साम्पमाव ते धर्म , चारित्र जसस नाम.... भाष विमा घस्तु ज नहीं, वस्तु वण ना भाव; द्रव्य गुण पर्याय मय, प्रगट वस्तु छे साव...६ जे काले जे भाव थी, पारेणमे चित्त-वृत्ति; ..तेकाले ते मय ज छ, नेम स्फटिक नी रीति...१० शुद्ध शुद्ध अशुभे अशुभ, शुभे शुभ चित-वृत्ति; धर्म पाप ने पुण्यमय, बने आत्म ए रीति...११ जो न शुभाशुभ परिणमन, जीव शुद्ध कूटस्थ; . .. .. तोन घटे सुख दुख आ, बंध मोक्ष सौ व्यर्थ..--१२ . १६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभ चल-भाव छ, शुद्ध अचल चिद्र प; सुख-दुख फल चल-भावना, अचल फल आनंद भूप...१३ फल ओलखववा लक्षणे, सुख ते अन्तर्दाह; दाह मुक्त आनंद ने, दुःख-बाह्यान्तर दाह...१४ शुद्ध भाव-चारित्र थी, चिदानंद घृतपान; शुभ चारित्रे स्वर्ग-सुख, जेम उष्ण-घृत स्नान. १५ अशुभ अनाचारे फले, भीषण चउगति भान्ति; कुनर-तिरि-नारक पणे, लहे त्रि-ताप अशान्ति...१६ अधिकारी :- दोहा :न जड़ मान मतार्थिता, अनुकूलता दासत्व; विषय मूढ स्वच्छंदना, ते आत्मार्थी सत्व...१७ न क्रिया जड़ शुक ज्ञान ना, ना पर-रंजक वृत्ति दृष्टिराग हठवाद ना, ए सत्संगति-रीति...१८ संयम तप अकषायता, सम सुख-दुख चित्त-वृत्ति; शुद्धभाष-अधिकारी ते, सन्मति मुमुक्षु-प्रवृत्ति १६ ग्रन्थ विषय :- दोहा :सन्मति सत्संगे रही, करतां सत्श्रुति-पान; शुद्ध स्वभावे परिणमी, पामे प्रातिभशान...२० बाह्य भाव रेचक करी, रक पूअंतर्भाव; परम भाव कुंभक बले, ध्यावे शुद्ध स्वभाब...२१ बंकनाल षटचक्र ने, भेदी शोधे पिण्ड; दिव्य नयन निरखे अहो, व्यापक सकल ब्रह्मांड...२२ ११८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभि चक्र स्थिर-ज्योत थी, द्विप समुद्रादि अशेष; खंड देश वन नगर गृह, लखाय व्यक्ति विशेष. . .२३ अधोलोक अधश्चक्र क्रम, सुर असुर व्यन्तरादि; सप्त नरक नारक लखे, दुखिया जीव प्रमादि...२४ उध्व, उध्वचक्र क्रमे, उदरे ज्योतिष्चक्र कल्पवासी श्रेणि बबे, प्रति पांसडीए वक्र ...२५ ग्रीवाए अवेयको, अनुदिश अनुत्तरसिद्धः . शिर-गोलक चक्र-क्रमे, दूरदेशी-द्ध...२६ दक्षिण-भूतल कमल मां, पैक्रिय लब्धि प्रकाश; आहारक वामे अहो !, संयमधर ने खास...२७ दक्षिण-स्तन तल कमल मां, तेजस मापक तंत्र; वामे कृष्ण राजी अहो ! कार्मण मापक यंत्र...२८ जेम जेम संवर वधे, त्यम कार्मण-मल नाश; . कमल श्वेतता अनुसरे, एज निशानी खास...२६ माटी शुद्ध कर्या पछी, चश्मा दुर्बिन थाय, . कषाय भाव निवारतां, चित्त शुद्धि प्रगटाय...३० नानी चीजो दाखवे, मोटी दुर्बिन जेम; योग दृष्टि तारतम्यता, चर्म चक्षु सह एम...३१ द्रव्य क्षेत्र काला दिनु, भाख्युं जे परिमाण; योग दृष्टि सापेक्ष ते, चर्म दृष्टि अप्रमाण...३२ अगम अलोक ज आतमा, लोके लोक स्व-मांय ; लोका लोक प्रत्यक्षता, प्रातिभज्ञान पसाय...३३ १६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. गति आगति निज परतणी, भूत भविष्य प्रपंच, आ काले पण-गम्य छ न धरो शंका रंच...३४ लोक पुरुष संस्थान ए, धर्म ध्यान अनुभूति ज्ञेय ज्ञाननी भिन्नता, प्रकट:स्व पर सुप्रतीति...३५ स्व पर प्रतीति बले सहज, वृतिओ आल्माधीनः क्षायिक समकित प्रगटता दर्शनमोह प्रक्षीण...३६ प्रातिभ केवल-बीज छे, अरुणोदय चिद् ज्योत ; "५५ चिद् ज्यात देशे केवलज्ञान-ए, चित्त प्रवाह प्रति श्रोत. .३७ मति-श्रुत-अवधि मनःपर्यव, स्वापेक्षक चि-अंश; ते प्रातिम तारतम्यता, तिमिर अज्ञता वंश...३८ दर्शनमोह-अरिहंत ते, जिनवत्. जिन सुप्रमाण ; प्रातिभज्ञानी ते. कहया, केवल बीज प्रधान...३६ अरुण - प्रकाशे सूर्यवत, जेम बधु देखायः; प्रातिभज्योते ज्ञानी ते, स्व पर प्रत्यक्ष जणाय...४० लखे स्व-स्वरूप सिद्ध सम, देह भिन्न असंग ; शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, सहजानन्द अभंग...४१ अपूर्व परमाह्लादता, अनुपम सम अविच्छिन्न ; विषयातीत अनंत ते, चिदानन्द स्वाधीन ४२ आत्मास्तित्त्व प्रतीतिए.. सर्वोत्कृष्ट निवास प्रगटे केवलज्ञान तो, नवमे समये खास...४३ समय मात्र पण संग-पर, पामे ना उपयोग . तो प्रमटे केवल दशा, अखंड: आत्मारोग्य..४४ २२० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेक समय परमाणु ने, प्रदेश-ज्ञान जो थाय ; प्रगटे केवलज्ञान तो, वीतराग असहाय."४५ इन्द्रिय-संज्ञा-योग नय, परथी आप असंग; उपयोगे उपयोगता, केवलज्ञान अभंग"४६ तद् प आत्मा ध्यावतां, चिन्मय सरहद वास ; चित्त शुद्धि पूरण थतां, घाति-कर्म-मल नास"४७ अन्य अध्यास विमुक्त घन, ज्ञान-स्थिति जे शुद्ध ; आत्मज्ञान जे स्फटिक वत्, केवलज्ञान प्रबुद्ध"४८ योग छते उपयोगर्नु, छेज प्रयोजन खास ; तेथी सयोगी जिन लगी, छेज बुद्धि बल तास"४६ संग प्राप्त अणु-ज्ञान तो, अनुभव गम्य ज जाण; अणु स्वरूप स्यम सर्व नु, बुद्धि बले सुप्रमाण "५. नभ-प्रदेश समीपस्थ तो, अनुभव-गम्य प्रकार शेष अनंस प्रमाणता, बुद्धि-गम्य निर्धार"५१ अनुभवाना समयवत् , काल अनादि अनंत ; __ स्वरूप भूत मविष्य नु, बुद्धि-गम्य ज लखत "५२ स्वात्मा अनुभव-गम्य पण, सर्व परात्म-स्वरूप ; - बुद्धि-गम्य प्रमाण त्यम, धर्म अधर्म प्ररूप"५३ अनुभव सह बौद्धिक बले, जिन-सयोगी-सर्वज्ञ ; सर्व क्षेत्र-यम-भाव थी, सर्व द्रव्य प्रगट-ज्ञ...५४ योगी-केवल द्विविध छे, धुर-समयी चल योग ; __ अंत्य समयी स्थिर योग सह, अघाति पूर्व प्रयोग.५५ २०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगी केवल भेद बे, क्षीयमाण-क्रम-योग ; धुर समयी ने इतर तो नष्ट-योग ज अयोग...५६ योगी अयोगी सिद्ध ए, केवल भेद प्रभेद ; व्यवहारे पण निश्चये, केवलज्ञान अभेद• • ५७ निज स्वभावना ज्ञान मां, तन्मय शुद्ध उपयोग ; निर्विकल्प परिणमनता, केवलज्ञान स्व-भोग...५८ आप आप आपथी, आप वड़े निज काज ; करे भोगवे आपने, आप स्वयंभू साज • ५६ अभंग आनंदोत्पत्तिज, समूल दाह - विनाश; अधिष्ठान ध्रुवता पणे, आप स्वयंभू वास. ६० कोई पर्याये उत्तपत्ति ज, भंग पर्यय कोइ एक; गुण स्वभावे ध्रुवता, प्रति द्रव्ये एक मेक ६१ दाह मुक्त साम्राज्य मां, अनंत वीर्य प्रकाश ; ज्ञानानंदे परिणमे, ज्ञानी स्वरूप विलास ६२ देह - जन्य सुख-दुख नथी, अतीन्द्रिय प्रभु चंग ; श्रीफल गोलावत् रहे, तन- मठ-धर्म असंग ... ६३ ज्ञाने परिणत ज्ञानी ने प्रतिबिंबित स्वलक्ष; सरहद आत्म प्रदेश थी, लोकालोक प्रत्यक्ष ६४ आत्मा ज्ञान प्रमाण छे, ज्ञान ज्ञेयं प्रमाण ; लोकालोक न ज्ञेय छे, अतः संवंगत ज्ञान .. ६५ दूध मां व्यापे नीलिमा, नीलम नाख्ये जेम ; २०२ Jain Educationa International ज्ञान प्रभाए आत्मनी, सर्व व्यापकता तैम..६६ For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान प्रमाण न आत्म जो, हीनाधिक ज्ञानात्म; . . अधिक ज्ञान तो जड़ बने, जाणे ना हीनात्म.६७ ज्ञान रूप ज्ञानी अहो ! ज्ञान विषय जग-सर्व ; . . सर्वगत ज्ञानी अतः, ज्ञानी. मत छ सर्व...६८ ज्ञान नये ज्ञानातमा, अन्ये नये 'अन्यान्य ; ... अनंत गुण पिण्डातमा, ज्ञान तो आत्म अनन्य...६६ जगत जगत स्वरूप छे, आत्मा ज्ञान स्वरूप ; . आत्मा जग नी भिन्नता, जेम नेत्र ने रूप...७० दर्पणगत प्रतिबिंब तो, चे दर्पणमय जेम ; .. ज्ञान-दर्पणे अकता, जगत आत्म नी तेम:..७१ एम कथंचित भिन्नता, अभिन्नता छे जेम ; - भिन्नाभिन्न उभय नये, ज्ञानी जगत ज तेम".७२ जाणे स्व पर सर्वस्व पण, 'ज्ञप्ति तृप्ति अभंग; . . प्रतिबिंबितं पर-ज्ञेय थी, केवलज्ञान असंग.७३ केवल आत्म स्वभाव ना, अखंड ज्ञाने लीन ; .. .... केवलज्ञानी ते कह्या; सहजानन्दघन पीन...