________________
(८६) मन-सांधना पद चेतन ! मन भूतड़ वश कीजे, नव क्षण न मेलीजे ।चे। खय कालजु नवलं' मेल्ये, उद्यमी उद्यमे रीजे ;
आत्म विचार रुकायं मलावी, सत् साधना साधीजे ।चे० ११॥ द्रव्य गुण पर्यय लक्षण थी, जड़ चेतन परखीजे ; पर स्वामित्व तजी साक्षी थई, जड़ अहत्व हणीजे । ०।२। अज अजरामर ज्ञानानन्दी, सोहं जाप बलि दीजे ; मेरु थंभ गमनागम सौंपी, सुखमण नाथ नथीजे ।०।३। करे मध्य जो अन्य विकल्पो, तेथी जरी न डरीजे; पूर्वोपार्जित आवे टलवा, उदये अण व्यापीजे।।४। श्रमित थये सतसंग सरोवर, उपशम जल झीलवीजे; निर्विकल्पता पलंग तलाई, संतोष पोढवीजे ।चे०१५ . नाद ज्योति अमीरस अधरासन, लब्धि सिद्धि न लीजे; परम कृपालु पाश्व-महावीर, साधनता समरीजे ।।६। बाह्याभ्यंतर त्याग वैराग्ये, सत्पुरुषाथ धरीजे ; दिव्यनयन सहजानन्द प्रगट्ये, मन साधनता सीझे ।
(८७) विरह पद
राग-जोगीया ताल दीपचंदो अरे रे ! हजु मोत न आवे, मने विरह खमाय न वोय । चितुडुं चोरी ठहाला क्यां छुपाया, शोधुं क्या जइ लोय ? नीर विनां जीवे देदरीआं, मछली प्राण ज खोय ।।१।। प्राण पपैये पियु पियु रटते, नांख्युं हृदय विलोय । कण्ठ रंधायुं डसका खाते, तुम कारण रोय रोय ॥२॥
.
११३
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org