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(८९) विरह पद
सखि हुं तो अधर रही लटकी ।
मुझ अबला ने भोलवी व्हाले, प्रेम पंथ पटकी । चितडुं चोरी छानो मानो पछी, नाथ गयो छटकी | स०|१| पीछो पकड़ी पालव झाल्ये, हाथ दीधो झटकी । रात अंधारी पंथ न सूझे, तेथी अहिं अटकी ||स०||२|| भान भूली क्यां जाऊं हिये मुझ, पियु मिलन चटकी । पाय पडु सखि दे खबर पियु, सहजानन्द नट की ||स०||३|| (९०) आत्म-ज्ञान
कच्छी - ( काफी) राग - कान्हडौ
रे ! असीं आत्मा अय्यु इ' यँ चों'ता,
हिन् मुड़धे में असंग रों' ता...रे असी...
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धो अय ही मिट्टी मसाण जी छू अँधे सुतक लग्गेंता ।
किंय चोवाजे आंऊं ही मुजो ही ? चोंधल चमार रु अंता...रे असीं ?
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नात जात नें नां मुडधे जा, पिंढ जा न मंत्र्यु हाँ तां । बाड़ी छोरा घर कियँ थिों मुंजा जुद्धा दिसजें' ता• • •रे असीं २ पक्खी मेले जियँ कुटम् - कबीलो, कोई केंजो न दिसों' ता । हाय वोय' पोय कुल्ला कैथ्यु' असीं, म्मो उतारी फिरों' ता...रे असीं ३ दिस्से जाणे जुक्को ऊज अँय्यां आंऊ, आत्मा सोहँ जप्पों' ता । संत कृपा सें समजी शमाई, सहजानन्द छकों ता· · ·रे असीं ४
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