७४ जिन पद निज मांहे लखे, आप्त बोध थी जेह; . ..... स्वरूप ज्ञान अनुभूति थी, छे श्रुत-केवली तेह""७५ श्रुत जड़ोपाधि टालता, रहे शेष निज ज्ञप्ति ; ....... प्रातिभ ज्ञान प्रकार ते, सहजानन्दघन तृप्ति..७६ आत्म स्थैर्य तारतम्य पण, आत्म अनुभवे तुल्य ; ... .: . . . . . . . उभय केवलज्ञानी छे, जेम अरुण ने सूर्य...७७ २०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृत्व करणत्व द्वय, अभिन्न शक्ति स्वरूप ; ज्ञायक झान एकत्त्वता, चिन्मय आत्म स्वरूप स्व-पर ज्ञायक ज्ञान थी; ज्ञेय स्व पर के रूप ; आप प्रकाशे आप थी, सूरजवत् चिद् भुप.५६ ज्ञान न जाणे ज्ञेय तो, ज्ञाने सुं ज्ञानत्व ? ज्ञाने ज्ञ यो अलखतो, ज्ञ ये शुं ज्ञ यत्त्व...८० ज्ञेय शक्ति अचिन्त्य मां, अर्पण धर्म स्वभाव ; ज्ञान शक्ति अचिंत्य मां, अद्भुत ग्राहक भाव त्रिकालिक पर्याय सौ, विशिष्ट स्पष्ट जणाय ; चित्रपट शुद्ध ज्ञान मां, वर्ते जगत सदायर चित्रकार ना चित्र मां, भूत भविष्य शमाय ; शुद्ध ज्ञान असमर्थ जो, दिव्य केम के'वाय...८३ दाह्य मात्र ने बालवा, पावक जेम समर्थ ; ज्ञेय मात्र ने जाणवा, आतम-ज्ञान समर्थ...८४ इन्द्रिय सन्निकर्ष ना, भूत भावि पर्याय ; __ तेथी इन्द्रिय ज्ञान तो; असर्वज्ञ सदाय ८५ मन इन्द्रिय उपदेश वश, क्षयोपशम संस्कार ; पराधीन ईहादिके, इन्द्रिय ज्ञान . असार"८६ कालो गोरो स्त्री पुरुष, पशु पक्षी वृद्ध बाल ; स्थूल मूर्त जड़ पर्यये, इन्द्रिय ज्ञान बेहाल ८७ ज्ञेय अर्थ परिणमनता, कर्म-भोग अंध-चाल ; त्रिदोष सन्निपात थी, वलगे कर्म-जंजाल २०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोदय योगिक-क्रिया-मात्रे बंध न थाय; ___इष्टा-निष्ट परिणाम थी, मोहे अज्ञ बंधाय.g वीतराग नी सौ क्रिया, धर्मोपदेश विहार ; अघाति कम वशे सहज, ज्यम स्त्री-मायाचार १० मोह विहीन प्रवृत्ति सौ, बंध निवृत्तिरूप ; चिदानन्द विलसन क्रिया, मात्र क्षायिकी रूप...६१ सर्व आत्म प्रदेश थी, सर्व माण एक साथ ; तेज क्षायिक-ज्ञान वन, ईश्वर त्रिभुवन नाथ...२ जेणे जाण्यो एक ने, तेणे जाण्युं सर्व ; ___'जो न जाण्यों अंक तो, जाण्यं ते सह गई..४३ सर्व श्रेय जो ना लखे, समकाले निज मांहि पूर्ण पणे निज रूप नो, अज्ञ कयो श्रुत मांहि...६४ क्रम थी ज्ञेयालंबतुं, ज्ञान अनित्य असार; क्षायोपशमिक असर्वगत, अक्षायिक निर्धार...६५ माटै ज्ञायिक ज्ञान नु, अहो ! अहो !! माहात्म्य !!! शाप्ति क्रिया पलटे नहीं, सहजानंदी स्वास्थ्य...६६ सर्व ज्ञय जाणे छता, न परिणमे ते रूप ; प्रहे न उपजे ते पणे, अबंध ज्ञानी भूप..१७ मोठ -पद्याङ्क १७ से ३६ तक का हिन्दी रूप पृ० १३८-३६ में "लोकनालिदर्शन" माम से छपा है। - - २०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५) परमात्म- प्रकाश- भावानुवाद सिद्ध बुद्ध परिमुक्त जे, सहज समाधि स्वरूप ; बोधी दृढ़ करवा नमू, पराभक्ति अनुरूप ं ं:१ शिव अमल अज ज्ञानमय, परम समाधि भजंत ; ते बंदु श्री सिद्ध गण, थाशे जेह अनंत २ समाधि महानले, कर्मेन्धन होमंत; ते हुं बंदु सिद्ध गण, करी रह्या भव अंत ३ • परम वली ते बंदु सिद्ध गण, वसी रह्या लोकान्त ; ज्ञाने त्रिभुवन गुरु छतां ते वली बंदु सिद्ध गण, जेनो स्वात्म लोकालोक प्रत्यक्ष निज, आनंदघन पुनर्जन्म न धरत...४ केवल - दर्शन - ज्ञानमय, जिननाथ ; नमुं भक्तिए जेमणे, बोध्या विश्व पदार्थ ...६ लखि परमात्मा स्वात्म मां, परम समाधि धरंत ; निजानंद हेते नमु, सूरि पाठक मुनि संत ७ स्मरी परमेष्ठी भाव थी, गुरु योगीन्द्र मुनीश ; २०६ निवास ; ज्ञान दर्पणे जास५ पूछे. शरणापन्न थइ, भट्ट प्रभाकर शिष्य...८ संसारे वसतां गयो, स्वामी काल अनंत ; मैं सुख ना लघु, क्यमथाय दुख अंत चारे गति दुख तप्तने, शरण्य जे प्रभु होय ; पण ते परमात्म स्वरूप ने, कहो कृपा करी मोय. . .१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only • Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वात्मा ने समझ्यां बिना, समजाय न प्रभु रूप; ... नमी सत्पद सुण ते कहुँ, त्रिविध आत्म स्वरूप ११ बहिरंतर् परमातमा, मूढ़ प्रज्ञ ब्रह्मरूप ; . तजी मूढता प्रज्ञ थइ, भज तु चिद्घन भूप"१२ दृश्य-दृष्टि ना मैथुने, उपजे भाव विमूढ ; - देहज आत्म मानतो, अ बहिरात्मा मूढ "१३ देह भिन्न ब्रह्म ने वरी, ते दृग सम्यग-दृष्टि ; त्यां प्रज्ञ अंतरात्म ने, सहजानंदघन वृष्टि...१४ द्रव्य-भाव नोकर्म पर-द्रव्य मुक्त चिद् रूप ; - आप आपथी तृप्त जे, ते परमात्म स्वरूप...१५ हरिहरादिक ध्यावता, जेने नित थिर लक्ष ; - त्रिभुवन वंदित सिद्धगत, अलख प्रभु ते दक्ष...१६ सच्चिदानंदघन प्रभु, जे शिव शांत स्वभाव ; __ अचल अकृत्रिम अमल ते, भवजल तारण नाव...१७ जे निज भाव न परिहरे, ले पर भाव न जेह ; सर्वज्ञ परमातमा, . ते शिव शांति सुगेह...१८ वर्ण गंध रस स्पर्शना, शब्दादिक नहिं जास ; जन्म मरण जेने नहीं, जाण निरंजन तास...१६ क्रोध लोभ मद मोहना, नहिं माया के मान ; . देह गेह जेने नहिं, तेज निरंजन जाण...२० पुण्य पाप जेने नहि, हर्ष विषादं न कांइ ; .. . सर्व दोष थी मुक्त जे, तेज निरंजन भाई.. २१ २०७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ध्येय के धारणा, मंत्र तंत्र नहिं जास; मंडल मुद्रादिक नहीं, ते प्रभु ध्यावो तास : २२ वेद शास्त्र के इन्द्रिये, जाण्यो जाय न बेह; अनुभव गोचर मात्र छे, भज परमात्मा तेह...२३ सहज ज्ञान दर्शन सहज, सहज सौख्य चित् शक्ति ; कारण प्रभु घट घट वसे, ध्यावो गुरुगम युक्ति..२४ कार्य कारण न्याये सदा, कार्य सिद्धता थाय। कारण-प्रभु ने सेवता, कार्य प्रभु प्रगटाय.२५ सिद्ध बसे लोकान्त मां, तेवो निष्कल देव ; देह देवले प्रगद छे, तजी भेद तु सेक २६ जेना अनुभव मात्र थी, शीघ्र कर्मलय थाय ; . ते प्रभु जो आकाश मां, तो ते केम लखाय १.०२७ इन्द्रिय सुख दुख ज्या नहीं, ज्यां नहिं मननी दोड़ ; ते निज ज्ञायक भाव भज, अन्य झंझट सहु छोड़..२ शुद्ध नये निज मां वसे, अशुद्ध नये तन-लीन तज अशुद्ध भज शुद्ध ने, सहनानंद रस पीन.. २६ जड़ चेतन एक थाय ना, प्रगट लक्षणे भेद ; क्षीर नीरवत भिन्न बे, भज निज आत्म अखेद...३० मन इन्द्रियं आकार वण, जे केवल चिन्मात्र, स्व संवेदन गम्य ते, अक्ष विषय ना छात्र ३१ भव तन भोग विरक्त थइ, खेले चिद्घन खेल ; आत्मनिष्ठ ते संतनी, बेटे भव भूम वेल"३२ २०७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वसे देव तन-मंदिरे, चिदानंदघन मूर्ति वंदो पूजो भावथी, प्रतिक्षण जगवी स्फूर्ति "३३ देह आत्म मिथ स्पर्शता, रविकर-घन-नभ जेम ; - स्पर्श रहित ने स्पर्श शो, जाण आत्म प्रभु तेम...३४ निर्विकल्प समतागृहे, अनुभवाय छे जेह ; ... वीतराग आनंदघन, प्रभु पद. जाणे तेह"३५ दर्पण-बिंबवत् आत्म थी, बद्ध देहादिक कर्म ; . पण जे थाय न कर्मतन, लखे ए प्रभु-पद मर्म...३६ परमार्थे निष्कल प्रभु, त्रिविध कर्म थी भिन्न ; ... तेने मूढ अज्ञान थी, माने देह अभिन्न...३७ नभ-नक्षत्र समूह वत् , ज्ञाने त्रिभुवन जास; ..भिन्नाभिन्न अभिन्नभिन्न, लख परमात्मा तास...३८ सन व्यापक अनुभूति ने, जे ध्यावे योगीश; ....... मोक्ष हेतु एकाग थई, लख सहजानंद ईश.३६ अग्याने जगभूम रचे, ज्ञाने करे संहार ; । कर्ता हर्ता आप छे, अन्य नहीं करतार...४० रचे सृष्टि बहिरात्मवृन्द, अंतरात्म लयकार ; __व्यापक ज्ञान स्वभाव नो, प्रभु पोषण करतार...४१ सृष्टि स्थिति लय ने कहे, ब्रह्मा विष्णु महेश; - छत्रण पद पण व्यक्ति ना, लख वशिष्ट उपदेश...