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(६) श्री ऋषभ जिन स्तवन
(राग - आशावरी )
ऋषभजी अब मोहे पार उतारो, म्हें रुल्यो गति चारो ॥ ऋ० ॥ कनकोपल वत् वसी निगोदे, काल अनन्त गमायो । जाति पंचेन्द्री इग विगले, भ्रमण करी दुख पायो ॥०॥१॥ काम क्रोधादिक वश पड़ी ने, राग द्वेष बहु कीनो । पुण्योदय तुझ दर्शन ही ने, बंधाश्रव से व्हीनो ॥ ऋ० ।। २ ।। चारित्रमोह क्षय-उपशमी ने पंच महाव्रत धार्यो ।
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आशीष मुक्त महेर करी ने, जिम निज कारज सार्यो । ऋ० ||३|| नाभिनंदन त्रिजगवन्दन, माता मरुदेवी जाया । सिद्धाचल गिरि कर्म-निकंदन, पूर्व नवाणुं आया ॥ ऋ० ॥ ४ ॥ पूर्वे सिद्धा इणगिरि मुनिवर, तेम भविष्ये जेह | रत्नत्रयी निजातम सुखकर "भद्र" नमें धरी नेह ॥ ऋ०॥ ५ ॥ (७) चन्द्रप्रभ जिन स्तवन राग-धन्याश्री
चन्द्रप्रभु ! सुनिये अरज हमारी... सुनिये ... दुख समुदाय सह्यो नहिं जावे, त्रिविध ताप संसारी । मानवता सह दो प्रभु हमको, परा-भक्ति तुम्हारी | माया-मोह - विकल इस मन की, बलि स्वीकारो मोहारि । साहस दो रहूं शरण तुम्हारे, सहजानंद पद चारी ॥ पावागिरि ऊन, ता० २४-७-५८
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