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(१३०) शब्द ज्ञानी
पद नं० ७६ का हिन्दी-रूप अनुभव क्या जाने व्याकरणी ॥ अनुभव० । कस्तूरी निज नाभि में पर, लाभ न पावै हिरनी ॥१!! इत्तर से भरपूर भरी पर, गंध न जाने बरनी ॥२॥ कितना ही घत-पान करै पर, खाली खम घी-छननी ॥३॥ लाखों मन अन्न मुख खावै पर, शक्ति न पावै गिरनी ।।४।। पीठे चंदन पर शीतलता, पावै नहीं खर-घरनी ॥५॥ मणि माणिक रत्नों उर में पर, शोभ न पावै धरनी ॥६॥ भाव धर्म स्पर्शन बिन निफल, तप जप संयम करनी ॥७॥ शब्द शास्त्र सह भाव-धर्मता, सहजानन्द निसरनी ।।८।। (१३१) विरह की सार्थकता
हरिगीत-छंद चर-अचर मिल हैं देह धारी जीव तीन प्रकार के। आनन्दघन भी दुखी भी ढोंगी यही संसार के ।। आनन्दघन जो आत्म में परमात्म अनुभव से छके । हैं तृप्त अपने आप से वे सन्त आत्मा पा चुके ॥१॥ जिज्ञासु, योगी, भक्त तीन प्रकार के दुखिया सही। परमार्थ की जिनके हृदय में विरह-आगि सुलग रही ।। तत्त्वावबोध-स्व-योग प्रभु के लिये ही अकुला रहें। वे इन्द्र-राज-विभूति-पद कीर्त्यादि को न कभी चहें ॥२॥
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