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(१६१) प्रेरणा
४-२-५४ जीया तू दीया जला दिल का (२) जीव शरीर जुदा दिखला ज्यों, खली तेल तिलका. जी० भंग अनादिव मोह ग्रंथि हो, आत्म भौति छिलका“जी० वमन विरेचन रांगद्वष कर, शाम्य धर्म झलका.. जीय रीति ऋषिजन भीति भगा हो, सहजानन्द हलका" जी० (१६२) सत्संग प्रेरणा अबंचक त्रयी
४-२-५३ प्रतिदिन नियमित सत्संग करो..(२) भाव विशुद्ध संत-शरण गृही, योग-अवंचक मंच ठरो.. प्रक वर्शत क्च तन-मन आज्ञाधीन, किरिया अवंचक राह खरो...५० तीर्थपति निज जिनपद पावत, फल अवंचक भांति हरो"प्र० रामपुरी आराम स्वधामे, सहजानंदघन सिद्धि वरो.. प्र० (१६३) मन पंछी पद
१५-१०-५६ चंचल मन-पंछी चुप रहो! पंख बिना उडत रे अंधा! इधर-उधर क्यों झांकत हो... हाथ विहीन कछु हाथ न आवत, पांव विहीन क्यों फांदत हो...चं० मुख विहीन क्यों मुख मरोडत, नाक विहीन नकटाइ करो"चं० रे बधिर ! सुन बास हमारी, सहजानन्द प्रभु शरण यहोवं० १६०
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