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स्वयंज्योति चैतन्यघन, शुद्ध-बुद्ध सुखधाम; ......... सदा अरूपी एक हुं, मुज भिन्नथी शुकाम १८० तूस सहित अक्षत अने; अक्षत तूस रहित ;
तेम स्वरूप अमानता; जणो जीव-शिव रीत"८१ विभूम चादर ओढीने, थयो चेतन नटराय ; है जग रंगथल नाटक करे, विभिन्न स्वांग सजाय...८२ करे अज्ञ प्रेक्षकजनो, नट स्वरूप विचार ;
'स्वांग सहित' नटरूपता, एक करे निर्धार...८३ 'स्वांग-मात्र' नटको' कहे, 'स्वांग भाव' ने कोय;
. 'शुभाशुभ परिणामता' नट स्वरूप ते होय. . .८४ को' परिणाम-प्रवाहने, नाट्य-क्रिया कहे अन्य ; . 'पुण्य-पाप' नटको, वदे, नट सु ब-दुःव अधन्य"८५ स्वांग जन्य ओ परिणति, नट रूप थाय केम ?
- देहादिक सौ परिणति, आत्म स्वरूप न तेम"८६ नाठ्यक्रिया तन्मय करी, द्रव्य लहे नटराय ;
मुख्ये ते जड द्रव्य व्यय, अष्ठ कममां थाय...८७ मोह-मदिरा पानथी, छक्यो रहे दिनरात ;
भान्तिज चश्मे असतमा, सत्श्रद्धा अपनात...CE जडात्म बुद्ध जडजने, देखे जाणे सदाय ;
... निज स्वरूप दर्शन अने ज्ञान-पटल प्रगटाय.. आत्म वीर्य अपव्यय करे, वीर्य विघ्नः गुटिकाय;
भोग लाभना दान थी, निजानंद अंतराय...१०
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