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(१३९) संज्वलन-कषाय-स्वरुप राग-आशा
७-१०-५७ साधो भाई ! अप्रमत्त-पद लीजे, समय प्रमाद न कीजे.. सा० सम्यक्-ज्वलने चारे संघनी, ममता लोभ कहीजे... शिष्य हिते वक्रोक्ति माया, गुरूपद मान हणीजे.. सा० १ प्रत्यनीक प्रति शिक्षा क्रोधे, बोधे भव्य बोधीजे... एम संघ रखवाली करतां, उद्भव ज्वलन शमीजे.. सा० २ स्वरूप लक्षे योग-प्रवृत्ति, पंच समिति वहीजे... संयमित तन रक्षा काजे, तेथी पण विरमीजे.. सा० ३ आत्म-प्रतीति-लक्ष अखंडित, तोय स्वरूप-स्थिति छीजे, अखण्ड स्वानुभूति-च्युति ए, प्रमत्त-भाष तरीजे. सा० ४ मंद कषाय-संज्वलन जीती, अप्रमत्त थई जीजे... स्वरूप-गुप्त-असंग-मौन रही, सहजानंद रस पीजे.. ता० ५
(१४०) विरह
खण्डगिरि ८-१०-५७ लागी मोहे पियु मिलन की चटकी . .(२) पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, चउ दिसि भू-तीरथ की: नदी-विवर गिरि-गह्वर खेटक, ग्राम नगर वन भटकी- लागी० १ तप जप ब्रत यम नियमादिक सह, शास्त्र पुराणे अटकी : व्यर्थ भये सब साधन अब तक, सच्चेगुरु बिन लटकी. लागी०२
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