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(१३२) आत्म-स्वरूप
दोहा
मुझ निर्मम सम घर हूं, मुझ आलंबन हुंज । देहादि अहं मम बधु, सो वोसरावं छज ॥१॥ मुझ दृष्टि मां हूँ ज हूँ, ज्ञान चारित्र हूँ ज । संवर योगे हूं खरे, प्रत्याख्याने हूं ज ॥२॥ जन्म मृत्यु दुख मां वधे, अरे एकलो हूँ ज। भान्ति थी जन्म्यो मुओ, पण अहो अमर छू ज ॥३॥ शास्वत दर्शन ज्ञानमय, एक मुझ आतम राम । अन्य संयोगी भाव सौ, तेनुं मने न काम ॥४॥ त्रिविधे त्रिविधे वोसिरे, दुश्चेष्टा करी जेह । त्रिविधे सामायिक करू, निर्विकल्प गुण गेह ॥५॥ वैर नथी मने कोई थी, सौथी समता पीन। सौ आशा वोसरावी ने, न्यारू समाधि लीन ॥६॥ दृश्य अदृश्य करी अने, अदृश्य ने दृश्य रूप। ध्यावं अलख स्वभूप ने, सहज समाधि स्वरूप ॥७॥
आप्त वैद्य शंका मुक्त ही आप्त है, शंका सब मोह सैन्य । दर्शन-मोह विमुक्त जिन, क्षायिक दृष्टि जघन्य ।।१।। घन घातिक अरि-हंत जिन, सर्वोत्कृष्ट विश्वास्य । विकल सकल-जति मध्य जिन, आप्त त्रिविधि रहस्य ॥२॥
त्रिविध आत्मा आत्म वश अंतरातमा, परवश सो बहिरात्म। आत्म-सिद्ध परमातमा, त्रिविध अवस्था आत्म ॥२॥ वृत्ति-परवश सो हीजडौ, स्ववश वृत्ति सतिरूप। परम - पुरुष • पति भक्तिए, प्रसवें आत्म - स्वरूप ॥२॥
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