४२ सृष्टि स्थिति लय युत अयुत, आप कथंचित् एह ; ..... लखो द्रव्य-पर्यय-नये, देव बसे जे देह...४३ २०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेना वसवाटे प्रवृत्त, छे तन-इन्द्रिय प्राण ; - आत्म-हंस उडी जतां, ए सहु राख मसाण...४४ तन-घर इन्द्रिय-गोखला, पंच-विषय नो जाण ; ए सौथी पोते अलख, आत्म-प्रभु सप्रमाण...४५ बंध-मोक्ष व्यवहार थी, परमार्थे नहिं आत्म । ___ घन-नभवत् जड़ थी असंग, भाव ! भाव ! परमात्म...४६ ज्ञयाभावे वल्लिवत् , ज्ञान थाय थिर थाप ; बिंबित लोकालोक ते, स्वात्म द्रव्य मां व्याप...४७ सुख दुख कर्म फले कदी, हानी लाभ न आत्म ; सदा जेम नो तेम रहे, ते ध्याओ परमात्म'''४८ सुख दुख कोरी कल्पना, देह मूढ मन-शूल ; . ... रत्नत्रयी लूटे सदा, तज ए भांति-त्रिशूल"४६ सर्व व्यापक प्रभु को कहे, जड़ कोइ देह-प्रमाण ; शून्य कहे कोई तेहनो, गुरु करो ! समाधान...५० छे कथंचित सर्वगत, जड़ पण देह-प्रमाण । शून्य कथंचित् आतमा, स्याद्वाद थी जाण .५१ निर्मल केवलज्ञान तो, सर्व व्यापक जणाय ; .. ज्या ज्या ज्ञान त्यां आतमा, व्यापक प्रभु ए न्याय"५२ इन्द्रिय ज्ञान विनाश थी, देह भान नहिं होय; . शात-अशाता अनुभवे, जड़वत् तेथी सोय."५३ दीप-ज्योत वत् आतमा, छे प्रति देह-प्रमाण ; . चरिम देवत् मुक्त पण, तेथी देह समान"५४ २१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व दोष थी शून्य छ, सिद्धि मुक्त जिन-भूप ; ए न्याये प्रभु शून्य ते, लख सहजात्म-स्वरूप."५५ पर ने उत्पन्न ना करे, पर थी नहिं उपजाय ; - द्रव्ये आत्मा नित्य छ, पर्याये पलटाय"५६ गुण-पर्यय युत द्रव्य ने, विश्व द्रव्य-समुदाय ; क्रम भावि पर्याय ने, गुण सहभावि कहाय."५७ आत्म द्रव्य तेनाज छे, गुण दर्शन ज्ञानादि पर्यय चउ-गति भाव-तन, जनित कर्म रागादि."५८ द्रव्य कर्म ने आत्म नो, छेज अनादि संयोग ; ... मिथ कर्तृत्व न उभय नो, करे न मिथ उपभोग...५६ द्रव्य कर्म ना निमित्त थी, थाय शुभाशुभ भाव ; जड़ -निमितज सौ जड़ छे, सौ रागादि विभाव...६० विभाव निमित्ते कर्म जड़, उपजे आठ प्रकार; २ तेथी ढक्यो मूढातमा, लहे न निज गुण सार...६१ विषय कषाये रक्त ने, चोंटे जड़-अणु-धूल ; आत्म प्रदेशे मूढ ने, ते ज कर्म जड़-मूल...६२ तन-मन-इन्द्रिय सुख दुःखो, चउगति भृमण अमाप ; कर्म जनित मूढात्मने, तन्मय ने संताप...६३ कर्म-फलो जड़ सुख दुःखो, नियमा मुझ थी भिन्न ; ज्ञाता दृष्टा साक्षी हुँ, झानी रहे अखिन्न...६४ ज्ञान-निष्ठता मोक्ष छे, ज्ञेय-निष्ठता बंध; ... ज्ञेय सकल जड़ कर्म कृत, तेमा फसे ज अंध...६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवो एक प्रदेश ना, ज्यां न भन्यो ए अंध; . ज्ञानांजन विण केम लहे, देहे विभू अबंध"६६ स्वयं भमे ना लंगड़ो, अंधात्मा परदेश ; कर्म-विधि जग फेरवे, विविध सजावी वेष...६७ . [अपूर्ण रचना] .. (१९६) समाधि-माला पावापुरी ३-८-५३ । आत्मा आत्मपणे अने, जाणी जड़ जड़ रूप ; ____ ज्ञायक भाव स्थिर थया, वंदु सिद्ध स्वरूप...१ बोल्या वण सत् बोधता, तीर्थराज गत काम ; शिव ब्रह्मा हरि बुद्ध जिन, निज रूपेज प्रणाम...२ अनुमान श्रुत अनुभवे, कहुं स्व आत्म विवेक ; ___ यथाशक्ति समचित्त थी, निज सुख कामी नेक...३ बाह्य अन्तर परमातमा, त्रिविध आत्म प्रति देह ; . बाह्य तजी अन्तर सजी, भज परमात्म विदेह...४ आत्म भांति देहादि मां, बहिरात्मा मति अन्ध ; भांन्ति मुक्त अंतरात्मा, परमात्मा ज अबन्ध...५ शुद्ध-बुद्ध-प्रभु-केवली, ईश्वर-मुक्त-परात्म ; अव्यय-अमल-असंग-जिन, परमेष्ठी परमात्म...६ गिर्वी आत्मा देह मां, ब्हारे चित्त प्रवाह ; चिद् जड़ मिथ+आत्त्वे वसे, ए बहिरात्म गवाह...७ २१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर तिरि नारक देव जे, आप आपणा स्वांग ; .. माने आत्म स्वरूप ते, बहिरात्मा पी भांग.... देह देही न तू अरे !, स्वगम्य देहातीत ; . .. अनन्त चतुष्ठय भूप छो, कर गुरुगम सुप्रतीत...६ मोह मदिरा पी छक्यो, बके भूत छल जेम ; .. १० निज पर तन हूँ-तुं कहे, देहाध्यासी एम...१० मात-पिता-स्त्री-तनय तन, धनगृह आ मारांज ; . अहँ-ममताग्रह-मगर मुख, बूड़े भव जलमांज...११ भांन्ति दृढ़ संस्कारी ने, फरी ज्यां जन्मे एह ; . देह ज आत्मा मानतो, धरे देह मां नेह...१२ एम ज मूढ अनादि थी, देह जेल ठेलाय ; .. निज बोधे निज मां ठरे, जेल मुक्त तो थाय...१३ जड़ महिमा जड़ता वड़े, चेतनता विसराय ; ग्रहे भोगवे जड़ज ने, हा! हा! जगत हणाय...१४ देहे आतम भावना, दुःख मूल संसार ; ..: आत्म भावना आत्ममां, एज समज नो सार...१५ अमृत भवन गवाक्ष थी, पतित विषय विष बुन्द ; ... मूर्छित थइ कदी न लह्यो, आत्म तत्व सुख कंद...१६ तन वचन मन मौन थई, कर तु योग समास ; ... पिंजर गत शुक सीख ले, जो परमात्म प्रकाश...१७ जाणनार देखाय ना, दृश्य शरीर न जाण ; तो मूरख शाने बके, मौने प्रगटे भाण...१८ २१३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु उपदेशे सज्ज थई, अनुभववा सिद्धान्त ; कान जीभ थी मौन था, निर्विकल्प अभान्त...१६ पर ग्रहण निज त्याग ना, केमे करी शकाय ; .. ज्ञाता द्रष्टा साक्षी तु, अनुभववन्त सदाय...२० ठंठा ने नर मानी ने, जेम पथिक उमाय ; । तेम भूमायो तन विषे, ज्यम फुटबोल फुटाय..२१ ढुठं छे खात्री था, पथिक अभयता पाय ; ___ देह-जीव भिन्न परखता, आत्म-भांति लय थाय...२२ आप आप मां आप थी, आपे अनुभव थाय ; सोहं-सोह-तेज हूँ, समजी आप शमाय...२३ भाव-रात फीटी थयो, स्वयं ज्योति सुप्रभात ; . अगम अगोचर अलख हुँ, सहजानंद विख्यात...२४ मने तत्त्व थी देखता, ज्ञानाकार स्वभाव ; ... शत्रु मित्रतादिक टले, सौ रागादि विभाव...२५ मने न देखे अज्ञ जन, शत्रु मित्र केम थाय ? ... मने देखतां सन्त जन, शत्रु मित्र केम थाय ? ...२६ अम बहिरात्मता तजी, सज्ज थई अन्तरात्म ; .. सौ संकल्पो मूकी ने, भाव ! भाव ! परमात्म.. २७ दासोऽहं सोऽहं अहं, परा-भक्ति क्रम पाय ; .: ढ़ संस्कारी भावना, आत्म ठरणता थाय...२८ मूढ करे विश्वास ज्यां, खरं भयास्पद तेज ; ..... डरे अहो ! निज आत्म थी, खरु अभयपद एज...२६ २१४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयेन्द्रिय थी आत्म मां, प्रत्याहारी लक्ष ; दर्शन ज्ञाने रमणता, आत्म प्रभुज प्रत्यक्ष...३० जे परमात्मा तेज हुँ, जे हुं ते प्रभु रूप ; ...... घ्याता ध्यान ने ध्येय हुं, एक अभिन्न स्वरूप...३१ विषय बने थी शोधी ने, सौंप्यो निज ने आप ; निज मां निज रूपे भल्ये, सहजानन्द अमाप...३२ देह भिन्न निज आत्म ने, जाण्या पण ना मुक्ति ; _ तप जप किरिया खपथकी, अष्ट कर्म मल भुक्ति-३३ देह भिन्न आत्मा दिठे, दुष्कर तप तन शोष ; '.. परिसह उपसर्गों भले, सहजानन्द रस पोष...३४ जग महिमा रंजित मने, आत्मतत्व न जणाय 3; - संत चरण मन दृढ़ कथे, वीतराग प्रभु थाय...३५ राग द्वेष मोजां रहित, अविक्षिप्त मन-आत्म ; मल विक्षेष-अज्ञान तजी, भजो निरंजन स्वात्म...३६ आत्म भांति संस्कार थी, मन जड-जगमा धाय ; - ज्ञाने संस्कारी अचल, मन निज आत्म शमाय...३७ अज्ञ मान अपमान थी, हर्ष शोक वश जाय; . आत्मारामी सन्त जन, टस थी मस नव थाय...३८ मोहे त्यागी तपसी ने, राग-रीस जो थाय; ... स्थितिप्रज्ञता भावतां, तत्क्षण खवीश विलाय...३६ देहे व्हालप जो जगे, तो त्यां थी मन मोड़ ; ... बोधमूर्ति गुरु चरण मां, तन व्हालप सिर फोड़...४० २१५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म भांतिए जनित दुख, आत्मज्ञान थी नाश; '. .. दान शील तप ज्ञान वण, नहिं दे मोक्ष निवास...