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________________ निज सत्त्वे एकत्वता, उदय अव्यापक भाव । ज्ञाता द्रष्टा साक्षीए, उपजे आत्म स्वभाव ॥४॥ सहस्र पत्र पंकज परे, ब्रह्म नलिनी माय। आतम आतमता वरे, सहजानन्दघन त्यांय ॥५॥ (९४) अलख वाबा आयो जी मारो, अलख बाबोजी आयो, ओरत रो थो खालड़ो ओढी, माही आप छिपायो १ आयो० लाख चोरासी नाटक करी ने, सघलोई लोक रिझायो २ आयो० लोक रंजन सो पार न पाये; नाचत आप थकायो ३ आयो० अब तो रिझवे आपरो मालिक, सहजानन्दघन रायो ४ आयो० (९५) वि चार नो विचार नाराच छन्द विचार रे । विचार तु, 'वि' चार नो विचार आ, विचारिए वि चार नित्य, सार तत्त्व पामवा, लखी जुदी वि वार चार, शब्द-पूर्ति सुख प्रदा, अहं तजी विनय सजी, सुसंत शरण ले सदा ॥१॥ विशुद्ध संत-चरण-शरण, हृदय-नयण दे मुदा, विवेक थी स्व-आत्म देह, अनुभवो जुदा जुदा, टले अज्ञान - भांति - ज्ञेय, निष्ठता स्व अनुभवे, असार क्षणिक पंच - विषय, थी विरक्ति उद्भवे ॥२॥ स्वद्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव, नी ज योग - क्षेमता, असंग - मौन - स्वरूप गुप्त, विचर छेद भव-लता, सुदृष्टि - ज्ञान थी स्वरूप, - निष्ट था महारथी, विज्ञानघन विमुक्तानन्द, - सहज ले विचार थी॥३॥ ११७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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