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भास्यो आतम देव निज, शुद्ध चेतना रूप। अज अजरामर अमल प्रभु, देहातीत स्वरूप ॥१२॥ कर्ता भोक्ता कर्मको, जबलों वृत्ति विभाव । भयो अकर्ता आप तब, वृत्ति बहत निज भाव ॥१२।। अथवा निज परिणाम जो, शुद्ध चेतना रूप । कर्ता भोक्ता आपके,-निर्विकल्प स्वरूप ॥१२२॥ मोक्ष को निज शुद्धता, रत्नत्रयी शिव-पंथ। समझायो संक्षेपसों, सकल मार्ग-निर्गन्थ ॥१२३।। अहो! अहो !! श्री सद् गुरु !!! करुणासिन्धु अपार । इस पामर पै प्रभु कियो, अहो ! अहो !! उपकार !!! ॥१२४।। कासों पू प्रभु-चरण, आत्मातें ‘सब हीन । सो बक्ष्यो प्रभु आपहि, वर्तुं चरणाधीन ॥१२५॥ ये देहादिक आजतें, वत्र्तो प्रभु आधीन । दास दास मैं दास हूँ, आप प्रभुको दीन ।।१२६।। षट् स्थानक समझायके, भिन्न बतायो आप।
प्रगट म्यान तलवार वत् , यह उपकार अमाप ॥१२॥ उपसंहार :दर्शन छहों समात हैं, इन घट स्थानक सिन्धु । मनन करत विस्तारसों, संशय रहे न बिन्दु ॥१२८|| आत्मभान्ति सम रोग नहि, सदगुरू वैद्य सजाण । गुरु-आज्ञा सम पथ्य नहिँ, औषध विचार-ध्यान ।।१।।
जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य-पुरुषार्थ । ' भवस्थिति आदिक आड ले, मत चूको आत्माथं ॥१३०॥
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