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शिल्य कहे अहो गुरुवरा ! रे, वीस दिवस केम लीध ? . गुरु कहे विनयी ! सुणो रे, तेह कहुं शुभ विध हो भाणा 'सूर'-'चंद'-'जंबूपन्नत्ति' ए रे, 'ज्योतिष्करंडक' सार । 'समवायांगादि' दाखवे रे, अधिकमास अधिकार हो भ०।८।। पांच वरस जुग एकमां रे, बासठ पुनमे अमास । तिहां अभिवर्द्धित तणारे, पक्ष छविस तेरे मास हो भ०॥६॥ अधिक मास सहित गण्या रे, वीस दिवस श्रुत नाणी। कल्पनियुक्ति चूर्णिए रे, ए अधिकार व वाणी हो भ०॥१०॥ वृद्धि पोष अपाढनी रे, जैन टिप्पण अनुसार । तेह विच्छेदे तिण समे रे,श्रुतधर निश्चितकार हो भ०॥११ तदनुसारे पचास नी रे, व्यवस्था इण काल । अभिवर्द्धित तणी अछे रे, अनुपम मंगल माल हो भ०॥११ नहि कल्पे लल्लंघवी रे, पचास पर एक रात । अंदर कल्पे कारणे रे, कल्पसूत्रो सुविख्यात हो भ० ॥१३॥ समवायांगे पचास ने रे, सित्तर दिन जो लीध । चारमास ने आश्रिता रे, तास टीकाए कोध हो भ० ॥१४॥ पर्व ए नहि मास आश्रितो रे दिवस आश्रित जाण । भाद्रव नाम न मूल मां रे, एहिज परम सेनाण हो भ०॥१५॥ एंसी दिन संवच्छरी रे, अधिक ने फल्गु मास । छब्बिस ना चोविस वदे रे, केवल मिथ्या भास हो भ०१६ कर्माधीन ते बापड़ा रे, तेहशुं न कीजे द्वेष। जिन वचने दृढतर रही रे,लहीए तत्त्व विशेष हो भ०॥१७॥
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