४१ देहाध्यासी इच्छता, दिव्य देह सुख भोग ; .... सहजानंदी सन्त जन, इच्छे भोग वियोग... ४२ जड़ गुण द्रव्य पर्याय मां, मोही जन बन्धाय ; ....... आत्म द्रव्य गुण पर्यये, ठरतां बन्धन जाय...४३ नात-जात-लिंग-वेद-तन, माने मूढ हुँ एज ; . .. अनादि सिद्ध अवाच्य , आत्मा बुध मानेज...४४ सम्यग् दृग पाम्ये छते, वमन करे को भांन्त ; .. पूर्व भांन्ति संस्कार थी, साक्षरा-राक्षस वांत...४५ जड़ज अचेतन दृश्य आ, अदृश्य चेतन आप ; .. शेष तोष को पर करूं, रहूँ साक्षीए व्याप...४६ ग्रहण-त्याग जड़ नो करे, व्हार रमे मति अन्ध ; . न ग्रहे त्यागे भोगवे, जड़ ने संत अबन्ध...४७ तन वच थी मन छोड़वी, जोड़ो ज्ञायक भाव ; ... जड़ पेठं मन जड़ बने, चेतन-चेतन भाव...४८ जग विश्वास्य सुरम्य आ, ज्ञय-निष्ठ आभास; भवे रति-विश्वास क्या ?, ज्ञान-निष्ठता जास...४६ आत्मज्ञान वण कार्य को, मन मां अधिक म धार; आत्मार्थे वच-काय थी, वत्तों उदयाधार...५० इन्द्रिय द्वारे देखतां, देखनार खोवाय ; ...स्वयं ज्योति आनन्दघन, अन्तर मांज जणाय...५१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्हारे सुख दुख अन्तरे, अकड़ियो विललाय । व्हारे सुख दुख अन्तरे, अभ्यासी नर पाय...५२ कहो सुणो इच्छो रमो, तन्मय आतमज्ञान; .. बीजुं सौ भूल्ये मल्ये, सहजानन्द निशान ५३ तन-मन-वच - गूहचूड थी, उजवे धर्म धतींग ; लड़े युद्ध आत्मा हणे, जीत्ये तागड़ धींग ...५४ विष + यः पी जीववा मथे, अज्ञ चक्रधर मुंड ; शात चाट वाधित मरे, भरी बीठ थी तुंड...५५ कुगति-रात भावे सुइ, जाग्ये मदिरा पान ; हुँ मारु बकतो फरे, जड़ ने आत्म अजाण• • ५६ निज-पर-तन- जड़ हुं अजड़, एज निरन्तर लक्ष ; अबाध्य अनुभव रूप छु, ठरे स्वात्म माँ दक्ष • ५७ अनुभव पथ उपदेशतां, प्रहे न जड़ मत धार ; मन मौने जड़-भरत थॐ, ट्यूशन वृत्ति विडार...५८ जे इच्छू प्रतिबोधवा, ते वेतन्य अकथ्य ; ग्राह्य न वचन विलास थी, माटे मौन ज पथ्य ५६ हृदय नयण भींची बहिर, राचे चर्म चमार ; 1 Ac अन्तर हग प्रभु मां ठरे, जड़ कौतुकता मार ... ६० शोषण पोषण देह नु, जाणे धर्म-अधर्म ; सुख दुख बोधन देह ने, मूढ लहे न मर्म ६१ मन-वच-तन तन्मय दशा, आश्रव बन्ध संसार ; रत्नत्रयी तन्मय दशा, संवर मोक्ष प्रकार ••• ६२ २१७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प . जाडे झीणे वस्त्र थी, स्थूल सूक्ष्म ना देह ; .. . पतलो जाडो देह पण, आत्म स्वरूप न तेह...६३ नूतन जीरण वस्त्र थी, देह न नूतन जीर्ण ; जीर्ण नवो ए देह पण, आत्म स्वरूप अशीर्ण...६४ स्वांग ग्रहण के त्याग थी, जन्म मरण नट नोय ; .. ग्रहण त्याग तन आत्म थी, जन्म मरण क्यम होय ?.६५ काकीड़े सिर • रक्तता, ते तेनुं न स्वरूप ; . राग द्वेष अज्ञान पण, तेम न आत्मा रूप...६६ ने आ सक्रिय जग लखे, अक्रिय काष्ट समान ; . ज्ञान समाधिज ते लहे, देहधारी भगवान.. धरी देह कंचुक थयो, चिन्मूर्ति भोगीश ; ..... विषय झेर वहतो भमे, दीर्घकाल सह रीश.." अणु राशी चय उपचये, देह युवा वृद्ध थाय ; आत्म अवस्था मूढ गणी, हर्ष शोक वश जाय...६६ कृश अकृश देह डाबड़े, चेतन रत्न सम्भाल ; आत्म-भावना भाव तु, चिद्घन मूर्ति त्रिकाल...७० आत्म-भावना दृढ़ करे, नियमा तेनी मुक्ति ; अदृढ़ धारणा थी लहे, शात-अशाता भुक्ति ..७१ लोक-संग वाणी वहे, भमे चित्त चल-काक ; ... भरत मृग संग बोध थी, योगी असंग अवाक...७२ गुफावास-घरवास ने, सम विषम गणे मूढ ; .. निश्चल ज्ञायक भाव मां, वसे दृष्टात्मा गृढ...७३ २१८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ तन-आतम मावना, छे परभव तन बीज आत्म भावना आन्म मां, एज मुक्ति फल-मीज...७४ आप पमाड़े आपने, मुक्ति अने संसार ; निश्चय आप सद्-असद्गुरु, अन्य निमित्ताचार...७५ दृढ देहाध्यासी सदा, माने आत्म विनाश ; .. तेने तन-परिजन तणा, मृत्यु थी बहु त्राश...७६ मृत्यु मित्र थी ना डरे, अबद्ध-स्पृष्ट तन वास; . जीर्ण वस्त्रा चत् तन तजे, ज्ञानी अभय निवास...७७ आत्म कार्य मा जागतो, छूटे जग व्यवहार; आत्म कार्य मां ऊंघतो, फसे अशरण संसार...७८ मांय जुओ तो आतमा, बारे तन-मग-जेल; . माय ठरी अच्युत बने, बा'रे ठेलमठेल...७g आत्मज्ञ प्रारम्भ मां, जग उन्मत्त जणाय ; .. दढतर अभ्यासे पछी, जग पाषाण लखाय...८० सुणी सुणाव्यो वोध बहु, देह भिन्न छ आत्म; पण भाव्यो ना आतमा, क्यम प्रगटे परमात्म ?...८१ देह भिन्न दृढतर सदा, आत्म भावना भाव; . स्वप्ने पण भुलाय ना, भेद-ज्ञान पथ धाव..८२ पुण्य-पाप-व्रत-अव्रते, उभय नाश थी मोक्ष ; व्रत पण अव्रत परे तजी, अप्रमत्त गुण पोष...८३ तजी मुमुक्षु अव्रत गण, धरे व्रतोत्तर मूल ; आत्म दशा ए व्रत तजी चढे श्रेणी अनुकूल...८४ २१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर जल्प विकल्प नी, जालज छे दुख खाण ; .... मन मौने ल्यो शिष्ट मिष्ट, आत्म समाधि प्रमाण...८५ अव्रती व्रत मां रमे, व्रती ज्ञान ने ध्यान ; ... यथाख्यात चारित्र मां, वीतराग भगवान..८६ बाह्य-लिंग थी मोक्ष जो!, तो नटर्नु पण थाय । ..... भाव-लिंग थी मोक्ष छे, तज. वेषाग्रह लाय...८७ जाति-वेद-वय देहना, देहागह ज संसार ; .... देहागह थी केम लहे, देहातीत स्व सार ८८ देव-शास्त्र-गुरु-आग्रही, छोड़े जो ना राग; असंग आत्म अभ्यास वण, केम थाय वीतराग ...CE हमणा केवल मोक्ष ना, बके हीन पुरुषार्थ ; त्यागी थई ढीला पड़े, चूके के परमार्थ...६० पंगु अंध खंधे चढ्यो, दुरे जोतां एक ; ... पण छे बे जण तेम कर, आत्म शरीर विवेक • ६१ पंगु समज अंध चालवत् , ज्ञान क्रियाए मोक्ष ...स्वानुभूति आदर करो, तजो शुष्क जड़ दोष. १२ अज्ञ ऊंघोन्मादवत्, सर्व अवस्था भान्त; ऊंघोन्मादे भान्ति ना, आत्मदर्शी जन शान्त...६३ सर्व शास्त्र कण्ठे छतां, जाग्रत मूढ बन्धाय ; ... ..... उन्मत्त थई सूता छतां, ज्ञानी बन्ध नशाय ६४ बुद्धि ज्या ज्या हित जुओ, त्या त्यां ते तल्लीन ; - रूचि अनुयायी वीर्य पण, ज्यां श्रद्धा त्यां पीन...६५ २२० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागे अहित ज्यां बुद्धि ने, भड़की भागे व्हार ; कुमति सुमति अनुसार छे, सत्य असत्याचार••• ६६ प्रभुरूपे गुरु : भक्ति थी, शिष्य प्रभु पद पाय; ज्योति स्पर्शे बाट तो, दीवे दीवो थाय• • • ६७ अथवा आत्मज़ आत्म ने, सेवी प्रभु पद पाय; डाले डाल घसाई ने प्रगटे वृक्षे लाय ... ह भक्ति ज्ञान सन्मार्ग थी, झटपट शिवपुर चाल ; श्रद्धा के स्व विचार थी, छूटे जन्म जञ्जाल...६६ भूतज शुद्ध जो आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय ; मन अशुद्धता टालतो, शुद्ध स्वरूप पमाय..१०० स्वप्न दृष्ट तन नाश थी, थाय न आत्म विनाश ; तो जागूत तन विणसतां, आत्मा नो क्यम नाश...१०१ सुखमां भावित ज्ञान तो, दुखमां चलित जणाय ; दुष्कर तप बल केलबी, बुध सुख दुख पर थाय. . .१०२. भाव कर्म थी द्रव्य कर्म, तेथी देह प्रवृत्ति ; भाव अकर्मे आत्म थी, देह - कर्म, विनिवृत्ति... १०३ लखी जड़ क्रिया आत्म मां, मूढ सुख दुख भोग; लखी भिन्न निज पर क्रिया, अक्रिय बुध गतरोग.... १०४ आत्म बुद्धि पर थी टली, गई पर्यय भष वेल i 5-2 आप आप घर मां रमे, सहजानंद सहेल... १०५ अज्ञ - आत्मज्ञ केवली, त्रिविध आत्मस्तव अत्र ; समाधितंत्राशय लही, भाव्यं भाव स्वतंत्र १०६ -२२१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजज्ञान सहजे ठरयु, सहजानन्द स्वतन्त्र ; - दर्शन ज्ञाने रमण ए, सहज समाधि-तन्त्र...