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सूत्रमा जे विधि दाखवी रे, ते करे जेह प्रमाण । जिन विरहे इण कालमा रे, तेह आराधक जाण ॥हो भ०॥१८॥ भेद मतांतर ना तजी रे, सजी गुण गाही आचार।
समदृष्टिए एहनो रे, करजो अर्थ विचार हो भ० ॥१६॥ कलश-भयठाँण नवे निधि 'शशि'संवच्छर कूहू माघ निशाकरे ।
पर्वाधिराज पजूसणा नी वर्णना मंबापुरे ॥ जिन आणारंगी गच्छ खरतर रत्नत्रयी भूषण प्रदा। शमीदमी "श्रीजिनरलसूरि" छात्र "भद्र" श्रुणे मुदा ॥२०॥
___ (३८) श्री सिद्धचक स्तवन सिद्धचक्र ही आधार, भविकजन !
मुक्ति मारग संस्थापक अरिहंत, तारक जन संसार । भ०॥१॥ अनंत सुखमयी सिद्ध आराधत, घाती अघाती संहार । भ० ॥२॥ छत्तिसगुणगण सज्ज आचारिज, चउविह संघ रखवार। भ०।।३।। दायक निर्मल ज्ञान सुपाठक, आगम तत्त्व प्रचार । भ० ॥४॥ पंच महाव्रत पालक मुनिवर, पुद्गल मूर्छा निवार । भ० ॥५॥ विशुद्ध क्षायिक दर्शन पावत, तृतीय भवे निस्तार । भ० ।।६।। लोकालोक अनंत प्रकाशक, ज्ञान परम पद सार । भ० ॥७॥ संजम ग्राहक षट खंड त्यागी, चक्रो बली अणगार । भ० ॥८॥ काष्ठ पावक ज्युं कर्म अरू तप, आत्म निर्मल अविकार ।भ०॥६॥ इन नवपद को ध्यान यथाविधि, वांछित सिद्धि दातार भ०॥१०॥ "श्रीजिनरत्न" त्रयी प्रगटावत “भद्र” तया भवपार । भ० ॥११॥
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