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चेतत चालो पुरुष व्याघ्रन सों, धूर्त्त कामी प्रिय भास ;
तकें शिकार ज्यों बुगला मच्छ को करो न रंच विश्वास - स० ३ हुआ अग्नि भी जल शीतल ज्यों, महिमा शील सुवास ; शील निष्ट महासती सीताजी, पद प्रणमुं सोल्लास स० ४ स्वरूप लक्षे योग प्रवर्त्तत, आत्मनिष्ठ अभ्यास ; शील ब्रह्म निष्ठा परमार्थिक ! सहजानंद विलासस० ५
(१५७) शीलेापदेश
राग-धन्याश्री
रे० १
रे सति ! तज नर पशु जन संग, पडत शील में भंग गरे० सुघत सुघत लपकत लंपट, मृगनयनी मृदु अंग ; सदा अतृप्त नर- व्याघ्र व्याधमन, नयन वक्र मुख व्यंग फुत्कारें फणिधर ज्यों फुत फुत, फांदत कुनर भुजंग ; डंकत व्यापे विषम विकलता, धधकत अनल अनंग... रे०२ अर र र ! यौवन बाग उजाडें, वानर-नर विकलंग ; कोमल कलियाँ कुम्पल फल सब, तोड़ मरोड़ अपंग रे० ३ जहाँ से निकले तहाँ चाटत छी ! मुत्र पुरीष सुरंग ; लड मरें नर कुत्ते हरामी, करत परस्पर जंग रे०४
१५८
महालक्ष्मी ऊन ता० २४-११-५८
दगावाज नर बाज तके नित, ज्यों तीतर शिशु तंग ; सावधान हो शील धर्मं भज, सहजानंद अभंग २०५
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