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दक्षिण भू तल कमल में, वैक्रिय-लब्धि प्रकाश । आहारक वामे अहो ! संयमधर को खास ॥११॥ दक्षिण स्तन-तल कमल में, तैजस मापक तंत्र । वामे कृष्ण राजी अहो ! कार्मण-मापक यंत्र ॥१२॥ ज्यों ज्यों संवरता सधत, त्यों कार्मण-मल नाश । कमल श्वेतता अनुसरे, यही निशानी खास ॥१३॥ मिट्टी शुद्ध किये पिछे, चश्मा दुर्बिन होत ! कषाय भाव असंग यह; चित्त शुद्धि की ज्योत ॥१४॥ दुर्बिन छोटी चीज को, बड़ी दिखावत ज्योंहि । योग दृष्टि तारतम्यता, चर्म चक्षु सह योंहि ।।१५।। द्रव्य क्षेत्र कालादिका, सिद्धान्ते परिमाण ! योग दृष्टि सापेक्ष वे, चर्म दृष्टि अप्रमाण ॥१६॥ अगम 'अलोक' हि आतमा, लोके निज में लोक । प्रत्यक्षता प्रातिभज्ञान, व्यापक लोकालोक ॥१७॥ स्व-पर गति आगति तथा, भूत भविष्य प्रपंच । कलिकाले ही गम्य है, न धरौ शंका रंच ॥१८॥ लोक पुरुष संस्थान यह, धर्म ध्यान अनुभूति। ज्ञेय ज्ञान की भिन्नता, प्रगट स्व-पर सुप्रतीति ।।१।। स्व-पर प्रतीति बले सहज, वृत्तियां आत्माधीन । क्षायिक समकित प्रगटता, दर्शन मोह प्रक्षीण ॥२०॥ लोकनाली दर्शन यही, आनंदघन आधीन । क्या जानौं मतिमंद मैं, सत्पुरुषार्थ विहीन ॥२१॥
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