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(१५१) अमी-वर्षा नूतन वर्षाभिनंदन
वि० सं० २०१४ का० सु० १ ता० २४|१०.५७ राग-मालकोश
वर्षो प्रभु अमी- वर्षा सदा... (२) संवर-धम सुमर्म प्रबोधे, बोधी समाधि स्व-संपदा; तत्व सत्त्व सम्यक्त्व स्वभावे, हग-ज्ञाने समता यदा... व० १ प्रभु-पद स्वरूप - विलास भवन मां, रमता राम रमे तदा; भासन स्थिरता आत्म स्वरूपे, श्री सहजानन्दघन रस प्रदा... व० २ (१५२) उपदेश कव्वाली खंडगिरि २५-१०-५७ हे जीव ! तू भूमा मत, कहूं बात तेरे हित की; आनंद है अंतर में, सम-श्रेणि खोज चित्त की ... १ जो रत्न चित् निधि के, अप्राप्य जड़ निधि से; निर्दोष शांति आनंद, हैं प्राप्य चित् निधि से ... २ बहिरंग जड़ खजाना, चित्- कोष अन्तरंगे; क्यों विषम-श्रेणि भटके, तू पंच विषय संगे... ३ तज कर्म-कर्मफलदा, द्वय चेतनावलंबन; भज ज्ञान चेतना को होगा निरावलंबन...४ प्रत्यक्ष अनुभवेगा, आनंद गंग तत्क्षण; तब सहजानंदघन तू ! कहलाएगा विचक्षण !... ५ (१५३) चार अवस्थाएं
राग- आशा
ज्ञान- सुधारस - डेरी.... रहें सुषुप्त बंधेरी; द्रव्य भाव सुषुप्ति अवस्था, मृतक प्राय अंधेरी... अवधू० १ स्वप्न - सृष्टि ज्यों देहादिक पर, अहं मम भूत लगेरी; आत्म अभाने द्वंद्व-अशांति, स्वप्न अवस्था ठगेरी... अवधू २
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अवधू! तुर्या अवस्था तेरी, आत्मज्ञान अरु देहभान दोय,
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२५-१०-५७
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