________________
दोहा नट नर्सवत् साक्षी हो, करो कुटुम्ब व्यवहार । मैं मेरापन छोड़ ज्यों, धाय खेलावे वाल ॥२॥ काहे तू इत उत फिरै, सिद्ध होन के काज । मैं मेरापन छोड़ दे, है यह सुगम इलाज ॥२॥
२-४-५४ प्रिय सत्संगी! ल्यो दिव्य संदेशडो रे, करजो सतत अभ्यास, नित्य जीवन घडतर घडजो सदा रे, सहजानन्द विलास ; प्रिय०
धूनदर्शन ज्ञान रमण एक तान । करतां प्रगटे अनुभव ज्ञान ।। देह आत्म जेम खङ्ग ने म्यान । टले भान्ति अविरति अज्ञान ॥१॥ ज्ञाता द्रष्टा शास्वत धाम । सच्चिदानन्द आतम राम॥ ध्याता, ध्यान, ध्येय गतकांम । हुँ सेवक ने हुँ छ स्वाम ॥२॥
दोहराआपज दुखी आप थी, क्या करवी पोकार ? दुख कारण ने पोषतो, अंत ज थाय खुवार । (१२८) आर्या छंद
२६-४-५५ भीषण नरक गति माँ तिर्यंच गति मां कुदेव-नर-गति मां; पाम्यो तुतीव्र दुःख, भाव रे जिन भावना, जीव !...१
१३७
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org