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(१५८) महेश
शिवधाड़ी-बीकानेर २५-१-५६ मानव जो भजे जिनेन्द्र महेश, तो छूटे भव क्लेश मानव... स्तवन स्मरण करी श्वास उश्वासे, भजतां प्रभु ने हमेश; रटतां जिन पद निज पद पामे, आत्म स्वरूप स्वदेश: • •मानव... ममता मोह मान मदमारी, मन धरी आत्म प्रदेश ; हे जिवड़ा तु भज प्रभु ने नित्य, तज रे प्रमाद अशेष. मानव... शमाई जा निज आत्म भवन मां, समजी जुदो तन-वेश ; जीवन मुक्त सहजानन्दघन था, साचो. देव महेश• • •मानव...
(१५९) प्रार्थना . . .
. शिववाड़ी-बीकानेर ३०-१-५६ चंचल चित चिहुं दिशि भटकत है (२) दुर्दम दुर्गम दुर्पथ दौडत, दोष दावानल पटकत है."चं० मार्ग-महंत मानवता मौडत, मन्मथ मोहे अटकत है..'चं० मारत मारत मस्तक हंटर, मानत नहीं अति नटखट है.. चं० साह्य करो प्रभु सहजानंदघन, तेरो शरण एक ही सत है"चं० (१६०) योग-दृष्टि-समुच्चय सार पद .. हरिगीत
४-२-५६ तृण तेज सम-भा खेद-क्षय, अद्वेष यम मित्रा महीं छाणाग्नि-भा अनु द्वेग जिज्ञासा नियम तारा अहीं काष्टाग्नि-भा अविक्षेप सुश्रषा सधे आसन बला अनुत्थान, दीप प्रभा श्रवण प्राणायामी दीपा भला"१ रत्ना-भ, भान्तिक्षय, स्थिरा, निज बोध प्रत्याहारणा तारा-भ कान्ता, अन्यमुद् क्षय, गुणमीमांसा धारणा भवरोग-क्षय रवि-भा प्रभा मां ध्यान सत्प्रतिपत्ति ज्याँ आसंग-क्षय शशि भा परा स्व प्रवृत्ति सहज समाधि त्यां...२
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