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आराधन करना चाहिये, उनकी और वैसे ही उनके वचनों की बौधीसों-तीर्थंकरों की भाँति आराधना करना (श्री श्रेणिकादिबत् शेष तीर्थंकर नाम कर्म रहित अत्यागी क्षायिक दृष्टि वाले भी "भावी सामान्य केली” पने आराध्य हैं इसी कारण से युगवरों के अनेक स्थानों में सूपादि विद्यमान हैं किन्तु अशा साधक वर्ग, लौकिक दृष्टि से उनकी आराधना करते हैं वह मिथ्या है। "महानिसीहाओ भणिय" ऐसा महानिशीथ सूत्र की साक्षी से, बारहवीं शती के सुविख्यात युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी ने 'उपदेशकुलक' (गा० २०-२६) में कहा है। ( देखो अगरचंदजी नाहटा प्रकाशित 'युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि प्रन्थ पत्रांक १३) १६ सत्पुरुष-महात्मा २० भविष्य में होने वाले तीर्थकर, २१ ( उसी प्रकार भविष्य में होनेवाले ) सामान्य केवल्ली, उक्त अर्थवाची महंत शब्द को यहाँ ग्रहण किया गया है। २२ उनके २३ अविद्यमान काल में २४ साकार अथवा निराकार पदार्थ में 'वे ये हैं', इसप्रकार अबधान करके स्थापन-निवेश करना उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं, जैसे पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को पार्श्व-प्रभु कहना, २५ भेदभाव रहित २६-२७ (स्थापना ओ निमित्त कारण है उस ) निमित्त कारण में कर्मापन का आरोपण करके, उनका ध्यान करने से ध्येय-स्वस्वरूप की प्राप्ति होती है। कर्त्तारोप के बिना भक्तिभाव उल्लसित नहीं होता। उसी प्रकार देहादि परपदार्थों के प्रति अहं-ममत्व नहीं
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