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________________ पर्याय को उपादान कारण कहते हैं और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य कहलाता है। १० ज्ञान-चक्षु के बिना मात्र चर्म चक्षु से जो न पहचाना जाय वह, जैसे भगवान आनन्दघनजी ने कहा है-“वरषा बुन्द समंद समाने, खबर में पावे कोइ; आनंदघन | ज्योति समावै, अलख कहावै सोई” ११ अरूपी १२ अनुपम, उपमारहित १३ अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत सुख, अनंतदान, अनतलाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग और अनंत वीर्य ये नौ क्षायिक लब्धि रूप नौ निधान १४ देहधारी १५ महाविदेह क्षेत्र में, १६ जिसके उदय से स्व-पर पदार्थों की विपरीत श्रद्धा हो जाय, परिणामतः ज्ञान और आचरण उल्टा होकर संसार में चिर स्थिति हो जाय, ऐसे आत्म परिणाम विशष की उलझी हुई सघन मिथ्यात्व-गाँठ, १७ रहित १८ क्षायिक सम्यक्त्वी-निज स्वभाव ज्ञान में केवल उपयोग से आत्मा का तन्मयाकार सहज स्वभाव में निर्विकल्प परिणमन हो उसका नाम है सम्यक्त्व । निरंतर वह प्रतीति बनी रहे उसका नाम है क्षायिक सम्यक्त्व, वह जिन्हें प्रगट हुआ है वे । इसकाल में भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है। यथा--"खाइग सम्मद्दिढि जुगप्पहाणागमं च दुप्पसह" आर्य सुधर्म प्रभृति दुप्पसहसूरि पर्यंत जो २००४ युगप्रधान हैं, वे सब क्षायिक सम्यक्त्वी ही हैं; "तं तह आराहेज्जा, जह तित्थयरे य चउव्वीसं।" "जुगप्पहाणो जिणव्व दव्यो” उनं प्रत्येक क्षायकदृष्टि युगवरों को जिनेश्वरवत् देखना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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