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________________ अंतरदृष्टि ३५ लीन थई, बहिरातमता६ खेह • । आतम ८ अर्पण भाव थी, वंदूं पूनुं तेह ॥ १०॥ संताश्रय ९ श्रुतज्ञान लई, धरू सालंबन ध्यान १ । लखू२ रूप ३ भिन्न देह थी, जेम खडग ने म्यान ॥ ११ ॥ स्वालंबन ४ थिर ज्योति ५ ते, सुधा' ६ वृष्टि पय पीन' । दिव्यध्वनि ८ अनहद सुनी, अबाध्य ९ सुख मन लीन ॥ १२॥ स्व स्वरूप५० एकत्वता, पराभक्ति५१ सदुपाय५२ । कर्मों५३ संवर५४ निर्जरे,५५ सहजानंद५६ पद राय५७ ॥ १३ ॥ स्वोपज्ञ संक्षिप्त टिप्पण [सं० २००३ में प्रकाशित "पंच प्रतिक्रमण-सूत्र" से अनूदित ] १ सिद्ध-कर्म रहित शुद्ध जीव द्रव्य-मोक्ष के जीव, पद-पदवी, २ निज-( कर्म सहित अशुद्ध जीव-द्रव्य संसारी जीव, उसका) अपना, ३ समान ४ प्रगट ५ विद्यमान गुण समूह का अप्रगट सत्ता में रहने के भाववाची 'शक्ति' शब्द का यहाँ ग्रहण हुआ है। ६ जिन पदार्थों का स्वयं कार्यरूप में परिणमन नहीं होता किन्तु जो कार्योत्पत्ति में सहायक होते हैं, जैसे-घड़े की उत्पत्ति में दण्ड चक्र आदि, ७ राग-द्वेष जीतने वाले वीतराग परमात्मा, ८ ज्ञानादि अनन्त गुण मय स्वाभाविक स्वरूप संपत्ति, जो पदार्थ पहले कारण रूप होकर स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जांय जैसे-घड़े की उत्पत्ति में मिट्टी अनादिकाल से द्रव्य में जो पर्यायों का प्रवाह चल रहा है, उसमें अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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