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ढोंगी स्वआत्मा भूल करके मोह मद चकचूर हैं। उन्हें नहीं है नित्य-जीवन की गरज विषयी रहें । अनवरत भोगों के उपासक सज रहें भव-रोग को । रौरव नरक की भी नहीं परवाह वे चहें भोग को ॥३॥ सुख-दुखाभासी ढोंगियों के भेद दो हैं भव-वने । सुखमास भोगों में चिपक कर भमत हैं विष-मद-सने || हैं जले अन्तर्दाह से सुख की झलक दिखला रहे । वे अन्य प्राणी कुचलने में आप गौरव ढो रहे || ४ || दुखभास भोगों के लिये ही छटपटाते हैं सदा । वे दुखी - सा रहते सदा उन्हें न दुख असली कदा || मुखभासियों की करें इर्षा लहें चैन नहीं कभी । सत्साधना के अनधिकारी मूढ हैं ढोंगी सभी ॥५॥ जीवन वही आनन्द गंगा जहां लहराती रहे । या हृदयानंदावरण को अनवरत विरहानल पर ढोंग अपनाना यही है टिकट विभूम रेल की । दर दर भटक शिर पटकना यही शेर है बद फेल की ।। ६ ।।
दहे ||
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अतः विरह साधक-जीवन का है आवश्यक साधन महा । जिसकी कृपा से मिलें साधक साध्य में अपने अहा ! जिज्ञासु तत्व अभेदता प्रभु भक्त योगी योग में | क्रमशः त्रिभेद अभेद हो
रहें छके सहजानन्द में || ७ ||
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