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अन्तरंग हच्छा रहित जनी गुप्त आचरणा सदा, निन्दा स्तुति शाता अशा अशाताथी न मन सुख-दुख कदा ॥२॥ भव एक जो सत्पुरुषने राजी करे सहवासथी, तेनी बधी इच्छा प्रशंसे रोम रोम उल्लासथी ; पंदर भवो मांहेज तो तूं पामशे मुगति सही, गुरुराज-अनुभव-गंग सहजानंद-रसथी लहलही ॥३॥
[श्रीमद् राजचन्द्र पत्राङ्क १६४-७६] (६४) सत्पुरुष-लक्षण पद
ता० ३१-३-५४ मनहर-छन्द मनोवृत्ति वहे निराबाध निरंतर जेनीसंकल्पो विकल्पो जेणे अति-मंद पाड्या छे, पंच-विषये विरक्त-युद्धिना अंकूरा फूट्याक्लेशनां कारण जेणे मूलथी उखेड्यां छे ; अनेकान्त-दृष्टि युक्त एकान्त सुदृष्टि सेवेजेनी सहजानन्दघन शुद्ध वृत्ति वहे छे, जेमां सद्गुरुत्व अने सत्संग सत्कथा रह्योंते जयवंता वत्र्तों ! तेने सत्पुरुष कहे छे...१ (६५) सत्शिक्षा पद
कन्चाली अहो ! परम शान्त रसमय, शुद्ध धर्म वीतरागी ; छे पूर्ण सत्य नियमा, कर मान्य जीव ! जागी ।।१।।
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