१०७ परम कृपालु देव श्री, पूज्यपाद गुरुराज; . . . ज्ञायक भावे सेवतां, सहजानंद जहाज...१०८ पूज्यपाद अर्चन करू, अष्टोत्तर शत फूल ; : यथा जात मुद्रा नमू, सहजानन्द प्रफुल्ल...१०६ (१९७) नियमसार-रहस्य (पद्य) प्रारंभ ११-६-५५ . दोहा मंगल :ॐ सहजात्म-स्वरूप प्रभु, नमुपरम-गुरुराज ; शुद्ध चैतन्य स्वामिने, सहजानन्द जहाज...१ पीठिका:सहज-समाधि सजाववा, हणवा भव-दुःख द्वंद ... नियमसार रहस्ये रमु, कथित प्रभु कुंदकुंद...२ नियमसार संसार मा, नियम छ वस्तु स्वभाव ; . चेतनसे चैतन्यमय, जड़ने 'जड़ता भाव...३ पुद्गल धर्म अधर्म नभ, काल द्रव्य जड़-पंच , - नियम-मर्यादा ना तजे, नियमित विश्व-प्रपंच...४ २३२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत् प्रवर्तक नियम छे, नियमित ऊगे भाण ; ....अग्नि-उष्ण जल शीतता, दिन रजनी क्रम जाण...५ नियम मर्याद अलंध्य छे, जलधि न मूके कार; ... लंघे चेतन एक तूं, अरे! धिक्कार !! धिक्कार !!! ...६ नियमसार रहस्ये रम्ये, शीघ्र टले भव-व्याधि ; नियम-मर्यादा थी सधे, सहजानन्द समाधि...७ पर्याये उत्पाद-व्यय, ते पर यम नो पाश ; निसरे जेथी पर्यय हग, हेतु-नियम स्वप्रकाश.... टले चर्म-हग अंधता, उघड़े अंतर्दृष्टि ; . निज प्रभुता निजमा लखे, नियमसार जिन दृष्टि...६ निर्गत-यम-फाँसी सदा, सम्यग-दर्शन-झान ; चारित्र ए त्रण रत्न ते, कार्य-नियम सुविधान...१० रत्नत्रयी अंकूशथी, नियमित मन-गज-वृत्ति संवेगे शिव-मग चले, सारे नियम निर्वृत्ति...११ कारण-प्रभु स्व-स्वरूपमा, जोई जाणी रममाण ; .. नियमसार शिव-मार्ग छे, तस फल छ निर्वाण...१२ मोक्षोपाय ए नियमनु, कारण छे सम्यक्त्व ; ते आप्तागम ने श्रद्धय , परख्ये जिन पर तत्व...१३ शंका-मुक्त ते आप्त छ, शंका-सौ मोह-सैन्य ; . ....... दर्शन-मोह विमुक्त जिन, क्षायिक-दृष्टि जघन्य...१४ घनघातिक-अरिहन्त जिन, सर्वोत्कृष्ट विश्वास्य ; .:...: विकल-सकल-ब्रती मध्य-जिन, आप्ते त्रिविध रहस्य...१५ २२३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव-वाणी आप्तनी, आगम-गुरुगम-बोध शरणापन्न पणे सुण्ये, श्रद्धय तत्व-विशोध...१६ चैतन-जड़ द्वय श्रेणिो , बोध्यु तस्वनु मर्म , गुण-पर्यय-युत लक्षणे, लखे मुमुक्षु स्व-धर्म...१७ चेतन-विज्ञान :कारण प्रभु निज आतमा, कार्य-प्रभु परमात्म; स्वयं ज्योति चिद्धातुमय, छे चेतन जीवात्म...१८ चित्-प्रकाश-चपरास जे, ते उपयोग लखाव ; स्वापेक्ष ते स्वभाव ने, परापेक्ष विभाव...१६ वीतराग स्वभाव शुद्ध, विभाव अशुद्ध कषाय 3; मंद-कषायी शुभ अने, अशुभ तीब्र-कषाय...२० चित्-प्रकाश फेलाईने, टके स्व रुचि अनुसार, ते श्रद्धा बे रूप छ, सम्यक् मिथ्याकार...२१ आत्मा भणी टकी रहे, सम्यक् श्रद्धा एह; चिद-जड़-मिथज देहे टके, मिथ्या श्रद्धा तेह...२२ मिथ+य+आत्व-मिथ्यात्व छे, अड़-चेतन मैथुन , तजन्य देहादिके, चित्-प्रकाश लहे धूम -- २३ मोह-गांठ रूढ गूढ धन, छवट-वाट-गुलाट ; . मूल भूल ए अनादिनी, पामे न सुखनी छांट...२४ दर्शन ज्ञान चारित्र ने, वीर्यादिक गुण-गंग 3 सम्यक-मिथ्या पणु लहे, श्रद्धा-सिन्धु प्रसंग...२५ २२४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु सामान्याकार मय, चित्प्रकाश-आभास ; .. ते दर्शन अने ज्ञान तो, वस्तु-निर्णायक खास...२६ रुचित वस्तु विशेषमा, दृग-ज्ञाने रममाण ; चित्प्रकाश चारित्र ते, कहे मर्मना जाण. . .२७ कारण-स्वभाष-दृष्टि छे, आतम श्रद्धा मात्र ; . स्वात्म-दर्शने लीन ते, सम्यग दर्शन अत्र...२८ आत्म-साक्षात्कार ए, आत्म-प्रतीति एह ; वलावो मुक्ति-मार्गनो, ग्रन्थि-भेद सह जेह...२६ द्रष्टामां दृष्टि तणी, घनता सधे अखंड ; केवल द्रष्टारूपता, कार्य-दृष्टि निर्द्वन्द...३० . आत्मा भूली जोवु ते, मिथ्या-दर्शन-मोह ; चक्षु अचक्षु विभंग त्रय, विभाव-दर्शन द्रोह.. ३१ छे सहजात्म-स्वरूप ते, कारण-स्वभाव-ज्ञान ; प्रातिभ=केवल बीज छे, तद्-विपरीत अज्ञान...३२ सम्यक मिथ्या भेद बे, विभाव-ज्ञानोपयोग ; मति-श्रुत-अवधि उभयवश, मनःपर्यव धुर-योग..३३ अवधि-मनःपर्यव विकल, केवल सकल-प्रत्यक्ष ; प्रातिभ स्वरूप-प्रत्यक्ष छे, मति-श्रुत बेय परोक्ष...३४ . सहज-ज्ञान आराध्य छ, जस फल केवलज्ञान ; श्रुत-आलंबन दृढ़ करी, अन्ये न दीजे ध्यान...३५ सुमति मार्गानुसारिता, कुमति उन्मार्ग-खाण ; संत-बोध ए सुश्रुति छ, कुश्रु ति अंधनी वाण -- ३६ २२५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पथ हद लंघे नहीं, अतींद्रिय अवधिज्ञान ; छोड़े ना उन्मार्ग हद', विभंग अवधि-अज्ञान...३७ मार्ग स्थितना मनःपर्यय, पामे पर्यवसान ; समाधिस्थ मन जेहथी, ते मनापर्यवज्ञान...३८ मागें संचरतांय पण, मार्ग-बाह्य देखाय ; पथ-परमावधि ए अतः, लोकालोक जणाय...३६ उपयोगे उपयोगनी, घनता सधी अखंड ; कार्य-स्वभाष ए निर्विकल्प, केवलज्ञान अमंद...४० केवलज्ञान-प्रतीति ए, परिणमन=सम्यक्त्व ; ___ सर्व गुणांशानुभूति ए, एज तत्व सत्त्व...४१ आठ-कर्म-आधारथी, टक्यो विषम संसार ; मोहनीय वश.सात छे, मोहे क्षोभ अपार...४२ माटे दर्शन-मोह छे, अनंत दुःखनु मूल; सम्यक्त्व छे, तस औषधि, करे मोह उन्मूल...४३ तेथी ए प्राप्तव्य छे, ए वण साधन व्यर्थ ; ___तप जप संजम साधना, ए सह ते परमार्थ...४४ निरंतर स्व-प्रतीति ते, क्षायिक-सम्यक्त्व शांति ; वटक क्षायोपशमिक ने, उपशम वृत्ति-उपशांति...४५ दृग-ज्ञाने स्वरूपस्थता, ते सम्यक् चारित्र; उलटुं चारित्र-मोह छे, ते ज क्षोभ अविरत्त...४६ मिथ्यात्व अविरति अज्ञता, विभाव-गुण उन्मार्ग; __ सम्यग-ज्ञान-दृग-चरणते, स्वभाव-गुण सन्मार्ग...४७ १ ज्ञायक सत्ता न लखे - २२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतन-पर्यय द्विविध छे, स्वभाव अने विभाव ; कार्य कारण बे भेदथी, छे निरूपाधि-स्वभाव...४८ कारण-शुद्ध-पर्याय ते, अंतरात्म-वृाते-गेह; छे परम पारिणामिकी, भावे परिणति जेह • ४६ सिद्धात्म-सघन-प्रदेशता, अथवा अर्थ-पर्याय ; क्षायक भावनी परिणतिज, कार्य-शुद्ध-पर्याय...५० सर्व-व्यापक निज ज्ञानमां, षड् गुण हानि-वृद्धि ; ____ अगुरु-लघु गुण-पर्यये, विरमे संत-सुबुद्धि...५१ कारण-गुण पर्यय रमे, ते कहिये अंतरात्म; कारण प्रभु पण तेज छे, अन्य अशुद्ध बहिरात्म...५२ ते देहाकारे रमे, शात-अशात कुटाय ; नर-तिरि-सुर-नारक-तने, विभाव-व्यंजन-पर्याय...५३ मोह क्षोभ सुख दुःखनो, कर्ता-भोक्ता मूढ़ वीतराग सुसमाधि नो, सहजानन्द अमूढ़...५४ देह देवले देव ए, शाश्वत शुद्ध खचीत ; दर्शन ज्ञाने रमणथी, सहजानन्द प्रतीत...५५ जड़-विज्ञान : २ पुद्गल धर्म अधर्म नभ, काल अचेतन द्रव्य ; निज निज गुण-पर्याय युत, पांचे जड़ ज्ञातव्य...५६ पूरण-गलन स्वभाव थी, पुद्गल नाम कहाय ; बने पुरणे स्कंध ने, गलने अणु रही जाय...५७ स्वभाष-पुद्गल 'अणु' कह्यो, विभाग छे 'स्कंध' रूप ; अणु-चउ स्कंध-छ भेद थी, पुद्गल मूर्त स्वरूप...५८ २२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू-जल-पवन-अनल तणुं, कारण ते कारणाणु ; स्कंध-मुक्त अविभागी ते, कह्यो कार्य परमाणु...५६ एक गुण स्निग्ध के रुक्ष ते, जघन्य बंध-अयोग्य ; ... तूर्य-भेद उत्कृष्ट-अणु, सम विषम बंध योग्य...६० छेद्य स्वतः संधाय ना, घन-वस्तु काष्ठादि ; १ अति-स्थूल-स्थूल भासता, स्कंध-भेद ए आदि...६१ स्थूल-स्कंध जलादि ते, छेद्य स्वतः संधाय ; स्थूल-सूक्ष्म छायादि ते, छे अछेद्य अग्राह्य.. ६२ सूक्ष्म-स्थूल-स्कंधो कह्या, शब्द-स्पर्श-रस-गंध ; - सूक्ष्म कर्म-वर्गण इतर, सूक्ष्म-सूक्ष्म ते स्कंध...