________________
(१४४) प्रेरणा
__ खण्डगिरी ६-१०-५७
राग-मालकोष क्यों चोरो प्रभु को देकर मन...
देकर मन तुम देकर मन...क्यों... लेकर सर्वार्पण की प्रतिज्ञा, प्रतिपालन को करो जतन : दत्त वस्तु को अदत्त-ग्रहण से, लागे श्रेष्ठो-पद लांच्छन "क्यो० १ कर्म-बंध होवत अहं-मम से, मन दोषो यही परिभृमण : पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जेल शयन क्यों० २ सभी परिग्रह मन अधीन है, मन चोरत हो सभी हरण : । भोगे-मैथुन झूठ ने हिंसा, पंच पाप में होत पतन क्यों०३ मन ही संसार असार अशुचि, मन-मुक्ति यही सिद्ध-वतन : सहजानंद प्रभु-पद मन बलिकर, मुक्त भक्त हो करो भजन "क्यों०४ (१४५) सत्संग-रंग
खण्डगिरी १०-१०-५७
राग-खम्माच साचो सत्संग रंग, द्वन्द्व जंग जीते. साचो० कल्पना-तरंग व्यंग, वासना-अनंग भंग : तृष्णा-गंग छल छलंग, ढंग भये रीते. साचो० १ क्रोध-अनल मान-गरल, मोह-तरल मिथ्या-बरल : . भये खरल अमल-कमल, आप सरल चित्ते"साचो० २ त्रिविध ताप पाप काप, आप आप-रूप व्यापः सहजानंदघन अमाप, छाप संत नीके "साचो० ३
१५०
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org