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________________ मत-मठधारी लिंगिया, तप जप खप एकान्त , गच्छधर जैनाभास पण, पर रंगी चित्त-भान्त...२ टक्या सन्त कोई शूरमा, तास सेव धरी नेह ; अनेकान्त एकान्त थी, सहजानंदघन रेह "३ धर्मनाथ चै० १५ धर्म-मर्म जिनधर्म नो, विशुद्ध द्रव्य स्वभाव ; स्वानुभूति वण साधना, सकल अशुद्ध विभाव' १ तप जप संयम खप थकी, कोटि जन्मो जाय ; ज्ञानांजन अंजित नयन, वण नवि ते परखाय...२ दिव्य नयन धर सन्तनी, कृपा लहे जो कोइ ; तो सहेजे कारज सधे, सहजानंदघन सोई...३ शान्तिनाथ वै० १६ सेवो शान्ति जिणंद भवि, शान्त सुधारस धाम; अवर रसे आधीन जे, तेथी सरे न काम...१ शान्तभाव वण ना लहे, शुद्ध स्वरूप निवास ; लवण-महासागर जले, कदी न बूझे प्यास...२ तेथी शांति-स्वरूप नो, सतत करो अभ्यास ; सहजानंदधन उल्लसे, सन्ताश्रयणे खास ३ कुन्थु-चै० १७ कुंथु-प्रभु ! मुझने कहो, मन वश करण उपाय ; जे वण शुभ करणी सही, तुस-खंडन सम थाय १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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