६३ अवगाहन कद-सूक्ष्मता, जे आयंत ते मध्य ; - तेथी इन्द्रिय-गाह्यना, अविभागी 'अण' लभ्य...६४ वर्ण-गंध-रस एकेका, स्पर्श अविरुद्ध बे ज; अणु-स्वभाव-गुण इतर-गुण, गाह्य इन्द्रि-पांचे ज...६५ पर-निरपेक्षक-परिणति ज, अणु-स्वभाव-पर्याय ; स्वजातीय स्कंध बंधने, अण-विभाध-पर्याय...६६ परमार्थे परमाणु ने, पुद्गल-द्रव्य वदाय ; स्कंधो ने उपचार थी, पुद्गल रहस्य सदाय ६७ गति-स्थिति-कलो मार्ग ज्यम, एंजिन ने सापेक्ष ; धर्म अधर्म नभ द्रव्य त्यम, जीव-पुद्गल सापेक्ष...६८ स्वभाव-गति-स्थिति-स्थान-हेतु, अयोगी सिद्ध अणुने ज; विभाघ-गति-स्थिति-स्थान-हेतु, शेष जीव स्कंधने ज...६६ २२८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेम घटोत्पत्ति निमितता, चक्र भूमण सापेक्ष ; : पांचे द्रव्य-नवाजुनी काल-द्रव्य सापेक्ष...७० अणु लंघे अणु मंदगति, काल ते समय विशेष ; .. असंख्य समय निमेष मां, काष्ठा आठ-निमेष...७१ सोले काष्ठानी कला, साठ-घड़ी दिन रात ; - घड़ी बत्रीस कलातणी, मासे त्रीस दिनान्त...७२ बे छ बारे मासनां, ऋतु अयन ने वर्ष ; भूत भाषि ने वर्ततुं, काल भेद निष्कर्ष...७३ 'अनंत गुणा जीव-अणु थकी, 'समयो' वे'पार-काल ; नभ-लोके कालाणु ते, छे परमारथ काल...७४ ए चारे द्रव्यो तणा, गुणो-पर्यायो शुद्ध ; काल रहित पंच-द्रव्यने, अस्तिकाय कहे बुद्ध"७५ अस्ति वस्तु-होवापणु, देह जेम ते काय ; बहु प्रदेश काया बने, एक प्रदेश अकाय...७६ प्रति द्रव्ये अभिन्नांश ते, प्रदेश 'अणु' प्रमाण ; संख्य असंख्य अनंतता, स्कंध-प्रदेशो जाण . .७७ परमाणु-कालाणुनँ, प्रमाण एक-प्रदेश धर्म अधर्म नभ लोक ने, जीव असंख्य प्रदेश...७८ ए छ द्रव्य-समुदाय ते, विश्व वसे नभ लोक ; ....छे अनंत प्रदेशमय, ते आकाश अलोक...98 जाति-विजातिय बंधथी, जीव-पुदगलो अशुद्ध ; . बाकी चारे शुद्ध छे, चेत्ये चेतन शुद्ध...८० २२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचे अमूर्त स्वरूप छे, मूर्त ज पुद्गल यंत्र ; क्षीर- नीरवत् एकठा, सौ शास्वत ज स्वतंत्र ८१ आप आपने शोधिने, लखी स्वतंत्रता आप ; बाकी सो भुल्वे सधे, सहजानंद अमाप ८२ ३ शुद्ध-भाव कर्मोपाधिज गुण- पर्यय, रहित 'प्रभु' उपादेय ; स्वात्म भिन्न जीवादि सौ, बाह्य तत्व हे हेय• • ८३ 'कारण प्रभु' शुद्ध भावमय, त्यां न शुभाशुभ भाव ; कर्म शुभाशुभ कर्मफल, शात अशात अभाव...८४ राग द्वेष अज्ञान ना, नहीं मान-अपमान ; विभाव रूप स्वभावके, हर्ष शोक नां स्थान...८५ द्रव्य कर्म स्थिति बंधना, अष्ट विध प्रकृति बंध ; - तेथी प्रदेश - अबंध ८६ कर्म निर्जरा कर्म रजनुं प्रवेश ना, कालनी, फलद शक्ति= रसबंध ; द्रव्य-भाव कर्मोदयी, स्थानो तु न सम्बन्ध क्षायिक - क्षायोपशमिक ने, औदयिक उपशम भाव ; आवरणो सापेक्ष ए, चारे स्थान- अभाव जाति रोग जरा मरण, कुल योनिनां भेद; जीव स्थान चउ-गति-भ्रमण, मार्गण-स्थान न खेद निर्दोषी निर्भय अमम, अमम, निःशरीर निर्दण्ड ; नीरागी निमूढ़ छे, निरालंब निर्द्वा द्व...६० निःक्रोधी निर्मान-मंद, निःशल्य निष्कामी निर्मन्थ छे, निराकार ; ज्ञान- चेतनाधार ६१ २३० Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only 62... ... CC Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिंग- गहण अव्यक्त ए, अरस अगंध अरूप ; असंहनन अबद्ध-स्पृष्ट, अबद्ध-स्पृष्ट, सहजानंदघन भूप..२ अज अविनाशी अतींद्रिय, अमल सिद्ध- सम-एह ; घट-घट परगट बसी रह्यो, सहज समाधि सुगेह ..६३ देह- धर्म - आरोप- सौ, व्यवहारे ए मांहि ; शोध्या जड़े न कांइ ६४ शुद्ध भावने परखतां, शुद्ध भावने स्पर्शतां, दर्शन - मोह - विनाश ; चित्त- चंचलता भोग- रुचि, साधन श्रम नो नाश... ६५ देहात्मबुद्धि टली खुले, क्षायिक दृष्टि सुज्ञान, विमोह बिभुम संशयो व्यतीत तत्व-विज्ञान६६ विज्ञाने इच्छा शमे, गमे आत्म-स्थिरता ज ; बाह्यांतर व्रत-तप सधे, शुद्ध भाव फलतां ज६७ शुद्ध भाव रहस्ये रमो, तजी शुभाशुभ भाव ; शे'नी राह जुओ हवे, सहजानन्दघन दाव६८ शुद्ध चारित्र कारण- प्रभु 'रखवाल' जे, स्व-पर-प्राण पीड़े द्रव्य स्वतन्त्र प्रतीति सह, ४ अप्रमत्त शुद्धभाव ; नहीं, अहिंसा भव-जल-नाव• • ६६ भाषण हित-मित-पथ्य ; - राग-द्वेष- मोहने तजी, आत्म-भान सह सत्य १०० कामण वगणा, चोरे नहिं पर द्रव्य ; यावत् सर्व विकल्प सन्यास ए, अचौर्य व्रत कर्तव्य १०१ कर्मोदय मां ना भले, ना पर परिणति = रंग, अखंड ब्रह्म-समाधि ज्यां ब्रह्मव्रत ना स्त्री - संग...१०२ Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only २३१ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण प्रभु भिन्न जे रही, परिग्रह-गाह-चूड़ ; मूर्छा नहीं जग एंठमां, अपरिग्रह व्रत मूल...१०३ कारण प्रभु दरबार प्रति, गमन ईर्यापथ शोध ; संयम हेतु प्रवर्त्तना, इर्या-समिति प्रबोध ...१०४ भेद विज्ञान स्याद्वाद सह, अनुभव-भाषण जेह; सावद्य-वचनो त्यागी ने, भाषा-समिति एह. . .१०५ कारण-प्रभु गवेषी ने, अणाहार-पद लीन; ___ सहजानन्द-रस पी छके, अषणा-समिति पीन...१०६ बहिरात्मा-निक्षेपी ने, अंतरात्म-आदान ; परमात्मानी ध्यावना, तूर्य-समिति प्रधान...१०७ आत्म भांति अविरति तथा, प्रमाद कषाय योग ; क्षपक-श्रेणिए परठवे, पंचमी समिति अयोग १०८ कारणप्रभु पदपकंजे, मन-मधुकर तल्लीन; निर्विकल्प अनुभव-रसे, ए मनगुप्ति अदीन...१०८ मन-मौनी थातां रहे, वचन-वर्गणा स्तब्ध ; ग्रहण-निसर्ग न तेहनो, वचन-गुप्ति उपलब्ध...११० चेतनमय निज कायमां, वास्तु करे अडोल ; विदेहिता अवधूतता, काय-गुप्ति अणमोल"१११ महाव्रत-गुप्ति-समिति वड़े, स्वरूप साधक जेह ; निरालम्ब निग्रंथ ए, समाधिष्ठ मुनि तेह...११२ जेना अनुभव-बोधथी, प्रगटे आतमज्ञान ; श्रुत-केवली निर्गथ ते, उपाध्याय भगवान...११३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेना चारित्र दर्शने, टले शिथिल - आचार; युगप्रधान आचार्य प्रभु, मुमुक्षु गण रखवाल ११४ कार्य - अनन्त चतुष्क-प्रभु, घन-घातिक अरिहंत ; • .. भव-तारक जगपूज्य जिन, धर्मचक्री जयवंत ११५ शुद्ध पूर्ण चैतन्यघन, अलख अडोल स्वरूप ; योगीगम्य अकृत्रिम पद, कार्य प्रभु सिद्ध भूप ११६ उपादान निज. आत्मने, कारणता दातव्य ; कारणे कार्य प्रसिद्धि अतः, कारण प्रभु छे सेव्य ... ११७ उपादान सत्पात्रता, निमित्त कारण सत्संग ; उभय कारण- प्रभु सेवतां, सहजानंद अभंग...११८ कार्य प्रभु पद व्यक्तता, शुद्ध चारित्र प्रसाद ; सहजानंद समाज ने, चारित्र रहस्ये स्वाद ११६ सहजानंद समाज नो, निश्चय मुख्य वे'वार ; जड़ खटपट झटपट तजी, चित्त शुद्धि करनार १२० शुद्ध प्रतिक्रमण कर्ता कारयिता न तन, नर - तिरि-नारक- देव ; ५ 金 अनुमंता नहिं देह हुं, छु परब्रह्म सुदेव १२१ मार्गण गुण जीवस्थाननो, कर्त्ता कारयिता न ; - अनुमंता ना छू अकल, विष्णु ज्ञान निधान. १२२ बाल तरुण वृद्ध हुँ नहीं, ना कर्त्ता अनुमंत; कारयिता ना छु' कर्त्ता कारयिता न हूं, Jain Educationa International • अलख, बुद्ध शुद्ध गुणवंत १२३ राग द्वेष के मोह ; For Personal and Private Use Only अनुमंता तद्रूप ना, वीतराग - जिन - ओह ! १२४ .. ... २३३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध लोभ मद कपट ना, कर्ता कारयिता न ; अनुमंता ना झुंज हुँ, सहजानन्द शिव खाण."१२५ भेदाभ्यासी मुमुक्षुओ, सहज थाय मध्यस्थ ; . प्रतिक्रमण-परमार्थथी, रहे सदा स्वरूपस्थ "१२६ बाह्यांतर जल्पो तजी, रागादिक मल धोइ ; कारण प्रभु ने ध्यावा, प्रतिक्रमण कर ओइ.