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(१२६ } लोकनालि-दर्शन
॥दोहा॥ न जड़-मान-मतार्थिता, अनुकूलता दासत्व । विषय-मूढ स्वच्छंद ना, सो आत्मार्थी सत्व । १॥ न क्रिया जड़ शुक-ज्ञान ना, ना पर-रंजक-वृत्ति । दृष्टिराग हठवाद ना, यह सत्संगति-रीति ॥२॥ संयम तप अकषायता, सम-सुख-दुख चित्त-वृत्ति। शुद्ध भाव अधिकारी सो, सन्मति मुमुक्ष प्रवृत्ति ॥३॥ सन्मति सत्संगे रहंत, करत ही सत्श्रुति-पान । शुद्ध स्वभावे परिणमत, पावें प्रातिभ-ज्ञान ॥४॥ बाह्यभाव विरेच कर, पूरक अन्तर्भाव। परम भाव कुंभक बले, ध्यावे शुद्ध स्वभाव ॥५॥ बंकनाल षटचक्रको, भेदत शोधत पिण्ड । दिव्य नयन देखे अहो ! व्यापक सकल ब्रह्मण्ड ॥६॥ नाभिचक्र स्थिर ज्योत से, द्वीप समुद्रादि अशेष । खण्ड देशवन नगर गृह, लखतहिं व्यक्ति विशेष ॥७॥ अधोलोक तल चक्र क्रम, सुर असुर व्यंतरादि । सप्त नरक नारक लखत, दुखिये जीव प्रमादि ।।८।। उर्ध्व-उर्ध्व चक्र क्रमे, उदरे ज्योतिश्चक्र । कल्पवासी की श्रेणियाँ, प्रति पांसडीए वक्र ।।६।। गीवाए वेयको, अनुदिश अनुत्तर सिद्ध । शिर गोलक चक्र क्रमे, दूरदेशी मृद्ध ॥१०॥
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