________________
ता० १८-१०-६० (राग-सारंग)
गुरू समता-रस भण्डार है (२) अपराधी अपराध करें यदि, क्रोध न निरहंकार हैं ; गुरू०१ चाहे कितनी भक्ति करो कोई, लोभ प्रति तिरस्कार हैं ; व्यक्त करें अपनी कमजोरी, दंभ प्रति धिक्कार है ; गुरू० २ विद्यादाने अप्रमत्त कोई, आवो आप तैयार हैं ; 'कम खाना और गम खाना' इस उक्ति के आधार हैं. • गुरू० ३ निन्दा करो चाहे स्तुति करो कोइ,उदासीन अविकार हैं ; उपाध्याय लब्धिमुनि ऐसे, सहजानंद-पद पा रहैं. • गुरू०४
मेरे गुरु पाठक-लब्धि निधान, संस्कृत भाषा के विद्वान ; चाहे कोइ किसी भी मत के हो, पढावें सबको हर्षित हो...१ समय ले चाहे जो जितने, पढ़ें साधु-साध्वी गृही कितने; होय यदि बुद्धि-जड़ तोभी, जिजक नहीं तुषित होत सोभी...२ पद्यमय करी ग्रन्थ-रचना, चरित्रो श्रीपालादि घना ; स्तुति स्तोत्रादि कृतियां सभी, सरलतम पढ़ो चाहे कोई भी "३ मैं भी पढ़ा इन्हीं के पास, न देखी प्रतिसेवा की आश ; जिन्हें हैं अति भद्र परिणाम, उन्हें हो सहजानंद प्रणाम...४
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org