१२७ आत्म-लक्ष खंडित थर्बु, विराधना-जड़-एज ; ए अपराध ज ना करे, प्रतिक्रमण मय तेज १२८ दर्शन-ज्ञाने रमण वण, छे बधु अनाचार ; प्रतिक्रमण मय तेज जे, रहे स्वरूपाकार.. १२६ वीतराग-जिनमार्ग वण, शेष सकल उन्मार्ग; प्रतिक्रमण मय ते चले, रत्नत्रयी सन्मार्ग...१३० निदान माया भांति त्रय, कांटेथी जे मुक्त ; अनुभव-पथ चाली शके, प्रतिक्रमण संयुक्त ..१३१ मन वच काय विकार तजी, त्रिगुप्ति-गुप्त सुसंत ; मन-वच-तन मौनी मुनि ज, छे प्रतिक्रमणवंत "१३२ धर्मध्यानथी शुक्लमां, समजी जेह शमाय ; आर्त्त-रौद्रता छोडीने, प्रतिक्रमण मय थाय"१३३ देह भावनाथी गयो, व्यर्थ अनादि काल ; आत्म भाषना भावरे, जीव ! करे का वार ?...१३४ जेम हजारो पुट लही, सहस्र-पुटी बलवान ; आत्म भावना पुट दिधे, आत्मा सिद्ध समान"१३५ २३४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या भावो छोडीने, सम्यक् भावे लीन ; प्रतिक्रमण मय तेज जे, सहजानन्द-रस-पीन.१३६ सधे मुक्ति जस ध्यान थी, आत्मा उत्तम पदार्थ ; माटे आतम ध्यान छे, प्रतिक्रमण' उत्तमार्थ. १३७ पंच पूज्यमां पूज्य नुं, ध्यान जो शिव-गेह ; माटे सकल- अतिचार नुं, प्रतिक्रमण पण एह १३८ प्रतिक्रमण सूत्रे कहयुं, ते भावे जे भाव; प्रतिक्रमण रहस्ये रमे, सहजानन्द स्वभाव १३६ शुद्ध प्रत्याख्यान :६ मन-वच - जल्पो त्यागीने, कारण प्रभु नुं ध्यान ; त्याग अवस्था ज्ञानमां, निश्चय प्रत्याख्यान १४० केवल दर्शन - ज्ञानघन, केवल - सौख्य- निधान केवल वेतन वीर्यमय, सोहं ज्ञानी - ध्यान. १४१ जोड़े ना परभावने, तजे स्वभाव न आप ; जाणे जुए जे सर्व ने, सोहं ज्ञानी जाप... १४२ प्रकृति-स्थिति- प्रदेश - रस, बंध रहित जे जीव ; सोहं सोहं ध्यावतो, स्थिरता त्यां ज सदैव १४३ सम-घर रहुँ, मुझ आलम्बन हुं ज ; देहादि अहं मम बधुं, सौ बोसरावु छु ज... १४४ - मुझ निर्मम मुझ दृष्टिमां हुं ज हूं, ज्ञान चारित्रे हुं ज; १ संलेखना Jain Educationa International ... संबर - योगे हुं खरे, प्रत्याख्याने हूँ ज... १४५ For Personal and Private Use Only २३५ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म मृत्यु दुःख मां बधे, अरे ! एकलो हूँ ज; भान्तिथी जन्म्यो मुओ', पण अहो ! अमर छु ज १४६ शास्वत दर्शन - ज्ञानमय, एक मुझ आतमराम ; अन्य संयोगी भाव सौ, तेनु मने न काम• • • १४७ त्रिविध-त्रिविधे वोसिरे, दुश्चेष्टा करी जेह ; त्रिविधे सामायिक करू, निर्विकल्प गुण-गेह... १४८ वैर नथी मने कोइ थी, सौथी समता पीन; सौ आशा वोसरावी ने थाउं समाधि लीन १४६ शांत : दांत विक्रान्त भव-भीरू सत्पुरुषार्थी ; अधिकारी पच्चक्खाण नो, सहज समाधि अर्थी... १५० प्रत्याख्यान - रहस्यमां, वृत्तिओ जेनी लग्न ; भेदाभ्यासे रत सदा, सहजानन्दघनमग्न १५१ शुद्ध आलोचना : त्रिविध कर्म व्यतिरिक्त जे, निष्कर्म चेतन ध्यान ; t कहिए शुद्ध आलोचना, जेम खड्ग ने म्यान. १५२ आलोचना अविकृतिकरण, आलु छन भावशुद्धि ; २३६ चभेदे आलोचना, करतां चित्त विशुद्धि. १५३ जे समरस मन मन्दिरे, देखे आतम - देव ; आलोचन सार्थक्य ते, कहे देवाधिदेव १५४ समता भाव अंगूळणे, लुंछन आश्रव - स्वेद ; चिद्धातु- घनमूर्तिनु, आलु छन निर्वेद• • • १५५ १ मर्यो २ रहुं ३ अंगलुंछणे Jain Educationa International .. For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकूल प्रतिकूल हो! प्राप्त परिस्थिति माय ; रुष तुष के गभराट' ना, अविकृति करण ज त्यांय... १५६ निमित्त वसे जे जे उठे, सारा-नरसा-भाव ; भिन्न जाणी समरस रहे, भाव-शुदिध नो दाव १५७ देहभाव आलोचीने, आतम भाव विशुद्ध ; कार्य प्रभुता प्रगट कर, सहजानन्दघन बुद्धः . १५८ शद्ध प्रायश्चित ८ करी भूल फरी ना करे, चीलो बदली चाल ; . पड्या पछी झट उठीने, प्रायश्चित शम-ढाल...१५६ कषाई ने संहारवा, एकाग थई अज' चित्त ; सबल घसारो जे करे, ते निश्चय-प्रायश्चित्त...१६० गुस्सा पर गुस्सो करे, दीनपणानु मान ; माया नो साक्षी रहे, लोभ आत्मनु ध्यान...१६१ उत्कृष्ट निज अनुभूतिमा, अफर जम्युजे चित्त ; . बीजु कई न सांभरे, ते निश्चय प्रायश्चित्त...१६२ निरीह ऋषिराजो तणी, जे जे चेष्टा थाय ; . ते बधुज प्रायश्चित छ, अधिक शु कहेवाय ? . . .१६३ कर्म-गंन दारू तणो, एक भड़ाके नाश ; ब्रह्माग्नि कण एकथी, प्रायश्चित ए खास.. १६४ ज्ञान आरसी मां अहो ! आखु जगत् शमाय ; तेमज आतम-ध्यानमां, साधन सर्व शमायः . .१६५ १ उन्माद २ कषायभाव ३ आत्मा २३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वागजाल सौ छोडिने, हुं मारू दई मार ; आप आप-रूपे रमे, प्रायश्चित नो सार...१६६ कायानी माया तजी, समरस चिद्घन मूर्ति ; देहाध्यास विमुक्तता, कायोत्सर्ग सुयुक्ति . १६७ मूल-भूल थोड़ी छता, व्याज तणो नहिं पार ; ____ माटे मूल-प्रायश्चित्त थी, सहजानंद अपार...१६८ सहज-समाधि दृश्य अदृश्य करी अने, अदृश्य ने दृश्य रूप ; ध्यावे अलख स्वभूपने, सहज-समाधि-स्वरूप. . .१६६ भावि-चिन्ता भूत-स्मृति, वर्तमान आशक्ति ; टाली मन-मौनी थता, सहज-समाधि-व्यक्ति...१७० घरे रहो तो नर्शवत्, नटवत् रहो बजार ; साम्य-भाव जो ना डगे, सहज-समाधि अपार...१७१ सावद्य-विरत त्रिगुप्त ने, इन्द्रिय समूह निरुद्ध ; स्थायी सामायिक तेह ने, सहज-समाधि विशुद्ध...१७२ वर्तन जेवू निज मणी, तेवू पर-प्रति होय ; स्थायी सामायिक तेह छ, समाधि कारण सोय.. १७३ दैन्य के अभिमाननी, आग तणो न प्रवेश ; स्थायी सामायिक तेहछे, सहज-समाधि विशेष...१७४ दुःखिया मां सुख वांटी' ने, सुख-दुःख थी रहे दूर ; स्थायी सामायिक तेहने, समाधि छे भरपुर.१७५ १ दानदेकर २३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंचन-लोह-बेड़ी समा, वर्जे पुण्य ने पाप; __ स्थायी सामायिक तेहने, रहे समाधि व्याप...१७६ हास्य शोक रति अरति भय, घृणा काम नहिं लेश; स्थायी सामायिक तेह छे, सहज समाधि प्रवेश."१७७ तप जप संयम नियम ब्रत, जो समता सह होय , __ स्थायी सामायिक तेह छे, समाधि कारण सोय...१७८ आर्स-रौद्र स्पर्शे नहीं, धर्मे शुक्ल प्रवेश स्थायी सामायिक तेहने, सहज समाधि अशेष...१७४ मौन व्रत उपवास के, गुफावास तन-कलेश; शास्त्रज्ञान पण शुकरे, जस मन साम्य न लेश"१८० माटे साम्य-गृहे रही, रही, करो सकल व्यवहार ; प्राप्त-उदय साक्षी पणे, सहजानन्द जुहार"१८१ शुद्ध-भक्ति , १० (गुरु चंदना) परम पंचम' भाव थी, अडग मन सावधान ; अभेद रत्नत्रये जुड़े, कार्य-भक्ति-निर्वाण...१८२ भक्ति-मुक्त-सत्पुरुषनी, प्रशस्त राग प्रधान ; ___ अकपट शरणापन्न थई, कारण-भक्ति प्रमाण १८३ रागादिक परिहार मां, जोड़j राखे चित्त; सर्व विकल्प अभाव सह, योग-भक्ति समचित्त...१८४ जोड्थु राखे आत्म ने, आप्त बोधमा जेह; चोक्खो थई स्वच्छंद दही'; योग-साधना तेह.."१८५ १ पारिणामिक २ जनाकर २३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेनुं तेने सोंपीने, रहे जेमनो तेम ; भक्ति अनन्ये तेलहे; आत्मसिद्धि सुख क्षेम...१८६ पूर्वे जे मोक्षे गया, वर्तमानमा जाय ; जशे भविमां ते बधा, भक्ति तणे सुपसाय...१८७ मुक्त' थया-वण भक्तना, भक्ति वण ना मुक्ति ; मुक्त थई भक्ति करो, सहजानन्द सुयुक्ति. १८८ परमावश्यक- ११ चित्त-वृति उरने अवश, रहे सदा स्वाधीन ; ___ .स्वाधीनता कर्तव्य ते, छे आवश्यक पीन...१८६ तृषावत् आवश्यकता, जे वण ना जीवाय ; ___ इच्छा मात्र सिद्धिना, मुमुक्षु तृषालु सदाय..:१६० अशरीरी थावा तणो वृति-जय छे उपाय ; . अंग-उपांग नो सार ए, वदे आप्त गुरुराय १६१ बाह्य त्याग हो के नहो, पण वृत्ति-जय होय ; परम आवश्यकमय ज छे, भाव निर्मथ सोय . १६२ वृत्ति शुभ के अशुभ वश, ते परवश हेरान ; भोगी हो के योगी पण, आवश्यक अप्रमाण. . .