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स्यात् पदांकित शब्दब्रह्म, ने संवेदन साख;
युक्ति बोधथी तुज कहुँ, सुण रे ! थई थिर थाप...१५ ज्योत घटादिक उभयनो, द्योतक दीपक जेम;
- चेतन ! ज्ञायक भाव तुज, स्व-पर प्रकाशक तेम...१६ दाह्याकार छतां दहन, दाह्य पणुन धराय
- ज्ञेयाकार छतां ज तु, ज्ञेयपणे नव थाय...१७ दर्पण जल गत बिम्बना, जल दर्पणता पाय;
तेम दृश्य ज्ञेय बिम्बथी, चेतनता न पमाय...१८ ज्ञय ज्ञान अनुभव समय, सोहं सोहं थाय;
... ते स्वरूप तुजनो सदा, ज्ञायक भाव बदाय...१६ क्षीर-जल न्याय अनादिथी, तुज सम्बन्ध जड़ साथ; . पण तु-तु जड-जड सदा, सौ सौ निज निज नाथ...२० अनंत अवस्था पिंड तु, एक अछेद्य अभेद;
सत्य दृष्टिए छो सदा, निर्विकल्प निर्वेद..२१ पामर जन प्रतिबोधवा, चारित्र दर्शन ज्ञान;
प्रमत्ताप्रमत्त भेदादि सौ, वे'वार मात्र प्रमाण. . .२२ चूरि आदि पर कालिमा, पन्नर वला पर्यत;
सोल वलानी दृष्टिए, कनक अशुद्धतावंत...२३ जड संगे चेतन रह्यो, गुणठाणांत पर्यंत;
सिद्धस्वरूपनी दृष्टिए, तेम अशुद्धतावंत...२४ अशुद्ध विषय व्यवहारनो, निश्चय शुद्ध प्रमाण;
निज निज स्थाने सत्य पण, विरोध आपस जाण...२५
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