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________________ चेतन-पर्यय द्विविध छे, स्वभाव अने विभाव ; कार्य कारण बे भेदथी, छे निरूपाधि-स्वभाव...४८ कारण-शुद्ध-पर्याय ते, अंतरात्म-वृाते-गेह; छे परम पारिणामिकी, भावे परिणति जेह • ४६ सिद्धात्म-सघन-प्रदेशता, अथवा अर्थ-पर्याय ; क्षायक भावनी परिणतिज, कार्य-शुद्ध-पर्याय...५० सर्व-व्यापक निज ज्ञानमां, षड् गुण हानि-वृद्धि ; ____ अगुरु-लघु गुण-पर्यये, विरमे संत-सुबुद्धि...५१ कारण-गुण पर्यय रमे, ते कहिये अंतरात्म; कारण प्रभु पण तेज छे, अन्य अशुद्ध बहिरात्म...५२ ते देहाकारे रमे, शात-अशात कुटाय ; नर-तिरि-सुर-नारक-तने, विभाव-व्यंजन-पर्याय...५३ मोह क्षोभ सुख दुःखनो, कर्ता-भोक्ता मूढ़ वीतराग सुसमाधि नो, सहजानन्द अमूढ़...५४ देह देवले देव ए, शाश्वत शुद्ध खचीत ; दर्शन ज्ञाने रमणथी, सहजानन्द प्रतीत...५५ जड़-विज्ञान : २ पुद्गल धर्म अधर्म नभ, काल अचेतन द्रव्य ; निज निज गुण-पर्याय युत, पांचे जड़ ज्ञातव्य...५६ पूरण-गलन स्वभाव थी, पुद्गल नाम कहाय ; बने पुरणे स्कंध ने, गलने अणु रही जाय...५७ स्वभाष-पुद्गल 'अणु' कह्यो, विभाग छे 'स्कंध' रूप ; अणु-चउ स्कंध-छ भेद थी, पुद्गल मूर्त स्वरूप...५८ २२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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