१६३ द्रव्यो गुणो पर्यायनी, चिन्ता चिन्तित चित्त ; चिंता चिताग्नि मां वले परवश छेज खचीत...१६४ यथाजात' मुद्रा छतां छतां, परवश चारित्र-भूष्ट ; _ बाह्यातंर जल्पे भमे स्वरूप स्थिरता नष्ट...१६५ १ संयोगी भाव से असंग होना २ दिगंबर - २४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवश अंतरातमा, परवश ते बहिरात्म 3 ___ आत्म-सिद्ध परमातमा, त्रिविध अवस्था आत्म: १६६ वृति-परवश ते हीजडो, स्ववश वृति सतिरूप ; परम पुरुष-पति भक्तिए, प्रसवे आत्म स्वरूप.. १६७ आत्म-ज्ञान अधिकारी ना, हिजडो अरे! अभाग ; परमारथ-युद्ध मोरचो, जोई करे नाश भाग...१४८ होय जो श्रमण-लेबासमां, करे संघ विखवाद ; आवश्यक कंठाग्र पण, तजे न शुकरी स्वाद.१६६ कूकर जेम भौं भौं करे, सुणी सुनाई बात ; पण ते जीरवी ना शके, करे आत्मनी घात...२०० जो नपुंशकता छोड़िने, जगवी सत्पुरुषार्थ ; वृत्ति-जये विजयी थया, आवश्यक परमार्थ...२०१ वृति-दोरडु हाथ मां, ज्यां दोरे त्यां जाय , ज्यां बांधे त्यां स्थिर रहे, जेम गरीबड़ी गाय.."२०२ मान-सरोवर. हंसलो, करे न विष्टाहार; तेम मुमुक्षु-वृतियो, भमे न जग-अॅठवार -२०३ रहे स्वरूपाकार नित, साम्य शुक्ल निज धाम ; यथाख्यात-चारित्रमय, वीतराग विश्राम..२०४ कर प्रतिक्रमण ध्यानमय, स्वरूपाकारे भव्य ! ; - शक्ति-हीन जो होय तु, तो श्रद्धा कर्तव्य.. २०५ प्रतिक्रमण आलोचना, नियमादिक पच्चखाण ; .. वचनोच्चारण जे क्रिया, ते स्वाध्याय प्रमाण २०६ २४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक रहस्ये रम्ये, सधे मौनता भाष ; स्वरूप गुप्त असंग ले, ज्ञान-निधिनो ल्हाव...२०७ अपूर्ण-घट छलकाय पण, पूर्ण रहे थिर थाप ; न पड़े वाद विवाद मां, रहे स्वरूपे व्याप...२०८ आवश्यक क्रम एहथी, आप्त-जनो थया सिद्ध ; अप्रमत्त थई ने लह्या, सहजानन्दघन मृद्ध...२०६ शद्ध उपयोग:- १२ जाणे जुले निज आतमा, परमार्थे सर्वज्ञ ; व्यवहारे थी सर्वने, एम कहे मर्मज्ञ...२१० वर्ते ताप-प्रकाश जेम, सूर्य मां एक साथ ; . . वर्ते दर्शन-ज्ञान तेम, सर्वज्ञ एक साथ...२११ स्व-पर-प्रकाशक आतमा, पर प्रकाशक ज्ञान ; .. दर्शन स्व-प्रकाशक ज छे, ए अकान्त अज्ञान...२१२ पर-प्रकाशक ज्ञान जो, ठरे ज दर्शन-भिन्न ; निराधार थई जड़ बने, माटे बन्ने अभिन्न...२१३ पर-प्रकाशक आत्म जो, ठरे ज दर्शन भिन्न ; . विना दृष्टि कोने जुओ, माटे बन्ने अभिन्न...२१४ ज्ञान-जीव पर-द्योतका, तेथी दृष्टि वे'वार ; परमार्थे स्व-प्रकाशका, तेथी दृष्टि पण धार"२१५ जाणे जुए प्रभु स्वात्मने, लोकालोके न लक्ष्य ; ए दृष्टि ज परमार्थनी, जेथी स्वरूप प्रत्यक्ष "२१६ आणे लोकालोकने, सर्वज्ञ नहीं आत्म ; ए दृष्टि व्यवहार नी, कथी ज्ञान माहात्म्य...२१७ २४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व पर सौ जे देखतो, तेने ज्ञान प्रत्यक्ष ; देखे न सम्यक् सर्वने, तेने ज्ञान परोक्ष...२१८ जीव स्वरूप ज ज्ञान छे, तेथी स्व स्वनो जाण ; भिन्न ठरे ए जीव थी, जो स्व स्वनो अजाण...२१६ ज्ञान तेज चे जीव ने, जीव ते ज छे ज्ञान ; तेथी स्व-पर-प्रकाशका, आत्मा दर्शन ज्ञान. २२० परमावधिए जाणिने, लोकालोक स्वरूप सर्वावधिए निर्विकल्प, सर्वज्ञ लीन स्वरूप. . .२२१ जाणेलं शु जाणवू ! ज्ञप्ति तृप्ति अभंग , आप आप मां परिणमे, केवल ज्ञान असंग"२२२ जाणे जुओ वधु छतां, ईच्छा ना सर्वज्ञ ; तेथी सदा अबंध छ; एम वदे मर्मज्ञ. २२३ भाव मन-परिणाम सह, साभिलाष मुख-वाणि ; - ते बंधन कारण कही, इतर अबंध प्रमाणि..२२४ गमनादिक चेष्टा वधी, वर्ते उदय प्रयोग ; इच्छा रहित अबंध प्रभु, नहिं भाव-मनोयोग "२२५ आयु-क्षये सौ कर्म-क्षय, शुद्ध बुद्ध प्रभु सिद्ध; धर्मान्ते लोकांतमां, रहे अकृतिम-पद-मृद्ध २२६ कर्म जन्म जरा मरण, बाधा पीड़ न ज्याई ; निद्रा मोह क्षुधा तृषा, आर्त रौद्र भय काई.."२२७ देह इन्द्रिय उपसर्ग ना, विस्मय चिंता भुक्ति; . धर्म-शुक्ल-ध्यानो नहिं, आप्त कहे ए मुक्ति ..२२८ पुनरागमन न ज्यांथकी, अव्याबाध समाधि ; चिद्घन मूर्ति अस्तित्व छ, वर्जित सकल उपाधि. . .२२६ २४३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध तेज निर्वाण छे, निर्वाण ज छे सिद्ध ; केवल दर्शन-ज्ञान घन, वीर्य-सौख्य समृद्ध ..२३० शुद्ध-उपयोग पसायथी, कारण कार्य स्वरूप ; ___आप-आप-रूपे थया, शुद्धात्मा सिद्ध-भूप...२३१ प्रशस्ति :- १३ कर्णाटे गिरि-गह्वरे, आतम साधन काज; गुप्त-मौन-असंगता, सिद्ध करवानी दाश • २३२ निज प्रमादने टालवा, कर्यु आ सुप्रयत्न ; सुज्ञो भूल सुधारजो, करी ने अनुभव यत्न.२३३ ज्ञानी-आशय विरूद्ध जे, कांइ लखायु होय; निः शल्य भावे तेहर्नु, मिथ्या-दुष्कृत मोय. . .२३४ ईर्षावश कोई अज्ञ दे, अनुभव पथ ने आल ; तेनी चिन्ता शु करे, तु तारु सम्भाल . २३५ आप्त-बोध प्रमाणिने, पूर्वापर अविरूद्ध ; निज पुष्टि अर्थे रच्यु, नियम-रहस्य विशुद्ध"२३६ नियमसार-रहस्ये थई, आत्म-वृत्ति नी पुष्टि ; ___ सहज समाधि प्रदायिका, सहजानन्दघन वृष्टि "२३७ परम कृपालु देव अहो ! आप्त परम गुरुराज ; चरणे करूं समर्पणा, निज सम्पति महाराज "२३८ ॐ शान्ति ! ॐ शान्ति !! ( समाप्ति ता० २५-६-५५ रविवार) २४४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१९८) दर्शन पूजा स्तवन [चाल-ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे] चलो सखि श्रद्धा ! प्रभु मंदिरे रे, दर्शन-पूजन-काज ; प्रभु दर्शनथी आत्म दर्शन सधे रे, पूजत पूज्य-स्वराज- चलो० १ असंख्य प्रदेशी शुद्ध मन-मंदिरे रे, प्रभु सहजात्म स्वरूप ; सर्वागे व्यापक नित्य ध्याइये रे, अनंत चतुष्ठय भूप.. चलो०२ पांच मिथ्यात्व-वमन ते अभिगमा रे, दश+त्रिक(३०)मोहनिय-स्थान अनंतानुबंधी-चउ-साथीओकरे, तजी करो बहुमान;.. चलो०३ लणी दृष्टि-मोह-त्रिक ढगली००० करो रे, चोक्खे चित्त धरो-ध्यान; प्रगटे अनुभव-ज्ञान केवल-कला रे, साध्य-बिन्दु० सिद्ध - स्थान...चलो०४ योग-त्रयी प्रभु चरण चडावीओ रे, अंग-पूजा अभिराम ; समिति-गुप्ति थी प्रवृत्ति निवृत्तिए रे, अग्र-पूजा गत काम. चलो०५ कषाय थी उपयोग न जोडिए रे, भाव पूना ए खास ; प्रतिपत्ति-पूजा वीतरागता रे, सहजानंद विलास...चलो० ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९९) दिव्य सन्देश-चेतन शुद्धि [राग-ऋषभ जिणंद सुं प्रीतड़ी] चेतन शुद्धि केम करूं ? कहो परम कृपालु देव ! दयाल !! स्वच्छंदे साधन बहु कर्या, पण तेथी वाधी उलटी जंजाल"चे. १ दिव्य ध्वनिए प्रभु एम कहे, सांभल रे मुमुक्षु ! शुद्धि-प्रकार ; चित्त अशुद्धि जड़ निमित्त थी, देहादिक कर्म तणो व्यभिचार"चे०२ आत्म बुद्धे जड़ संग थयां, तथा जड़ता अबोधता चित्त मझार ; पर जड़ अहं ममता थकी, आपो आप भूली भरो संसार...०३ कर्म-संयोग-पर्याय नी, मूको जड़-ममता-अहंता असार ; उदये राखो चित्त सम रसी, नट-नर्स परे रहो घर के व्हार""दिव्य४ वृत्ति उद्गम स्थले स्थिर करो, जिम रेडिओ पिन रेकार्ड नो संग; चेतन शुद्धि अभ्यास ए, सहजानंदघन कथरोटी-गंग"दिव्य०५ पृ० १३६ में :शुभभाव फल छे देव संपद, अशुभ नारक आपदा; बेड़ी कनक ने लोहनी, स्वाधीनता ना त्यां कदा ! माटे शुभाशुभ उभय छोड़ी शुद्ध भावे स्थिर रहो; देहादि दुख अभाव सहजानंदघन ते पद लहो !! पृ० १३७ में धून: जब पावे मन गज विश्राम, आपही सेवक आपही स्वाम ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educational rematonal For Personal and Private Use Only